ज्ञानं अनन्तं


दिन भर का सत्र, कुछ जब द्वितरफ़ा न हो तो उबाऊ हो जाता है, कुछ बोझिल सा। पिछले वक्ता जिस प्रकार अपने वक्तव्य को खींच रहे थे, तो हॉल खाली हो चला था। चाहते तो हम भी यही थे, पर कुछ शिष्टाचार और कुछ मथने में हाथ न बटायें, तो मूक दर्शक से। पर, ध्यान सच में, अब मोबाइल की ओर चल रहा था।


संसद की बुनियादें, लेखकों का उद्धरण देते एक अधिवार्षिकी प्राप्त कर चुका प्रोफेसर जब डायस पर आया तो, सब एकटक से एकतरफा हो चले।


प्रो. आनन्दकुमार ने दलों का वास्तविक चित्रण प्रस्तुत किया, धर्म, जाति, सम्भ्रान्त लोगों से चलता दलीय तंत्र, अब उपजातियों की ओर बंट रहा है, यह स्वरूप प्रासंगिक है तो भी विचारणीय है। लोकतंत्र केवल दो दलों की बपौती हो कि इस वर्तमान स्वरूप तक विकेंद्रीत?


सुर, असुर पैदा करता यह समाज किंकर्तव्यविमूढ़ न हो। भगवान, मर्यादापुरुषोत्तम औऱ धर्मराज, शास्त्र ने कृष्ण-राम-युधिष्ठिर सभी पर प्रश्न खड़े करें।


पुरुषार्थ, जीवन से भागना नहीं, जीवन को उत्सव से जीना। स्वाभिमान, स्वधर्म के साथ जीना। मनुष्य का सामाजिक प्राणी होना, इसमें होना महत्वपूर्ण है। चित्त की पाशविकता को दमन करना, अभाव में भी सर्वे भवन्तु का भाव होना, समाज है।


अन्वेषण हेतु निकलना ही सतत जीवन का सार है, बाकी सब तो अयं निजः तक में ही उलझ भर जाते है, फिर वसुधैव कुटुम्बकमं  का भाव तो नहीं होगा।


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IGNCA-New Delhi/05 May 2019


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