हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया
यह अगली पीढ़ी की पहली शादी और परिवार के अभिन्न सदस्य , बेटी की विदाई भी। गुड्डू , गुड्डा , गुडवा , बाबू सबके अपने स्नेह का पात्र बड़े भैया की बेटी का पाणिग्रहण सबके लिए उत्सव , लाड चाव , सबका विषय रहा , पर विदाई में एक सदस्य की दूसरे घर की ओर प्रस्थान भर थोड़ी होता हैं। बेटी पराया धन होती हैं , अमानत होती हैं , यह सब सुनने-सुनाने के बाद भी तो एक बेटी पूरे घर की रौनक होती है , बस्ती होती हैं , अभी-अभी तीसरे प्रहर जब गठजोड़े के साथ नए घर की इस यात्रा के हम दर्शक से हो गए। कालिदास का प्रियपात्र महर्षि कण्व को अभिज्ञान शाकुंतलम में कितनी ही बार पढ़ा , समझा भी पर प्रत्यक्ष आज भतीजी आराधना के पाणिग्रहण में सब देखा , समझा और अनुभव किया। कण्व का "हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया , कण्ठस्तम्भितबाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम्। वैक्लव्यं मम तावदीदृशमहो स्नेहादरण्यौकसःपीडयन्ते गृहिणः कथं नु तनयाविश्लेषदुःखैर्नवैः॥ “ को आज समझ पा रहा हूँ। मुद्दई थोड़ा गम्भीर होकर भी इस कमी को महसूस करता था , अब तो सब बदल ही गया। अब हम तो भये परदेशी , तेरा यहाँ कोई नहीं! मुखड़ा सच न था , पर अंतरा अब कचोटता रहेगा ,