हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया
अब हम तो भये परदेशी, तेरा यहाँ कोई नहीं! मुखड़ा सच न था, पर अंतरा अब कचोटता रहेगा
,... रह रहकर वो याद सामने आएगी, नज़र उधर देखना चाहेगी, पर निष्ठुर मन खुद को दिलासा दे देगा, पर ...हम ससुराल चले तेरे आँगन में अपना बस बचपन छोड़ चले कल भी सूरज निकलेगा कल भी पंछी गाएंगे सब तुझको दिखाई देंगे पर हम न नज़र आएंगे यह सब भूला यो नहीं जाता।हर साल कैलेंडर, साल बदलने पर कुछ दिनों पिछले साल की सन ही लिखने में आती हैं, ओर कुछ दिन बाद हमें नई साल रास आने लगती हैं। पर गोद में खेला बचपन एक उत्सव-संस्कार के विदा के बाद भी मन को द्रवित करता ही हैं। गुड्डू, बाबू की भागम दौड़ का हिस्सा, भानु की चुहलबाजी, छुटकी की अन्तरंगता के साथ की क्षणिक गुस्से-मधुस्मित मुस्कान, मां की सहचरी-रात दिन और कभी-कभी मध्यरात्रि की कहानियों-गीतों-भजनों की श्रोता सभी, बाबा के हर एक पुकार पर हाज़िर, मम्मी के साथ कुछ गुस्सा जताने पर भी अन्तस से निश्चल सम्बन्ध। ये कुछ संबंधों की ही बानगी, बाकी और भी बहुत कुछ लिखना हैं। चौबीस साल से दिखता, बचपन हम सब के लिए वो वही गुड़िया सी है, जो कभी पिड्डे से हिंडती भी खिलखिला हँसती, भरे गिलास में हाथ डालकर बाहर उस पानी को निकाल वो मस्ती सा बचपन सामने हैं। दृष्टि पटल पीछे की ओर लौट तो रहा हैं, पर मन कुंद हैं।अत्यंत परेशान होने पर भी वह अभिनव पर गुस्सा नहीं करती, वो ही क्यों सबके साथ उसका बर्ताव बड़प्पन सा ही रहा, भानु, राजराजेश्वरी, चिया, खुशी, गार्गी, राज़ी, आदित्य, आर्यन, अद्वैता, साईसा और शादी में आई अद्विका सभी के लिए स्नेहासिक्त।
यूँ मैं मेरी बात करूँ तो साल में बामुश्किल गाँव के घर में बीसेक दिन बीतते होंगे और अभी के कोरोना काल में तो फरवरी के बाद नवम्बर ही घर गया था, बड़े के दूसरे भैया तो साल भर से घर आते होंगे, पर सबके ही आपसी बातचीत में गले रुंधे हैं, मानो अब घर में कुछ उतना आसानी से नज़र नहीं आएगा।
जुबान में भी गुड्डू-गुड्डू सब सावचेत होने पर भी अनायास उच्चरित कर कुछ संकोच के अनन्तर भवावेशित हो ही रहे हैं। विवाह के दौरान सामान्यतः वर-वधू को सरे कामों से मुक्त रखा जाता हैं, केवल लोकाचार और संस्कार के अतिरिक्त, भैया ने कहा- गुड्डू अब तू केवल अपनी तैयारी में रहा कर, कोई काम नहीं करना। पर उसका जबाब- चाचा जब तक हूँ करने दो, मन नहीं करता बैठने का। बात छोटी सी ही हैं, पर बच्चों के इस सहज भाव को याद करते हुए, दूरभाष के दौरान कुछ मिनिट का भाव-कुन्दता ही की बात रुक गई।
बचपन में गुड्डू को सबसे अधिक स्नेह छोटी बुआजी का मिला, रंजना दीदी की शादी तक वो उनके सी साथ पाली-बढ़ी। उसकी कोई भी जिम्मेदारी मानों उसकी थी, सोना-जागना-खाना-रोना-मनाना सब ही तो। आठ-पांच यह उसकी तुतली बोली का संकेत था, सबके ही लिए की अब जागने का समय हो गया।
अर्थो हि कन्या परकीय एव तामद्य संप्रेष्य परिप्रहीतुः । जातो ममायं विशदः प्रकामं प्रत्यर्पतन्यास इवान्तरात्मा॥ पर एकाकी से होते बाबा के लिए वो निरन्तर सजग रही, दिन-रात का खाना नहीं, पूजा का प्रसाद, दूर रखे फोन, खोया कागज क्या याद करूँ क्या भूलूँ। बड़े भैया को गुड्डू की विदाई के बाद, कई बार गुड्डू आवाज देते देखा, यूँ तो मैं हंस रहा था, पर उसका निहितार्थ तो अपने आवेग- आँसूओं को रोकना ही था। भानु-छुटकी का शान्त रहना इतना आसान नहीं हैं, और भानु की मैं अधिक एकाकी महसूस कर रहा हूँ। वो अकेला सा हो गया, घर के बच्चों में गुड्डू से ही उसका ऐसा था, जिसको वह कुछ गुस्सा-प्रतिरोध सा दिखाता था, अन्तस में तो उसके प्रति भी विनीत ही रहा, पर शेष सब को उसने अग्रज सा स्नेह देते हुए, स्वयं को औरों के लिए सहज-सरल बनाया हैं। गुड्डू की विदाई से अब तक उसने अपने जज्बातों को सामने नहीं आने दिया, उसकी गम्भीरता को मैंने आयोजन में बखूबी महसूस किया हैं।
वहाँ भी बाबू हैं, हाँ पर वो फिलहाल दौड़ायेगा नहीं गोदी माँगेगा, बाहर जाने पर साथ जाने की जिद्द करेगा। देवर होगा जो भाई के अहसास को आने नहीं देगा, मतलब चुहलबाजी तो चलेगी। छोटी ननद भी, मतलब वो अभाव भी नहीं। कुछ-कुछ जैसा यहाँ वैसा ही। और एक बूढ़ी माँ, वहां भी। वहाँ भी परिवार यहाँ सा, कोई सीर-न्यारा कुछ भी तो बदला सा नहीं।
अभिजनवतो भर्तुः श्लाघ्ये स्थिता गृहिणीपदे, विभवगुरुभिः कृत्यैस्तस्य प्रतिक्षणमाकुला ।तनयमचिरात्प्राचीवार्क प्रसूय च पावनं, मम विरहजां न त्वं वत्से शुचं गणयिष्यसि ॥ कालिदास के इस कथ्य को विभिन्न रूपों में उसने सुना हैं, लोकडाउन के दौरान उसने बाबा की आत्मकथा को आकर देने का भी स्तुत्य कार्य किया हैं, उन संस्मरणों को सुनते-लिखते हुए जीवन के कई अनुभूत सिद्धांतो को आत्मसात भी होना ही हैं।
वैसे भी माँ कि इच्छा का सब, महानगरों की ओर रुख हमारा था, पर- "ना भाया दूर कोनी भेजूँ।" और सच भी वहीं हुआ, जो उनकी इच्छा रहीं। बाबा की भी यही बात की आसपास सुसंस्कृत परिवार हो, आत्मीय हो। अब संजोग ऐसे जुटा जहाँ गुड्डू गई, वो परिवार पिछली चार पीढ़ी के अन्तरंग सम्बन्धो से कटिबध्द हैं, हरदम साथ। अब उन्हीं सम्बन्धों को एक और उजास मिला, वर्षोस्मि समानां उद्यतामिव सूर्य गान हुआ, निहितार्थ भी यही की वर-वधू, शिव-पार्वती से साकार हुए, आगे यहीं गौरजा गणगौर- इसर रूप में पूजित होंगे, मतलब अभी आयोजनों की लम्बी फेरहिस्त का आरम्भ सा भर।
सबको खुश रखने की
क़वायद और फिर भी न हुआ तो क्षणिक गुस्सा और कुछ देर में फिर जद्दोजहद में जुट जाना
ही उसको आनंदित करता रहा। वो उस घर में होगी वहां भी दिलजीत ही होगी, पर इस घर में उसका अब अभाव तो खटगेगा ही। कुछ
निर्विकल्प होते हैं, गुड्डू वो ही
प्रतिदर्श हैं।
तीज के दिन शुरू हुआ यह आयोजन, माँ की प्रकटित और बाबा के मौन में- कैसे होगा सब? पर पूरा कुटुम्ब न्यौछावर रहा, सबने अपने सामर्थ्य से अधिक स्नेहार्पण किया। कोरोना के पीड़ा से लौटे मझले भैया को डॉक्टर ने साफ-साफ़ मन करने का फरमान जारी किया- भतीजी की ही शादी हैं, मत जाऊं, उसी दिन जाकर मुँह दिखा आना। अब उनको कैसे समझाया जाएं की सम्बन्धों की इतनी पतली लीक नहीं, अन्तर तो वहां होगा,
जहाँ स्नेह या तो एकतरफा होगा या केवल स्वार्थी। न बच्चे ऐसे न उनके चाचा ही। तीज से ही घुंघरू बंधे थे, किसी की कोई जिम्मेदारी ही तय नहीं थी, पर स्वतः ही सामंजस्य भी बना, और उत्सव का आनन्द भी। जो कुछ भी अनपेक्षित आया तो, क्षणिक सा, मानो उसका कोई भान भी नहीं हुआ।
बड़की दीदी कई दिनों के बाद इतनी रुकी, वो इस घर की दूसरी माँ सी हैं, उस घर गए चार दशक के बाद भी उनका अन्तस्थ अभी भी इधर की चिन्ता में उतना ही हैं, जितना तब। तब स्कूल से लौटती तो अपने कुछ पैसों से भाईयो-बहनों को स्नेह लुटाती, तब और अबमें कुछ तो नहीं बदला।
बड़े भैया को कहने-सुनने में चिन्ता मुक्त रखा, पर ऐसा होता नहीं, बेटी के बाप की अपनी भी कुछ होती हैं। पारा गुड्डू के बाबा पर साब अवलम्बित हो तो, सब नानी बाई के भात सा साकार होता ही हैं। मुझसे बड़े भैया की अपना योगदान रहा, वे दिखाने की बजाय करने को प्रेरित रहें। हाँ उनसे बड़के भैया ने साडी जिम्मेदारी ओढ़ने के साथ काम को आगे बढ़ाया। एक-एक काम को कितनी बेहतरी से करना चाहिए, और वह भी चरणबध्द रूप से आसान सा होता गया।
यह भी संजोग ही, पिताजी का आज जन्मदिवस, मेरा ओनरिकोर्ड और अबसे आजके दिन ही एक और अवसर गुड्डू बाबू के पाणिग्रहण का कैलेंडर में जुड़ना, हाँ अगले दूसरे ही दिन परिवार के अनन्यतम सदस्य रूप में जुड़े हर्षवर्द्धन बाबू का जन्मदिन भी। कोरोना के कारण स्वतःस्फूर्त नियमों को मानते हुए समग्र कार्यवसुसम्पन्न हुआ, सब सामर्थ्य भी ईश्वरेच्छा से जुटा, जो सोचा उससे इक्कीस ही सब। कोई बोझ, चिन्ता, शिकन, व्यवधान कुछ भी नहीं था। केवल आनन्द, उत्सव और मेलजोल के साथ सधा यह मंगलाचार, मंगलाचरण। भवितव्य स्वस्ति होगा ही, जब लोकाचार, शास्त्रीय मर्यादा से परिपूर्ण होगा तो।
फतेहपुर के पण्डित जी और मामाजी की आरम्भिक मंशा तो थी, पर पाणिग्रहण पूर्ण समय और ऋति-नीति से होना ही था, सब कुछ सहजानन्द के साथ पूर्णता को बढ़ा।
सज्जन समागम होने के बाद पूर्णमेवावशिष्यते होगा ही, सन्त शिरोमणि श्रद्धेय रतिनाथ महाराज जी का आगमन भी तो, सबको खूब शुभाशीर्वाद का अवसर भी मिला। सुना हैं, अनुभव, अनुभूति भी। भारतीय संस्कृति में कोई भी अभाव, अपूर्णत्व नहीं होता। वो पुनर्नवा, सनातन है, जीवन की गति में ये मंगलाचार क्रमशः फिर पूर्णत्व को साकार करेंगे।
गुड्डू, गुड्डूजी हां यह भी एक संयोग ही हैं, की दाम्पत्य में बंधे दोनों ही वर-वधू अपने घर
में स्नहे से इसी नाम से पुकारे जाते हैं। कुछ पल के लिए यहाँ-वहाँ, गुड्डू! नाम पुकारने से दोनों दौड़ेंगे, यह भी एक द्विविधा और दुविधा में उपजा आनन्द
होगा।
सब आनंदमय, लोकहितं ही तो हैं। यह मेरे घर का आत्मकथ्य हैं, आपका भी वैसा सा ही। इसी से समाज की संरचनाओं को आकार मिलता हैं, ये अवसर होते हैं जब सब जुटते हैं, मिलते हैं, आपस में एकदुसरे को जानते हैं।
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