अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- १५ ) सप्ताहान्त- शृंखला
कुछ आस-पास के शुभचिन्तकों से मिलने का अवसर, मित्र इसलिए नहीं कहूंगा- क्योंकि की वे वरिष्ठ हैं। उनके साथ, जो आजकल एक तरह से नियमित वार्ता के हिस्से हैं।
पहली गली शैलेन्द्र भार्गव जी की, भार्गव के नाम से जयपुर में अब भी गिरधारी लाल भार्गव जी को ही सांसद माना जाता हैं, उनकी ही संगति में बढ़ा कार्यकर्ता। वैसे आजकल यह भी एक चर्चा हैं की यह अपने सांसद ब्राह्मण-जैन या भरतपुर तरफ के बोहरा? जाति न पूछो साधु की, तो कोई असाधु भी होता हैं? होगा ही?
छोड़िये, बैठे तो विश्वविद्यालय आँखों के सामने चल पड़ा, एक तरफ संजय सुरोलिया जी तत्कालीन विद्यार्थी परिषद् के पदाधिकारी, सामने वे जो मुद्दई समर्थक तो, पर एकला चालो रे। बचपन और उसकी शिक्षा की यादें उतनी स्मृतियों में हो न हो उच्च शिक्षा के पन्ने कितना ही गर्त चढ़ें, पढ़ने में आ ही जाते हैं। छोटी-मोटी बदमाशियाँ, दुःसाहस सब ही तो व्यक्तित्व निर्माण का हिस्सा हैं, वैसे आजकल की भाषा में यह रगड़ाई न हो तो युवा निकम्मा ही रह जाता हैं, मैं नहीं कह रहा हूँ, अवाम में इसकी चर्चा हैं, अख़बार इससे अटे पड़े हैं, किसी को नसीहत, संयम तो कोई संस्कार का हवाला। निक्कर तक भी बोलचाल में हैं कौन किससे सीनियर यह भी एक नया बखेड़ा हैं।
यह तो था पत्थर से जामुन को तोड़ने सा सफर, पसीना-पसीना, कुछ खट्टा-मीठा तो भी, पर जद्दोजहद सी ही इकट्ठा करने की, सबको साधने की, एक उम्र होती हैं जब तमाम अंतर्विरोधों के भी साथ बैठ खाने के अवसर कोई नहीं गवाना चाहता, मैं भी तो आज उसी जमात का हिस्सा था, ज्यों-ज्यों उत्तरार्ध की और बढ़ेंगे कुछ वे जो किञ्चित तब की यूनिवर्सिटी से सुविज्ञ हैं समझेंगे ही।
दूसरा पड़ाव पुलिस मेमोरियल, रमन नन्दा जी से अनायास मिलना हुआ, कभी बीबीसी के सम्पादक आजकल वकालत में आजमाईश में हैं, उनकी अध्ययन की ललक ही हैं की वे हर कहीं अव्वल ही नज़र आते हैं। पत्रकारिता के दौर में भी भारत का संविधान अक्सर ही उनके इर्द-गिर्द रहता था, रात उनके लिए एडवांटेज है, वे सोना-खोना एक ही मानते होंगे शायद? पिछले भारतीय युवा संसद में वे जिस तरह से युवाओं से रूबरू हुए, चकित करने वाला था, अध्ययन नहीं, प्रस्तुति नहीं, केवल-केवल तो ही नहीं? नहीं वे सबको भायें।
जो दूसरा था, वह मन्तव्य संजोग से तीसरा, हमारी भेंट का हिस्सा थे, यहाँ पेशे से वकालत में अमृत सुरोलिया जी, पर वे केवल वकील हैं? वैसे यह अद्भुत मिशन सा काम हैं। भारतीय इतिहास ही नहीं विश्व इतिहास, उनका अपना ही अंदाज़ हैं। वैसे वे अपने जीवन की हर एक वर्ष को जोड़ते जाते हैं, इतिहास-घटनाक्रम से यह भी कोई छायावाद सरीखी शैली होगी, कोई शब्द न गढ़ा गया हो तो यह कहा जा सकता हैं?
धर्म-दर्शन अलग हैं या एक? विचार-राजनीति-सत्ता भी? लेखक भी? वकील भी? उनके साथ हो तो अनेक सवाल उभरेंगे, कुछ उत्तर भी मिलेगा, बाकि आपको कचौटेंगे की तुम्हारा अध्ययन क्या हैं? लगेगा तो भी वे अमिताभ-मोदी-सिब्बल के विरोधी नहीं हैं, पर हां! वे हरीश साल्वे की दाद देते हैं, उनके गुरु नानी पालखीवाल को सम्मान भी। वे कुछ गढ़े हैं, कुछ अनगढ़े भी क्योंकि हर एक चीज़ को लेकर उनका अपना नजरिया जो हैं, और उसी कारण उनकी बनावट में निरंतर परिवर्तन हैं समयानुकूल, यह अवसरवादिता का नहीं हैं यह उनका अपना अंदाज़ हैं जीवन को जीने का। आम भाषा में जिसे अवसर गवाना कहते हैं उनकी नज़र में वो समझौता भर हैं, इसलिए वो किसी सन्धि का हिस्सा भी नहीं हैं, सन्धियों के इतिहास से जिनका वास्ता हैं वो उनकी नज़र में केवल समाज के आतंकवादी भर हैं, उनको पैंतरेबाज़ कहें, दगाबाज़ या फिर गोलीबाज़?
विश्वयुद्ध, रसिया के उद्भव और मार्क्स की थ्योरी सब, तलवार के सामने तोप वो भी और चुनाव को रणभूमि सा बना युद्ध के जितने के लिए रोज़ मोदी की घरवापसी??? केवल जो दीखता हैं वो नहीं, मतलब? विवेचना सार्थकता की ओर तभी मुड़ती हैं जब उसमें बहाव हो, लहर हो और निर्मलता भी, अन्यथा तो सड़क के दोनों और नालों में क्या नहीं हैं? कल ही सिद्धान्त बदला नज़र आया जब, कुवें में गिरने की कहावत को झूठा-धत्ता बता, बरसात का सहारा लें इन्हीं नालों ने कुवें को ही लील लिया।
पांचवी दहलीज़, वे स्वयं को इनसाइक्लोपीडिया कहते हैं तो उनकी बात में दम हैं, दम्भ और दम का फ़र्क़ बस मालूम हो किसी को। वे न छात्र नेता बनें, न थिएटर आर्टिस्ट, न सामाजिक कार्यकर्त्ता, न व्यवसायी। पर वे फिर भी आगे रहें, हरफनमौला बनकर। उनका अध्ययन, उसमें कोई एक दृष्टि हो ऐसा भी नहीं, जहाँ जो रुचिकर लगा, उस और बढ़ लिए, तह में गए, मोती को देख लिया संतोष-संतुष्ट, इतना भर। वे निश्छल हैं, समवयस्कों की जिगरी तो बाकि सब के साथ भी सौजन्य को आतुर।
अबसे पैंतालीस-सैंतालीस साल पहले का उनका बचपन लौटने का मन था, मैं सफल हुआ। यूँ आजकल उनके जीवन में भी अस्थिरता हैं, मैं और संजय जी अपनी सेवा को लेकर, मतलब सब का एक ही दौर हैं, संघर्ष।
अब सवाल मन में होगा? की फिर चौथी कड़ी?
जीहां, जनता कॉलोनी में पानी को लेकर जिज्ञासा थी, इसको अंजाम तक पहुँचाया एकनिष्ठ संघ के साथ सन्नद्ध गोपीजी ने। सामाजिक जीवन में मनसा-वाचा-कर्मणा क्या होता हैं, यह उनसे सीखा जा सकता हैं, वे बोलते कम हैं, अपने काम में तल्लीन अधिक। थोड़ी ही कोशिस के बाद वे हमें वहीँ ले आएं जहाँ साढ़े चार दशक पहले निक्कर पहने बचपन खेला करता था। तो क्या निक्कर सब ने ही पहना था? किसी ने पहले, किसी ने बाद में फिर उम्र की दुहाई, कनिष्ठ-वरिष्ठ के ये पैमानें, यह भाषा? यह वाक्य विन्यास, क्या यह सामाजिकता हैं? राजनीति ? या केवल चाटुकारिता-अवसरवादिता?
राजेश गोयल जी अब भरें बाँध से थे, जिसके सब फाटक खोल दिए गएँ हो, हो भी क्यों नहीं कौन बड़भागी होगा जो उम्र की दहलीज़ से फिर बचपन में मैदान में आ पाता होगा?
ढूंढाड़ प्रदेश के विस्तार की गवाही जनता कॉलोनी की यह बाबड़ी, कहने-सुनने को तो अब भी बची ही हैं। कुमार गन्धर्व मानों गा रहें हो दूर-थोड़ा-थोड़ा सुन पा रहा हूँ-
ना घर तेरा, ना घर मेरा, चिड़िया रैन-बसेरा रे साधुभाई,
उड़ जा हंस अकेला |
जिसको करने की चाहत हैं, नियति ने उसको सक्षम नहीं बनाया, जिसें सब कुछ दिया उसें चाहत नहीं दी, और बस यहीं से सब चौपट या चौपड़। चौपड़ से याद आया, जयपुर के इतिहास में बड़ी-छोटी दोनों चौपड़ में पानी होता था, नहर होती थी, जब वो ही केवल हैरिटेज सिटी-हैरिटेज वॉक में केवल किताबी हो गया तो इन बाहरी बाबड़ियों को कौन सम्भालेगा? अब जयपुर बढ़ गया हैं पर तब यह चारदीवारी के बाहर के जंगल के रास्ते ही तो थे?
बातचीत में बबलू भैया बार-बार आ रहें थे, वे अब नहीं हैं सो शर्मा सुधीर अपने को असहाय मान बैठा हैं, पर गोपीजी के प्रति स्नेह-आदर स्वाभाविक हैं। यह बाबड़ी-मन्दिर और जुनूनी युवा को आप छठी सीढ़ी मान सकते हैं। बाबड़ी में कोई सीढ़ी बची ही नहीं, तिबारे के दोनों और भी अब मलबा सा ही हैं, पड़ौसी ने इसको कचरा-घर बना डाला हैं। भगवान भी अब कितनों को सद्बुद्धि दें?
रसिया कोरोना का वेक्सीन बना रहा हैं, कोई देश सद्बुद्धि का टिका बना दें बस। अपने देश को उससे ज्यादा पड़ौसी नेपाल-पाकिस्तान को जरुरत हैं, बेबजह भस्मासुर बनने को उतावले हो रहें हैं, बस भारत को विश्वमोहिनी बनने की देर है, फिर डांस ली ट्रैनिंग का पहला स्टेप ही धूं-धूं कर डालेगा।
राजेशजी-गोपीजी के विषय ध्यान में आया हैं तो समाधान होगा ही, इसमें कोई शंसय हैं ही नहीं, युगऋषि तुलसीदास जी का कथन भर-जानहु तव बल बुद्धि विवेका इतना भर।
कुमार माटी का एक नाग बना कर पूजे लोग-लुगाया,
जिन्दा नाग जब घर में निकले,ले लाठी धमकाया रे साधुभाई,
उड़ जा हंस अकेला |
विदा की इच्छा उधर कम थी, इधर की बजाय। पर जीवन में सबके अपने-अपने सिलेबस तय हैं, वैसे भी कुछ मिनटों का समय-घण्टों में हमने नहीं उनकी खुद की दिलचस्पी से सम्भव बन गया।
हम दोनों की मुताबिक़ अभी और समय था तो लौटने में आज का सातवीं भेंट। परिषद् भवन रास्तें में आ जाएँ तो पैर ठिठक ही जाते हैं, वैसे मेरा कार्यालय से जुड़ाव आने-जाने के भाव से कम रहा हैं।
लौटने में, जाते-जाते एक मुलाकात रहीं, विद्यार्थी परिषद् क्षेत्र के दायित्व का निर्वहन कर रहें सुरेंद्र नायक जी। उनका वक़्त नियत था, बैठकों का दौर और थकानभरा प्रातःकाल से देर रात तक अच्छे से भोगा हैं, कोरोना काल में इन प्रचारकों ने। पर उसके पहले जो था, वो भी नया-अविस्मरणीय भी, लोग कितना करते हैं, चर्चा भी नहीं करते, हैं?
कोरोना में इतने पड़ाव गलत ही कहें जाएंगे, पर कुछ वैकल्पिक की तलास भर की थी, ये सब कवायदें। विद्यार्थी परिषद् के जयपुर प्रान्त के संघटक, आज अर्जुन तिवाड़ी जी भी उत्साह की मुद्रा में थे, कुछ मनोरथ आसान हो तो युवामन में भाव आते ही हैं। कार्यालय को कोरोना काल में उन्होंने नयी गति दी, बहुत जल्द लिफ्ट के साथ ही अक्षय-सौर ऊर्जा की सौगात जो मिलने वाली हैं। वे कई, विद्यार्थी-एप्स की दिशा में आगे बढ़ रहें हैं। मेरी रूचि के विषय सम्वाद-शृंखला में उनकी आस्था अब अति-प्रबल हैं, जानकार आनन्द आया।
शेखावाटी के लोग मिलें और आँचलिक चर्चा न चलें ये कैसे हो? बस आज बारी केवल सुनने की थी, आज सुनाने का दिन तो था ही नहीं। सीकर के रामलीला मैदान के पास मुक्तिधाम, अब शिवधाम धर्माणा ट्रस्ट के सौजन्य से और उससे ज्यादा कैलाश तिवाड़ी जी की जिजीविषा से, जीवन के अन्तिम संस्कार सरीखे पवित्र स्थान का कायाकल्प। वनाच्छादित प्रातभ्रमण का योग्य स्थान, पक्षियों का चहचहाहट, बिल्ली-चूहों-खरगोश की भाग-दौड़, छोटे तालाबों में मछलियां, साथ ही नित्य-प्रति का रामायण पाठ, सब मोक्ष-द्वार सा।
सुविधाओं को देखें तो श्राद्धादि मृतक कर्म हेतु वातानुकूलित हॉल, शव संरक्षण हेतु बड़े फ्रीज़, विश्राम गृह, मौसमानुसार गर्म-ठन्डे पेयजल, नहाने के लिए गीज़र सब जो-जो सुविधाओं के नाम पर सोचा जा सकता हैं। तिवाड़ी जी का जीवन अब यहीं समर्पित हैं, वे लावारिश देह के अन्तिम संस्कार से लेकर, उनकी गंगा मुक्ति-महाश्राद्ध का भी वार्षिक आयोजन करते हैं। उनकी कल्पना में यह मुक्ति-धाम डर नहीं, श्रद्धा का केन्द्र हो, मानव से इतर सभी जीव-जन्तुओं को यहाँ आश्रय मिलें तभी तो फल-फूलों से लदा यह क्षेत्र आत्मिक शान्ति, पूर्ण शान्ति को गति दे सकेगा।
साफ़-सफाई के लिए जब नगर परिषद् ने सरकारी बोली लगवाई तो लोग लाखों में बोलें, पर तिवाड़ी कैलाश तिवाड़ी जी ने जब सवा रुपैया बोले इसकी देख-रेख लीं, तो व्यावसायिक जमाना हतप्रभ था, पण्डितजी सोच लों? हर-कोई यही दोहरा रहा था, पर वे शान्त-धीर-गम्भीर-मधुस्मित मुद्रा में, मानो कोई था- सांवरिया और ये नरसी.... भगत बछल प्रभु सारें सब काम जी।
यह सब तो वो जो पुत्र के नातें अर्जुनजी को दिख रहा था, उसके बाद जो मैंने जाना, पर यह यात्रा इतनी आसान रहीं होगी?
सीकर में यह सब करना इतना आसान था?
अब हुआ तो, सब त्रुटि निकलने वाले नहीं होंगे?
बाधाएं तो रही होंगी ही?
पर, वे सब तिवाड़ीजी के अंतर्मन के हिस्से ही तो रहीं, न ?
यही सत्य यही मर्म, सब ही जगह राम नाम तो समाहित ही हैं, मरामरामरा में भी बिना इच्छा के भी राम ही आएगा, बनेगा, और इसी में कोई आतताई आजामिल अन्तिम घडी में पुत्र नारायण को स्मरण कर तर गया, फिर सत्य ही हुआ न-
............. " राम सबके हैं, और सब राम के हैं”
जिसको दुनिया सब कहे,वो है दर्शन-मेला,
इक दिन ऐसा आये, छूटे सब ही झमेला रे साधुभाई,
उड़ जा हंस अकेला |
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