अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण-१६ ) सप्ताहान्त- श्रृंखला
एक सीट खाली थी, कोई होता तो चल सकता था। यात्रा तय करके चलें वहां तो गए, पर एक झलक भर वो देख पाएं, पर बाकी सब भी नया-नवेला ही तो था। अब इसको अछूत जयपुर कहना सही होगा, पुराने न सही तो नयें- जयपुर सम्भाग की अवधारणा में।
बाबड़ियों की सूचना, अब थोड़ी-थोड़ी मानसून के साथ बढ़ने लगी हैं, कोई-न-कोई है ही जो अद्यतन कर रहा हैं, मतलब साफ है, की भाव विकसित होने लगें हैं। सोचा तो यहीं हैं की पुरे दो साल इस अध्ययन को नियमित करेंगे, जानकारियां जुटाएंगे, वे लोग भी जो इस बारे में सूझ-बुझ रखते हैं।
जाने का नियत तो, आभानगरी था, पर दौसा के पहले-पहले बदला रास्ता-भूतों का भानगढ़ की ओर। गाँवों में सड़कों का विस्तार जालों की तरह हो गया है, और अक्सर तो बोर्ड भी नदारद। सही-सही कोई न मिले, रास्तें को बताने वाला नज़र न आयें तो आप कहीं ओर ही पहुँच जाएंगे।
सैंथल, जी इसी रस्ते में। गाँव से पहले बड़ा तालाब, उस इलाके कि हरियाली को तो बढ़ा रहा हैं, पर रोज पाताल को जातें पानी का स्तर नहीं बढ़ा रहा हैं।
सैंथल ठाणे के पास हरियाणा ब्राह्मण गंगासहायजी की चाय की थड़ी भी कोई पाठशाला सी है, वे चाय बेचते हैं पर भाव भी पैदा करते हैं।
भानगढ़ गयें थे तब चाय पी, लौटने में भी उनका आग्रह था, गाँवों में भी अब सहसा से बने रिश्तें कहाँ नज़र आते हैं?
सैंथल का तालाब विस्तृत तो हैं, पानी भी खूब, उसका आगौर भी। फ़िर भू-जल में सुधार क्यों नहीं? तालाब का पानी पीने के लिए, जानवरों के लिए, उसके बाद कृषि-फसल के लिए हो तो सब अनुकूलन बनता हैं, पर यहाँ तो तालाब, मतलब आपके खेत का वो हिस्सा जहाँ पानी होगा, बाकी क्या कहें इसको?
कब्ज़ा? तालाब को लीलने की कवायद? यह बल-ताकतवर होने की पहचान हैं? की आप निरीह जीवों के संरक्षण, लाचार से बने तालाब के आगौर ही नहीं तालाब को ही कब्जायें बैठे हो? पास ही तो थाना है, पर वे किसी राजनेता के दबाब में होंगे, राजनेता की खुद की पहल होगी या वो वोटों की लाचारी का मारा, यह सब ही होगा? तालाब के पास का हैड-पम्प पानी दे रहा था, पर उसका भी इतना ही हिस्सा आठ से दस महीनें, फिर वो कल-कल की आवाज कम,और कानफोड़ू संगीत सा अधिक।
सैंथल से निकलते ही मोड़ पर बाबड़ी है, चाय वाले पंडितजी के अनुसार यहाँ हर गाँव की अपनी बाबड़ी हैं, पर सब अब निज़ी जागीर सी जिससे पानी होने पर लगान सी पूरी वसूली, फिर कोई सार-संभाल नहीं, हाँ वैसे भी वो अपने इतिहास की मजबूती पर ही टिकी हैं, वर्तमान की कंक्रीट-सीमेंट तो उसके अन्त का अन्तर भर काम करने वाली हैं।
बातों-बातों में आगे निकल पड़े, सामने बोर्ड दिखा अजबगढ़ 10 किलोमीटर, फिर भानगढ़? राहगीर से पूछा तो बोले वो पीछे छोड़ आयें। ख़ैर, अब पहले अजबगढ़। ज्यों-ज्यों करीब की ओर, एक तरफ पानी की आवक लगातार जारी थी, मतलब साफ़ था तब के वास्तुकारों ने पहले पानी को खोजा, फिर स्थापत्य को, रहन-बसन योग्य। एक एकाकी पहाड़ी पर उन्नत किला-अजबगढ़। किलें पर जाने का कोई रास्ता नहीं, कोई पगडण्डी भी नहीं, कुलमिलाकर पर्वतारोही मार्ग। ऐसा प्रचलन में हैं की यह किला सुरंगों से जुड़ा था, जिसमें एक भानगढ़, दूसरी सामने के तालाब की पाल और कोई और पहाड़ी के उस पार रामगढ बंधें की ओर। ये सुरक्षा के पैमानें थे, यहीं समस्या तत्कालीन भारत की थी, राजा खुद की सुरक्षा में तत्पर रहा, या स्वयं की ख्वाहिशों में बलिदानी तैयार करता था, सीमा की सुरक्षा उसके हिस्से में न होना बतला वो ऐसे किलों में सुरक्षित होने के भ्रम में रहा।
और
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया।। (फ़िराक़)
ये सल्तनत-मुग़ल ही मानों भारत का इतिहास हो गया। मैं मध्यकालीन भारत को नहीं नकार रहा, उनकी कला-संगीत-परम्परा से भी कोई आपत्ति नहीं, मेरी अपनी सोच में तत्कालीन समाज की कूपमण्डूता ही थी की उन्होंने वो स्वीकारा जो राजाज्ञा थी।
अब किसी को कोई दोष दें?
यह दिलासा भर हैं, पर वर्तमान की फ़िक्र तो यह आलोचक-पीढ़ी अब भी कहाँ कर रहीं हैं?
अजबगढ़ का सामान्य स्थापना का विषय इतना सा की यह कच्छावा वंश के अन्तर्गत राजावत माधोसिंह के पुत्र अजबसिंह द्वारा बनाया गया।
जयसागर-सोमसागर की नक्कासी कबीले-तारीफ़ हैं, वहां का शिलालेख उसकी ऐतिहासिकता को बयां करती हैं।
किलें के ठीक नीचे माता का मन्दिर हैं, वहां की कहानिया उतनी प्रचलित तो नहीं पर मन्दिर का स्थापत्य-भव्यता का अंदाज़ा वहां आँखों-देखीं में झलक ही जाता हैं, भारतीय समाज नयें मन्दिरों में रूचि रखता हैं, यह संकेत अच्छा कहा जा सकता हैं, पर इतिहास में विदेशी सैलानियों के कैमरे में कैद भर हो जाने दें इन धरोहरों को?
इसी मन्दिर की सीढ़ी के उतर-पूर्वी हिस्सें में मजबूती से डटें स्तम्भ से भी आप बहुत कुछ समझ सकते हैं, चतुर्दिक देवता और शिखर भी तो। भानगढ़ से लौटे कुछ युवा साथी बोलें, जल्दी वहां जाओं, यहाँ तो कुछ भी नहीं हैं। इस मन्दिर के पत्थर पर लिखें किसी कलाकार की कहानी को अब कौन जनता होगा, जानने की कोशिस ही करता होगा? इतिहास में किस की रूचि है, जब कोई वर्तमान को ही नहीं जीना चाहता,केवल भविष्य की चिन्ता में भारत की आत्मा को यूँ ही भटकने दें? नहीं तो?
ख़ैर, भानगढ़ आते-आते बूंदे, धार हो चली थी। मुख्यद्वार पर स्कैन सिस्टम हैं, टिकट का, अन्दर ऑफ़-लाइन, वहीं कैश लेकर एंट्री, कोई स्कैन न राजस्व-सरकार के खातें, सब प्रजातन्त्र।
इतिहास के श्रीमुख से-
लेकिन, मिथकों के मुताबिक भानगढ़ में गुरू बालूनाथ नामक एक शापित स्थान है, और भानगढ़ में एक महल के निर्माण के समय राजा द्वारा महल की इबारत में ध्यानस्थल-धूने को ध्वस्त करने से यह पूरा नगर ध्वस्त हो गया।
एक अन्य कहानी के अनुसार भानगढ़ यहां रहने वाले सिंघा/शींडा नामक एक तांत्रिक के शाप के कारण बर्बाद हुआ। तांत्रिक को भानगढ़ की राजकुमारी रत्नावती से एकतफा प्रेम हो गया। एक दिन तांत्रिक ने राजकुमारी की नौकरानी के हाथ में रखें, इत्र पर तांत्रिक प्रयोग कर दिया ताकि उसे लगाते ही राजकुमारी उसकी ओर आकर्षित हो जाए। लेकिन राजकुमारी को पता चला तो वो उसी प्रयोग से तांत्रिक को ख़त्म करदेती हैं। मरते-मरते तांत्रिक के विनाश का शाप से मंदिरों को छोड़कर यह इलाका एक ही रात में बर्बाद हो गया। महल के ऊपर से पहाड़ी पर नज़र आती छतरी उसी तान्त्रिक की हैं, बाहर के अहाते में उसकी साधनास्थली।
ये मन्दिर गुजरात शैली के निकटतम नज़र आते हैं, ख़ासकर उनका गुम्बज और मन्दिर के गर्भगृह के बहार का सभा मण्डप।
महल के गणेश पोल तक ही गए, कुछ मन्दिर भी बाहर से ही देखें, अन्दाज़ हो चला था की यह पुरे दिन का सिलेबस हैं, फिर क्यों न इसको अछूत ही रखा जाएं। कुछ वैद्य सर्वेशजी और संजय सुरोलिया जी की भी सहमति, रुख़ वक़्त की कमी थी तो भी आभानेरी की ओर।
ख़ैर मन्दिर के अहाते से चबूतरे पर चढ़, चांद बाबड़ी को देखने की जिद्द तो पूरी की ही।
जो देखा वो इतना सहज-आसान नहीं है, कहना। फिर जाएंगे, वहीं तो वो अशेष रहा लिखना शायद सम्भव होगा, हाँ शुभम शर्मा का बाबड़ी के भूतल को दिखाने का आग्रह भी तो स्वीकार आएं थे।
इतिहास कितना पुराना होगा? मन में ही सवाल था? हर्षदमाता के मन्दिर को देखने की भूल रात्रि के पहले प्रहर में थी, तो भी।
गुरुतुल्य, अग्रज से डॉ. राजेन्द्र शर्माजी के अध्ययन में यह हर्षद-हरसिद्धि सा जीवन्त हुआ, हाँ उज्जैन में एक मन्दिर हैं, पर आभानगरी-आभानेरी की भव्यता उनकी भाषा में अवरणीय !
वे इस मन्दिर में बाबन शक्ति पीठों में अविच्छिन-एक अज्ञात में इसको शामिल करते हैं।
यहाँ पूजन का स्थाई क्रम, पुनश्च अस्सी के दशक में शुरू हुआ। सत्य हो की नहीं, यहाँ की मूर्ति नीलम की आदमकद थी, जिसको जयपुर के मूर्ति-तस्कर वामन-घीया ने कभी सौदबीज़ को बेच दिया, अब कोई अवतारी का नाम धारण कर यह कुकृत्य कर ही डालें तो, किस को दोष?
मोबाइल की टोर्च में सब पत्थर देखें, सोचता हूँ दूरी को जाते हम सरीख़े घुमंतू जरा आस-पास की भी सुध लें तो?
शुभम का मन शहर में नहीं ऐसा नहीं, पर उसे अपनी जन्मभूमि सवाई लगती हैं।
अपना गाँव सब-कुछ दिखता हैं, नौजवानों में अब गाँव की ओर लौटने की जिज्ञासा नहीं, पर यहाँ-यह शकून था।
अब इतने नज़दीक हो और विष्णु-सन्निधि न हो! वक़्त दूसरे प्रहर में था, और फिर भी बांदीकुई गन्तव्य बना। वे आतुर थे, बांछे मानो खिल पड़ी हो, उम्र में बड़े है, पर गले मिलकरस्नेह का उनका तरीका कायल करता हैं, वे अध्ययनशील है, सहज-विवेकी तो हैं ही। बनारस का उनका अध्ययन-काल, वृन्दावन की भागवत यात्रा सब ही हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता सी।
थोड़े ही समय सहीं, पर एक लम्बे अन्तराल के बाद "पूर्वजन्म" संस्कार सा था। "जीवन की गति न्यारी" पण्डित जसराज के अनन्त-प्रयाण के गान में अब भी रहेगा, जीवन की क्षण-भंगुरता में रात गहराई थी। चाँद का साथ अब न था, वो शायद उसकी छटा चाँद-बाबड़ी पर ही बनें रहना चाहेगी। उसकी असीम सीमा में हम कहाँ? हमें तो लौटना था। उसके जैसा अनुशासन? किसका? केवल एक सूर्य? जी हम गति से राजधानी को थे, लम्बा अन्तराल चुप्पी का था, कुछ सोचने, कुछ विस्मय और कुछ न करने की ग्लानि भी थी, यह सब इतना आसानी से मिट जाएगा? अपना दम्भ सुईं के कोण भर सा नज़र आया, वो सब जो हम करते हैं, उसका अहसास था।
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