कदाचित…..

 आपका अपना मत है, मतदान भी आपने किया ही होगा? पर, वास्तविक विचारधाराओं को देंखे तो सभी में तत्व एक जैसे ही है, केवल भाषाई आडम्बर का तड़का अलग-अलग है, पर वस्तुतः रोज़मर्रा आचरण-व्यवहार में तो जुदा है नहीं। कदाचित, सब पार्टिया अपनी विचारधाराओं, अपने खुद के बनाये आत्मानुशासन का अक्षरशः पालन करती होती, तो इस देश की तासीर, तस्वीर, कथा-कहानी और इतिहास से भूगोल भी कुछ और ही होता, नहीं?


भीष्म-द्रोण-कृप-विदुर और पाण्डव सब की हिस्सा-हिस्सेदारी थी महाभारत युद्ध में, दुर्योधन तो था ही इस सबका श्रेय लेनेवाला। संजय की महाभारत तो किसी नहीं देखि, पर बीआर चोपड़ा-राही मासूम रजा द्वारा निर्मित में, भीष्म बार-बार कदाचित शब्द का प्रयोग करते है, भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में यह आम है, और यही सभी समस्यायों का मूल ही। वक्त के साथ निर्णय न लेने पर, निर्णय वक़्त अनिर्णय-किंकर्तव्यमूढ़ की स्थिति में ही तो राजपाट-समाजव्यवस्था सब बदला है, बदलता रहा है।


चेन्नई-मुंबई के आपीएल में धोनी द्वारा लिया गया एक निर्णय जीत-हार में तब्दील करने को काफी था, क्योंकि तब-यह होता तो ऐसा होता और  ऐसा होता तो,... वगैरह आलोचक यहीं तो कहते है, पर अब निन्दक नियरे राखिये केवल सूत्र भर रह गया है।   

संघटन और विचारधारा से इतर कुछ अवसरवादी, सामाजिक दृष्टि में वस्तुतः अलोकप्रिय-अनचाहे पर! पैसे, सामर्थ्य-बल और ऊंची पहुंच से आगे आये लोग, कहीं हमारी प्रतिभा का दुरूपयोग तो नहीं कर रहे? और हम सब समझदार, बजाय दुनिया-दुनियादारी देखने के "ओ धरती को बीच" (जिद्द) में उलझे पड़े है, झगड़ रहें है, एक दूसरे पर छींटाकसी कर रहें है, आत्मीय संबंधों को तिलाञ्जलि देने में भी कमी नहीं रख रहें, यही सब तो हो रहा है ?



गठबंधन हो की एनडीए या यूपीए सबमें ही विभीषण की चर्चा है, पर फिर लंका भी होगी, रावण भी? चोर-सिपाही का खेल भी है, पर सब दिखावटी। असली है तो केवल निरीह, कमजोर कार्यकर्ताओं की हत्या, आगज़नी। किसी भी राजनैतिक (राजनीतिक) दल में धन-बल की कमी नहीं है ? प्रतिष्ठा-पहुँच सभी के तो पास में है, पर किसी ने भी मृत-घायल कार्यकर्त्ता हेतु पार्टी कार्यालय में नौकरी, जमीन और करोड़ नहीं, लाख, हज़ार की घोषणा, सहायता ……..
चुनाव आचार संहिता में प्रत्यक्ष न सही अप्रत्यक्ष कोई, कुछ सन्देश छिपा सा होता ?   
मित्रों, यह सब आप-हम, सब किसके साथ कब हो जाएँ? नियति पूछकर नहीं आती यही तो हम सबने सुना है?
लक्ष्य जरूरी है, पर मार्ग में शुचिता, संस्कार और सत्संग भी उतना ही आवश्यक है, इसका अभाव कहीं लक्ष्य पर आने पर हमें दूरदर्शन पर बचपन मे देखे धारावाहिक के आमुख संगीत, बोल .... "लेकिन सब कुछ पाकर भी मेरे खाली हाथ" वाली स्थिति, सरीका तो नहीं कर देगा?
बड़बोले-बोल, जुमला, झूठ को परोसने के तौर-तरीक़े तो है, पर रिपोर्ट कार्ड में बीता काम, आने वाला लक्ष्य तो अंकित ही नहीं है। मेरे क्षेत्र में न सही, पर आपके चुनावी ईवीएम भी वो नाम नहीं है, जिसको आप अपने मन से मतदान करना चाहते है, अगला चुनाव हो तो दलों में उम्मीदवारों को चुनने का हक़ भी हम-आप कार्यकर्त्ता को मिलना चाहिए, नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब, नोटा मुकाबले में और जीतता नज़र आएगा। आखिर क्यों? राजनीतिक दल हम पर प्रत्यासी थोपने की बजाय, अपने कैडर के हर-एक कार्यकर्त्ता में मन की बात को जानलें।

तेलंगाना, पंजाब, राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात भी पिछली विधानसभा और अब मई-मानसून में पार्टी-दल केवल इस आधार पर हारेगी, क्योंकि सब कुछ जानकर भी केवल मौका लेने को प्रत्यासी को नहीं बदला गया, हक़ीक़त में तो यह हार व्यक्तिगत है, पर अब, वे कई लोग केवल इसको पार्टी-दल की हार बताकर, अगली बार देखना फिर टिकट की जुगत बैठाते नज़र आएंगे।   
प्रीतमपुर रेलवे स्टेशन पर ट्रैन गति रही है, राजकपूर को स्वर दे रहें है, मुकेश-शैलेन्द्र-लक्ष्मी-प्यारे………………..
तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय
न तुम हारे, न हम हारे
सफ़र साथ जितना था, हो ही गया तय
न तुम हारे, न हम हारे
तुम्हारी भी जय-जय, हमारी भी जय-जय
- दीवाना (1967) तुम्हारी भी जय-जय हमारी भी जय-जय- शंकर जयकिशन-शैलेन्द्र-मुकेश


कल ही देर रात दिल्ली से पत्रकारिता का विद्यार्थी गौरव का फोन था, बात से लगा सामाजिक दायित्व का अहसास है, उसे। खुद को पच्चीस में परिपक्व बता-जता रहा है, और देश से-जनमत-आम आदमी से बहुत जल्द बदलने की आशा करता है, बदलने को वक़्त चाहिए, यूँ मेकअप लगा कब तक रंगमंच पर किरदार बदलते रहेंगे, बदलने को जज्बा-सच और मेहनत तो चाहिए ही। राजकपूर का किरदार और उसका वास्तविक इतर नहीं था, जब उनका चेहरा सामने आता है,  कानों में सुनाई देता है -
अपने पे हँस कर जग को हँसाया, बनके तमाशा मेले में आया
धक्के पे धक्का, रेले पे रेला, है भीड़ इतनी पर दिल अकेला
ग़म जब सताये, सीटी बजाना, पर मसखरे से दिल न लगाना
कहता है जोकर...
- मेरा नाम जोकर (1970) कहता है जोकर सारा ज़माना- शंकर जयकिशन-शैलेन्द्र-मुकेश
मुद्दा, मीडिया हॉउस के कार्ड का था, अपने खुद पर विश्वास-प्रतिभा को न रखने वाला जब पत्रकारिता में आएगा तो वह केवल उस कार्ड के होने तक ही अहसास रखेगा, वह जब छीन लिया जाएगा तो अर्श से फर्श पर आने में तो चंद सैकेंड ही लगते है।
सब कुछ जब हम राजनीति के नज़रिये से देखते है तो यह सब ही होगा। अलवर का वीडियो वायरल करने में हमने कोताही बरती होती तो शायद मानवता इतनी शर्मसार नहीं होती, धरना-प्रदर्शन से कोई वो सत्व लौटा सकेगा, जो दंश लाचार मातृशक्ति ने झेला, सोचा क्या वो सिहरन पैदा नहीं करता ?
इस-सब नेतागिरी पर कोई अंशदान का नैतिक आधार नहीं हो ? की सब मिलकर ऐसी घटना के बाद कमसे कम उस पीड़ित पक्ष को आर्थिक सम्बल देंगे, जो भी वहां अपनी राजनीती चमकाने को आतुर दिखे, उस जिस-किसी पर आर्थिक भार भी तय होना चाहिए।

होना तो यह भी चाहिए की, जो चुनाव घोषणा पत्र में मुफ्त की रेवड़ी बांटने की बातें करते है, उन पर भी चुनावी आचार संहिता का उलंघन मानते हुए, आर्थिक दंड आरोपित हो। बजट के घाटे में चलता यह देश, इसकी तनिक भी फ़िक्र दूरदर्शी? राज नेताओं को है ?






















अच्छा ढूढ़ने की कवायदे करते रहिये, बुरा दिखें तो प्रतिबद्धता का त्यजन भी। देश रावण-कंस-सल्तनत-मुग़ल-गोरेकाले अंग्रेजों से निज़ात पाई है।
देश की मिट्टी-पानी-आवोहवा सब कुछ है ही ऐसा यहाँ वो ही टिकता-रहता है,
जो जैसा है, वैसा दिखता है
और-और
जैसा दिखता है वैसा होता है।

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