साधना से साधन जुटता है

मित्र के सपने को पूरा करने का... .. एक कदम। एक सपना जो कहीं नींद में ही दम तोड़ देता, शायद। पर, नियति ने तो तय किया था कि सूरत में बालिका शिक्षा को केंद्र में रखकर संस्थान स्थापित होगा, वह सपना था, वीर जी भाई गोधानी का और उसको साकार करने का बीड़ा उठाया - गोविन्द भाई ढोलकिया ने। यह है, बुनियाद वीएन गोधानी विद्यालय की। वर्तमान में यहां तक़रीबन पांच हज़ार छात्राएं अध्ययनरत है।

यही, दोनों मित्र सूरत के प्रदूषण, वातावरण से कुछ उकताये से इस शहर को छोड़ कहीं और आशियाना बनाने को बैचेन थे। रोज की तरह एक शाम की सत्संगति में एक सज्जन ने कुछ यूं जब पंक्तियां नज़र की...

लोग कहते हैं की मर जाएंगे।
ग़र तब भी चैन नहीं आया, तो कहां जाएंगे।।
कुछ, यह-ऐसी सी सद्गुणी के वाक्य, प्रेरणा सी बन गयी, इन्हीं दोनों के लिए।

अगली सुबह, झाडू-डस्टबीन से मेरा शहर का जज़्बा लिए निकल पड़े -साफ-सफाई को। और फिर, कुछ वैसा सा ...लोग आते गए, काफ़िला बनता गया। दो से कब दहाई, सैकड़ा, हज़ार बनता गया, मानो हर एक को अहसास हो गया, शहर तो गोविन्द सेठ से कम तो मेरा भी नहीं।

अब, आयुक्त बनकर आयें राव, तो शहर और बाशिन्दों की कुछ और छवि लेकर आते है, पर शहर तो अलसुबह जगा सा, इतना ही नहीं, उसके आगे था, उनकी वह पहली मार्निंग वॉक ही कुछ ऐसी निकली की- नज़र से नज़ारे बदल दिये। राव, कुछ अपनी प्रशासनिक शक्ति, कुछ आगे बढ़कर काम करते ऐसे ग्रुप से जुट गए, सफाई भी हुई, पेड़-पौधे-हरियाली सब कुछ इस शहर में, मानो कोई चेतना से जाग गयी।

राव, आजकल सिंगापुर है। पर, सूरत का गोविंद भाई से बना वह रिश्ता तो दिन प्रतिदिन प्रकाढ ही हुआ है।

उन्ही का एक वाकया, प्राचीन से नवीन की ओर बढ़ता शहर, मूल स्वरूप को खोने के साथ ही, रोजमर्रा की झाम, चींचीं-पोपों की तंग गलियों में छटपटाहट में था, राव ने कुछ तो भविष्य के सूरत की कल्पना की और अपनी छवि को भुनाया, शहर तो तब भोर में उठ-खड़ा हो अपने काम के घण्टे बढ़ा ही चुका था।

अब शहर में कुछ यूं स्वयंस्फूर्त ही, कुछ चला कि राव साब की लाल लाइन खींच गई, तो लोग खुदबखुद वह हिस्सा तोड़ने लगे। न पुलिस, जेसीबी, टैक्टर-ट्रॉलियां, निगम के कर्मचारी। सब कुछ अपने आप, राव साब का सम्मान, उनकी कार्यशैली को सहयोग। बात सूरत कि थी, बदसूरत तो था भी नहीं, पर हां खुद सुरतियों ने अतिक्रमण से मुक्ति पा, शहर को गुजरने लायक तो बना ही दिया।

गोविन्द काका, भगतजी यह स्नेह से लोग उनको बुलाते है, चलत में लोग उनकी सुबह की दिनचर्या को जनता-दरबार कहते है, पर अपने आजकल के नेताओं की तरह नहीं, बिल्कुल नहीं है, यह सब।

यूँ तो दुनिया में कितने ही लोग हैं, जिनके पास अथाह धन-ऐश्वर्य है। पर उसका उपयोग करते वे, सदुपयोग के इस सूरत मॉडल को रत्तीभर भी अपनाएं तो शायद, समाज बहुत हद तक आत्मनिर्भर हो जाएं, उनका भी तरक्की का रास्ता बन जाएं, जो अभाव के मारे, मन मशोष केवल सपना, रह जाते है।

शिक्षा-चिकित्सा-शादी-घर-कुछ करने की इच्छा, उसकी खातिर सहयोग को आता हरेक, रोज सुबह अपना रात का सपना पूरा करता यहां से लौटता है। सबसे वे व्यक्तिगत रूप में मिलते है, उसके साथ सहज होते है, सहानुभुति के साथ सलाह-सुझाव-मंत्रणा के बाद उनकी बारी आती है, और हताश-निराश, एक नवचेतना के साथ लौटता है, नव-सृजन को।

नींव का निर्माण फिर, फिर.....
उनके इस सहयोग में भीख, खैरात सा अंश भी नहीं है, छात्रवृत्ति, विदेश-अध्ययन, व्यापारिक-प्रतिष्ठान की स्थापना, प्रतियोगिता-परीक्षा हेतु कोचिंग इन सबको वो कहने को डोनेशन नहीं, लोन देते है, तब-कब से। वो भी दीगर बात है कि उसमें से पिछले दो दशक में कोई तीन फीसदी ही लौट कर आये है, पर उनकी तो कामना इतनी ही कि, बाकी जो यहां से लौटा था, है वो फ़िसड्डी, असफल न हुआ हो बस, इतना भर।

भगत बछल प्रभु सारे सब काज जी.....

अभी, कल ही गुजरात के डिप्टी कलेक्टर अपनी अमानत राशि को लौटाने को आया था, उसकी भाव-विह्वलता, कृतज्ञता भाव ही तो था, जो फिर उसे सूरत की और मोड़ गया।


अब सवाल यह, मैं क्यों पहुँच गया वहाँ?

भारतीय युवा संसद के सूरत-सत्र हेतु स्पॉनसरशीप हेतु ? आर्थिक सहयोग हेतु, इतना सब भर?

नहीं, बिल्कुल नहीं। और जिसने बचपन से ही काल्पनिक नहीं, वास्तविक सांवलिया सेठ की आख्यायिका, नरसी भगत को माँ से सुना हो।
साधना से साधन जुटता है, अब तक भी।

मैं, वाघाणी जी के उन वृत्तांतों को जान, उद्यत हुआ जो संस्कृति संरक्षण के साथ-साथ समाज को गति दे रहा है, जो हर एक उसको जो सपने पालता है, उसको पूरा करने का संबल-साहस देता है। विद्यार्थियों और युवाओं को मदद का उनका फार्मूला बड़ा ही प्रभावित करने वाला है, गीता का एक अध्याय मतलब पांच हज़ार सालाना, जितने अध्याय आप कंठस्थ सुनाए उसके अनुसार, आपकी आवश्यकता को जानते हुए, जितनी जरुरत-उतनी फिक्र-जितनी फ़िक्र उतना आर्थिक अनुदान। उनका अपना एक और दायरा हैं, जिसमें सात अध्याय के बाद शिक्षा-शिक्षण की समस्त जिम्मेदारी, वे अपने ऊपर ले लेते है, उनकी अपनी भाषा में वह उनका बेटा हो जाता है। स्नेह-करुणा-आत्मीयता का द्योतक यह भाव, स्कॉलरशिप में नही है न?

ड्राफ्ट और चैक के बाद अब, ऑनलाईन ट्रांसफर से ही बदलता सब कुछ तो शायद डिप्रेशन, सुसाईड जैसी परिकल्पना भी समाज नहीं करता। अलवर में पिछले कुछ महीनों पूर्व चार युवाओं ने ट्रेन के सामने कूद खुदकुशी की, उनमें से कोई भी अभावों में नहीं था, फिर आखिर ऐसा क्यों?

कोई भी तैईस साल से ऊपर नहीं, बोलने वालों का क्या? कुछ भी लांछन लगा दो, पर उन पर दबाब था, सरकारी नौकरी का। वक़्त भी था, अवसर भी, पारिवारिक सहयोग भी, पर मानसिक दबाव को झेल नहीं पाए।

इसलिए मैं बताना चाहता हूं, की गोविन्द भाई का सहलाना एक ताकत देता है, उसको यह महसूस करवाता है, जब कभी किसी भी प्रकार का दबाब-हताशा-अभाव लगे तो बेहिचक लौट आना, सब कुछ रामजी का दिया-लिया है, जयरामजी की उनका उत्साह वचन है।

राम के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था है, उनके जीवन का अबूझ मुहूर्त है-रामनवमी। इजरायल, बेल्जियम, सिंगापुर, अमेरिका के उनके ऑफिस हो या सारी शादी-व्याह, स्कूल-हॉस्पिटल-संस्थान सब कुछ रामनवमी को।

श्रीरामकृष्ण के नाम से उनका डायमण्ड का व्यापार है, ज्वैल गोल्डी नाम से आभूषणों की दुनिया में उन्होंने अपना, देश का नाम ही नहीं, विश्वसनीयता स्थापित की है, हीरों के इस व्यापार में विश्वास का अर्जन ही तो बहुत कुछ-सब कुछ है।

नवरात्रों में उनका पारिवारिक एकत्रीकरण गुजरात मे मिशाल के तौर पर देखा-सुना जाती है, जब तीन भाई, दो बहनों का सम्पूर्ण परिवार एक साथ गरबा खेलता है। और तब समवेत गूंजती है, मधुर लहरी, थिरकन, लाल-गुलाबी-नीले-पीले-हरे रंग में भेष-भूषा में सजे स्नेही स्वजन...पंखिड़ा तू उड़ कर जाना पावागढ़ रे महाकाली से मिलके कहना गरबा खेलेंगे।

व्यापारिक, सामाजिक, पारिवारिक दायित्वों के बीच उनसे मिलने का वक़्त मुश्किल ही होता है, पर एक बार नहीं, उनके ही आग्रह से दुबारा भी मिलना हुआ। चालीस मिनिट में बहुत कुछ जाना-सुना, उनको लगा कुछ अच्छा सा, उनकी ही जुबानी कहूँ तो उनको मेरे-हमारे काम में अपने काम की माफ़िक लगती है, सामाजिक जीवन में यह-सब सुनकर ही बहुत सा प्रोत्साहन मिल जाता है।

उनके सामाजिक प्रकल्प के बाद जब, व्यावसायिक प्रतिष्ठान में पहुंचा तो, जीवन का नया अनुभव था। व्यापार केवल व्यापार नहीं है, यहां भी कार्यरत हर आदमी उनके स्नेह की छाया में है, तो कार्यकुशलता से सम्पूर्ण देता कार्मिक भी। उनके खानपान की व्यवस्था, वहीं पुस्तकालय, प्रशिक्षण, दुनिया की अधुनातन तकनीक सब कुछ उपलब्ध है, काम का ऐसा वातावरण, कार्यरत लोगो हेतु इतना सन्तुलित माहौल कम ही देखता हूं।

अभी कुछ दिन लगातार अखबारों में पढ़ने को मिला, नकली मेवें-मावा-मक्खन, सब स्वास्थ्य के पर्याय, जब ये सब सुरक्षित नहीं, तो जीवन कैसे गति लेगा ? बेचने वालों में किसी भी तरह की लज्जा-संकोच, नैतिकता नहीं, सब जान निराशा होती है की इस बदलते समाज, अथाह धन की मंशा में तरक्की-विकास के मापदंड ये सब ही है? तथाकथित जीडीपी ?

तब, कोई आशा गोविन्द भाई जैसे लोगों से मिलकर लगता है, समाज, धर्म का टिकाव उनसे नहीं जो केवल है, समाज तो दाता से सम्पूर्ण होता है।

प्रसंगतः भर -

इसे चाहे आप सच न मानें तो भी केवल प्रेरणा लेने में तो कुछ बुरा नहीं, जैसे चाहे स्वीकारें, आप स्वतन्त्र है। रहीम-तुलसी इसको जोड़ कर देखा जाता है, रहीम के जीवन में दान स्थायीभाव तरह रहा, वे बड़े दानशील थे और आय का हिस्सा बाँट दिया करते थे। प्रतिदिन सुबह, दान देते - तो अपनी नज़र-आँखें नीची रखते और कभी भी लोगों से आँखें नहीं मिलाते थे।
गोस्वामी जी पत्र लिखकर पूछ ही लिया - दान के समय उनकी आँखें नीची क्यों होती हैं?

ऐसी देनी देन जू - कित सीखे हो सैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचे करो, त्यों-त्यों नीचे नैन॥

ऐसे दान क्यों? कहाँ से सीखा? उसमें भी अपनी आँखें नीची कर लेते हो। क्यों मित्र?
साहित्य का जबाब भी साहित्यिक शैली में ही- नम्रता और बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण।

देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥

देने वाला तो कोई और - यानी ईश्वर है - जो दिन रात दे रहे हैं। लेकिन केवल यह भ्रम यह है सब ऐसा समझते है की मैं दे रहा हूँ, इसलिये मेरी आँखें अनायास ही शर्म से झुक जाती हैं। मेरे नेत्र इसलिए नीचे को झुके रहते हैं कि माँगनेवाले को यह भान न हो कि उसे कौन दे रहा है, और दान लेकर उसे दीनता का अहसास न हो ।

यह सब सुना-पढ़ा कई बार-कई जगह, पर वास्तव में यहाँ। .

उनकी अपने प्रतिष्ठान की आठ आपीएल सरीखी टीमें है, वार्षिक आयोजन भी है, कर्मचारियों में प्रोत्साहन का कोई भी मौका वे चूकते नहीं, खुद कागज़ की पर्चियों में लिखते है, जब कोई स्टेप पर आता है तो पुराने बही की तरह उसको क्लियर कर, नया असाइनमेंट भी वे खुद लिकते है। कलाम का अपने प्रतिष्ठान में आना, अधिक शकुन सा है। सामने भित्ति पर अंकित- दया-प्रेम-करुणा उनके अपने आदर-मुरारीबापू का वाक्य, लिए ही नहीं संसथान ब्रह्म-वाक्य है। गुटखा-बीड़ी आदि कोई व्यसन वहां नहीं होते, हेलमेट प्रत्येक दुपहिया चालक हेतु अनिवार्य है। भवन पूरी तरह प्रकृत्ति अनुकूलक है, जो की दुनिया की पहली सौ इमारतों में मानक के अनुसार स्थान रखता है।

एक भूल शायद मैं, कर बैठता अगर कुछ जल्दीबाज़ी में नहीं होता। प्लान्ट विजिट के दौरान हीरे कटाई हेतु धार काम में ली जाती है, इससे बेस्टेज भी काम होता है, चमक भी अधिक-स्वाभाविक आती है। यह हीरे की कटाई सबसे नया प्रयोग है, पानी की धार को काटने के काम लिया जाता है, मैंने मशीन पर काम करने वाले को पूछा तो पता चला की इसके नीचे कुछ भी चला जाए तो काट जाएगा, अंगुली का तो हिस्सा भी नहीं दिखेगा, सही है आखिर दुनिया के सबसे कठोर हीरे को काटने का माद्दा, बाकी सबको क्या छोड़ेगा?

पुत्र श्रेयांश ढोलकिया की ओर भी वे उसी आशा से देखते है, की जो कुछ उन्होंने शुरू किया वो-सब रुकें नहीं, उसका संरक्षण केवल नहीं संवर्धन भी हो। संतोकबा अवार्ड उनका सालाना प्रोत्साहन है, जो उस समाज के प्रति कृत्यज्ञता है, जो आगे बढ़, अपना जीवन देता है-परार्थ, अपने हुसूलों पर समझौता नहीं करता, और चिरन्तन अक्षय प्रेरणास्रोत होता है।

यह कोई गाथा नहीं है, नहीं महिमा-मण्डन ही। केवल समाज की कृतज्ञता भर है, उस व्यक्ति के प्रति नहीं, उसके संस्कार-परम्परा के प्रति, जिसको उसने सहेजा-सँवारा और चैरेवेति-चैरेवेति सतत किया। कोई जान-समझ कर इस ओर प्रवृत्त हो सकें, मन्तव्य इतना ही है। बाकी तो उनके हाथ के पास रखी गीता ही कहती है, जो उनके कार्य में अक्षरशः परिलक्षित होता है- निमित्तमात्रभवसव्यसाचीन्।

भारतीय युवा संसद में, श्रीरामकृष्ण एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड के संस्थापक व चेयरमेन गोविंद भाई ढोलकिया के अनुभवों को जानने-समझने का अनुभव युवाओं को मिले, यह आग्रह केवल उन्होंने इस बिना पर स्वीकारा, क्योंकि कुछ ऐसा उन्हें लगा जो कुछ वैसा ही है, जैसी उनकी खुद की फितरत-तासीर है।

- Ashutosh Joshi

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