संवाद अविराम

राहुल देव जी वर्तमान में भारतीय संसद के प्रशिक्षण से जुड़े अहम संस्थान अध्यक्षीय अनुसन्धान पहल के मानद सलाहकार है। आज वे जयपुर थे, तो अवसर था उनको सुनने का, उनके साथ-सन्निधि में चर्चा करने का और भारतीय युवा संसद को लेकर सुझाव-सद्भाव का अवसर भी। पहले उनका वक्तव्य, फिर समूह चर्चा और अन्ततः व्यक्तिगत आमने-सामने का सत्र।
आरम्भ वक्तव से......
अगली पीढ़ी में भारतीय भाषाएं महज पांडुलिपी सरीखी भर रह
जाएगी। दक्षिण, पूर्व, थोड़ा गुजराती और पंजाबी भाषाओं के अनुयायियों
को प्रसंगतः पहरूपिया बता भी दें तो भी भाषाओं के भविष्य का संकट कम नहीं है।
हिन्दी का विरोध हो, होता है तो भी
क्या वे भाषायी कार्यकर्ता अंग्रेजियत से स्वयं को बचा भी पाएंगे। क्रमशः
क्षेत्रीय भाषाओं में रहा शिक्षण भी तो तथाकथित कॉन्वेंट में ही तो तब्दील हो रहा
है। सारे भारत में मातृभाषा से सम्बद्ध सभी विद्यालय, अंग्रेजी माध्यम में बदल रहे है, सरकार के स्तर पर ही यह सब हो रहा है।
नयी सरकार को वे प्रबल सरकार तो कहते है, पर नयी शिक्षा नीति पर हिन्दी को लेकर तमिलनाडु
से उभरे विरोध के स्वर के उपरान्त त्वरितता से अपने ही निर्णय को बदलने के कारण,
इसको प्रथम दुर्बलता का
निर्णय बतलाने में कोई भाषायी आडम्बर का प्रयोग नहीं किया। राहुल देव जी, भारतीय भाषाओं के प्रति अपने इस मोह को
सार्वजनिक रूप से, स्वयं का पागलपन
बतलाने में सकुचाते नहीं।
राष्ट्रवाद, जी यह विषय और इस पर आज उनके द्वारा अपने ढंग से की गयी व्याख्या को कार्यक्रम
के समापन के उपरान्त बहुत से लोगो ने असहमति भी प्रकट की तो भी उनका अपना मत था की
यह भेद का मत ही गलत है। कालांतर में यह एक और तत्त्व होगा जो देश में
व्यक्ति-व्यक्ति के विभेद का कारण होगा, पहले से ही विभाजन के विषय कम तो नहीं है ? जोड़ने-बांटने को विचारना, इस चर्चा को वे केवल एक दल, दलीय-राजनैतिक लाभ तक बताने से भी नहीं चुके,
वे इसको देश के लिए
हानिकारक मानते है।
कुछ प्रश्न जो
उन्होंने सभा-सदन में रखे:-
भाषाएँ नहीं बची
तो भारत कैसे बचेगा?
जब मातृ भाषाओँ
से हम दूर चले जायेंगे तो मन-मस्तिष्क से क्लोन-अमेरिकी ही तो बचेगा, नहीं?
भाषा बदलेगी तो
चेतना, आत्मा, स्व सब नहीं बदलेगा?
आने वाली पीढ़ी की
रूचि भारतीय भाषाओं में है ?
शहर नहीं,
ग्राम-ढाणी में अबसे अगली
पीढ़ी अंग्रेजी भर में अध्ययन नहीं करेगा ?
हासिये की सभ्यता नहीं रहेगी, भाषाएँ?
हिन्दी का मध्यम वर्ग ही सबसे बड़ा गद्दार है, बाकि भाषाओं से इतर, आपको मराठी-बांग्ला-तमिल-तेलुगू में यह सब नहीं मिलेगा। वो अपनी भाषा-कला-वाङ्गमय-संस्कृति-कला-संगीत
से गहराई से जुड़े है। हमारे घरों से शास्त्रीय परम्पराये ही नहीं अलग हुई, साहित्य-कला सब ही तो दूर जाते जा रहे हैं,
पुस्तकें भी अब घरों से
ओझल होती जा रही है। पर एक हम की खुश है की चैनलों-गानों-फिल्मों में
दर्शकों-श्रोताओं की तादाद बढ़ रही है, इसको लेकर हम खुश हो रहे हैं, हिन्दी पढ़ने-लिखने वालों की संख्या को लेकर
आकड़े क्या है ?
भारत का विकास होगा, अपरिहार्य है पर भारत उसमें रहेगा क्या? दुनिया के लोग भारत को देखने-समझने भारत आते है, क्यों? दर्शन-जीवन शैली-विविधताओं-बहुलता में सामंजस्य
पूर्ण-सहअस्तित्व को तलाशने आते वे, क्या यह सब बचेगा? दुनिया में हम कहाँ है? सब आगे बढ़ने में लगे है, उन सबके बीच हमे भी आगे बढ़ना है, मनुष्य का निर्माण ज्ञान पर होगा की भक्ति पर,
निसंदेह विज्ञान ही उत्तर
है। विज्ञान धर्म, अध्यात्म सबके
लिए चुनौती बन रहा है, आने वाली पीढ़ी सबसे उदासीन हो रही है,
यह ही तो भविष्य की
दिक्कत है, आएगी।
दलित अलग होने की तैयारी करता दिखाई दे रहा है, आरक्षण से ही केवल सामाजिक समरसता संरक्षित रह
सकता है ? कुछ लोग धर्म
परिवर्तन में तभी सफल हो रहे है, विश्व की कुछ सभ्यताओं में धर्म के विस्तार का मूल है, हम नहीं है वो अलग है। अतीत के मोह में,
मुगालते में रखकर सत्व को
बचाना सबसे अधिक मुश्किल है, इसमें प्रमुख कारण व्यावसायिक समाज, विश्व का सबसे अहम है।
पत्रकारिता में ईमानदारी के वे लोग, केवल उपेक्षित ही रहें न। जो अवमानना, प्रताड़ना का निरंतर सामना कर रहे है, वे लीक पर चलने वाले लोग अब अधिक न रहेंगे।
केवल प्रिय सत्य सेंटर अप्रिय सत्य को स्वीकारने का भी साहस जरुरी है। अप्रिय सत्य
को स्वीकार करने का भाव भी मौजूद रहना चाहिए । दोनों ओर की गाली, सबसे ज्यादा अपनी ओर से, घटिया तक। संकुचित भाव से भविष्य, राष्ट्रीय निर्माण नही होता, यह ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि का काल है। अब भीड़ का तंत्र उतना नहीं
महत्वपूर्ण-सक्रिय ।भारतीय सहकारिता को खतरा, वाद से लड़ने हेतु, ज्ञान के अभाव से है। समांतर ज्ञान, अकाटय, सबको सन्तुष्ट करें, जो सच के करीव हो। नई दृष्टि का विकास, अप्रिय ही सही।
समूह चर्चा ........ .....
में ट्विटर-फोन में मानसिक दिवालियेपन का विषय प्रमुख रहा।
निष्पक्ष या तटस्थता से हुई-होती हानि, उसके परिणामभूत मानसिक यन्त्रणा से त्रस्त वे भी है,
इससे लगा की यह दौर कुछ
ज्यादा भी विभेद कर रहा है। बात ही बात में एक सज्जन मुखर पत्रकार रवीशकुमार को
गली-दुत्कारने को उद्यत दिखे तो राहुल जी बोलने
चुके, की तर्क आधारित
समाज, अब अपनी अस्मिता
को लेकर, अपनी मूल पहचान
को खो रहा है, किसी को गाली
देना- किसी के प्रति दुराग्रह से लिखना, तर्क के बदले तरकश को इस्तेमाल करना, कभी भी उचित नहीं होगा, चाहे वह विरोधी भी क्यों न हो।
गीता का एक श्लोक
उद्धृत भी उन्होंने किया -
अनुद्वेगकरं
वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥
भावार्थ : जो
उद्वेग न करने वाला, प्रिय और हितकारक
एवं यथार्थ भाषण है (मन और इन्द्रियों द्वारा जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही कहने का नाम 'यथार्थ भाषण' है।) तथा जो वेद-शास्त्रों के पठन का एवं
परमेश्वर के नाम-जप का अभ्यास है- वही वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है। (17/15)
पाठक इसके अर्थ से, मूल भाव ग्रहण कर सकते है।
अन्ततः व्यक्तिगत आमने-सामने का सत्र...........
वैचारिक रूप से सबको सुनना, जो उपयोगी हो उसको गुनना, तदुपरान्त आचरण-व्यवहार में लाना। सार-सार को
गहि रहे वैसा सा कुछ। पुरानी हिंदी फिल्म में गाना था- मेरी बात के माने दो,
जो अच्छा लगे उसे अपना,
जो बुरा लगे उसे जाने दो।
कोई भी विचार, पूर्णतः
बेमानी-अप्रासंगिक हो हो नहीं सकता, और जो व्यक्ति समाज क्षेत्रे-अनुसन्धान-शिक्षा आदि से जुड़ा
हो, उसे सबको जानना चाहिए,
उसको मथते रहना जरुरी है,
इससे अच्छाई अपने आप और
बुराई भी प्रकटित होती रहती है।
संकीर्णता से विलग और बिना आवेश के किस प्रकार से सामाजिक
या की कार्य क्षेत्र में आचरण किया जा सकता है, आज के दिन का यह सार, इस सत्संगति का कहा जा सकता है, फिर मिलने की कामना की साथ संवाद अविराम
हुआ।
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