जद्दोजहद



सब चलता है, इसी में लगे है। लोकतंत्र के अपने-अपने नक्शे है, कोई तीसरे नम्बर पर आकर भी बादशाह बनने को आतुर है, पड़ौस में एक चुनाव से दूर रहकर भी चुनी हुई सरकार के खिलाफ, लोकतंत्र मार्च करता है। अवाम की न कैटोलोनिया सुनता है, न हांगकांग।


इसी बीच दिल्ली की चर्चा है, दिल्ली प्रदूषित है, धुएं-धुंध से, धरने-धमकी से कानून के कारिंदे, वकील-पुलिस के किस्सों, वायरल होते वीडियो में टशन है, टेंशन भी, टकराव और आमने-सामने भी।

सोचिये, एक ऐसा धरना जिसमें ख़ाकी-काला कोट एक दूसरे पर छींटाकशी ही नहीं, हाथ से, लाठी से और हेलमेट से भी वार को दिखा, बतला रहा है, मानो हर कोई दूध का धुला है।

एक सरकार प्रदूषण को लेकर ओड-इवन को लाती है, देश-दुनिया में दिल्ली का ज़िक्र प्रदूषण का रिकॉर्ड कायम करता शहर है, पर इस दायरे में आये कद्दावर केन्द्रीय नेता को ट्रैफिक चालान से आपत्ति है। राज्य सब एक-दूसरे को दोष दे रहें है, और पटाखे चाहे लखनऊ में फूटे या की मेरठ, पराली पंजाब, हरियाणा या उत्तरप्रदेश में जली, पर पता नहीं, क्या कनेक्शन हुआ, प्रदूषण को मानो दिल्ली ने खींच लिया जैसे।

दिल्ली चर्चा में है, पड़ौस को लेकर भी।

फज़ल-उर-रहमान की प्रेरणा दिल्ली है, अन्ना मूवमेंट की दिल्ली। लोग राजधानी क्यों आते है, सरकारें वहाँ तक अब तक नहीं पहुंच पाई है, जहां उसे होना चाहिए,बगावत पंचायत-नगरपालिका तक है, आप रखिये अपनी टिकट, हम वेवफ़ा ही सही। 1857 से 2019 बीतने तक भी आज़ादी का हुजूम अब भी, कुछ है जिसको पाने की जद्दोजहद में है।

गैस सिलेंडर के दाम बढ़े, विपक्ष मौन रहा, क्यों रहा पता नहीं? अपने सूबे में तो टोल टैक्स की आममाफी को वापिस ले लिया गया, विपक्ष यहां भी केवल क्षपास तक सीमित रहा। यूनियन भी है, कर्मचारी संघटन भी, पर महंगाई भत्ते को लेकर गांधीजी के बन्दर की मुद्रा में है, सरकार दूसरे और मीडिया तीसरे की मुद्रा में, इससे सही 150वीं जयन्ती का अहसास क्या होगा।

एक जैसा हर समय वातावरण होता नहीं
अर्चना के योग्य हर इक आचरण होता नहीं
जूझना कठिनाइयों की बाढ़ से अनिवार्य है

मात्र चिन्तन से सफलता का वरण होता नहीं ( महावीर प्रसाद 'मधुप)

दिल्ली ऊंचा सुनती है, ऐसी कविता भी सुनी थी। पर अब तो दिल्ली तब ही सुनती है जब उसको सुनना होता है, दिल्ली सब केवल वकील नहीं, जज नहीं, पुलिस नहीं,दलील-कानून-फैसला-गवाह सब अकेली ही है, अवाम को वोट देने के अलावा कठघरे में रहना होगा, रहना पड़ता है सत्ता पांच साल आधे वोटर को वोट न देने के नाम पर विपक्ष सत्ता की नाकामयाबियों को लेकर जनता को, सत्ता-विपक्ष के इन वकीलों के बीच बेचारी जनता को कठघरे में रहने के अलावा विकल्प ही क्या है?

सच पूछों तो अबकी दौर में अपने देश में विकल्पों का संकट है,और यह लोकतंत्र की दृष्टि से अच्छा संकेत नहीं है।

दिल्ली, हस्तिनापुर है, पांडव भी कौरव भी तो। केवल दिल्ली ही सब करती है, यह मिथक भी ख़ुद ही तोड़ती है। विपक्ष में रहने का मैंडेट कब उपमुख्यमंत्री तक पहुंचा दे तो कब मुख्यमंत्री को विपक्ष का नेता , यह दिल्ली नहीं कभी-कभी मुम्बई भी करती है। अभी तो यहीं तक.....

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