अच्छे-अच्छे काम करते जाना


 

विश्वविद्यालय परिसर में अनेकों बार उनसे मुलाकात हुई, साथ बैठने का सानिध्य भी मिला। जबसे कुछ-कुछ समझने लगा हूँ- दो दशक में, लोग मिले लेकिन चेहरे अलग और मुखौटे के पीछे कुछ और। बहुत कम मिले, जो भीतर-बाहर एक समान हों, उनमें से सहज-सरल-प्रतिभा सम्पन्न शख्स जो होगा, जाहिर तौर पर अनुपम ही होगा।

मिश्र जी जब सहजता से हाथ पकड़कर, समझाते थे तो लगता कि यह कोई संरक्षक या गुरुत्व का आडम्बर नहीं ओढ़े हैं, सहज मित्रवत, या उनके ही शब्दों में “भक्ति सूरदास सी जिसमें छोटे-बड़े का भाव ही नहीं है, फिर काहे ढँकना-छिपाना। या कि होगा कोई बड़े घराने का या कि राजकुमार, जब साथ है तो कोई क्या गरीब-क्या अमीर, कृष्ण-सुदामा सा सख्यभाव।”

कहते रहे कि आशुतोष साथ रहो तो अच्छे से रहो, निश्चल रहो, गैर-पराया भूल के रहो, वो क्या सोचते हैं, क्या सोचेंगे इसकी परवाह किये बगैर जियो, कुछ भी नहीं मिलेगा- और गर समाज क्षेत्र में काम करने को उतरे ही हो, तो यह चिन्तन करना ही छोड़ दो, केवल देने की प्रवृत्ति रखो, अन्याय का हरदम प्रतिकार करो, जिनके साथ रहते हो, अपना रिश्ता जोड़ो, कुछ भी मानो, मित्र, भाई, पुत्र, संरक्षक सदृश-गुरू तुल्य या कि वो सनातन सम्बन्ध, जो स्नेह दे सके, स्नेह पा सके।

‘दा’ प्रवृत्ति क्षणिक दुःख देगी, पीड़ा भी होगी, क्योंकि रिश्ता-नाता जोड़ना और उसे निभाने की डगर, मुश्किल है, लगे हाथ प्रसंग भी जोड़ चले कि हाल ही में मुश्किल, वाकई मुश्किल है। कोई घटना, विचार छोटा हो या बड़ा कोई फर्क नहीं पड़ता, ध्येय शुद्धता महत्त्वपूर्ण है, कर्मणा-निश्चला प्रवृत्ति होनी चाहिए, होती नहीं यह अलग बात है, पर ऐसा होता है तो अनुपम होता है, वे थे ऐसे। कथनी-करनी का अन्तर नहीं था, कोई भी वह, जो उनको जानता है, जो उनसे मिला, कोई सम्मान, पद्म उन्हें नहीं मिला, उनके व्यक्तित्व की विराटता को नहीं टोकता, रोकता- कोई पाबन्दी उन पर कभी लागू नहीं।

शासन, सरकार, समाज, परिवार, देश, विदेश, नदी, पर्यावरण कोई भी विचार उनसे विलगाव नहीं कर सका।

उनका आलेख, चौथा-शेर, जितना मैंने लोगों को पढ़ा-पढ़ाया, लोग सोचने को मजबूर हुए। राजस्थान विश्वविद्यालय में जब मुझे जर्नल के सम्पादन का गुरुत्तर दायित्व तत्कालीन कुलपति प्रो. ए.डी. सावन्त सर ने दिया तो मिश्र जी जयपुर ही थे। शायद गाँधी अध्ययन केन्द्र या कनोडिया कॉलेज में व्याख्यान को पधारे थे, सो मुझे कुछ-कुछ सम्पादन के गुर उनसे मिले, कई बार मिलना हुआ, हर बार कोई सन्दर्भ नए रूप में विस्तारित हुआ और उन सबसे ज्यादा मैं अधिक सुसम्पन्न हुआ।

प्रसंग ‘द लॉ स्कॉलर’ जर्नल का चल रहा था, हालांकि मेरा सम्पादन का विषय, जर्नल का नाम इंग्लिश का था, हिन्दी से उनको विशेष लगाव और मोह था, यह जग-जाहिर भी रहा है, तो भी इंग्लिश के प्रति उनका दुराग्रह नहीं था और वे स्वयं इंग्लिश पर पर्याप्त अधिकार रखते थे, मेरा स्नातक शब्द, उनको स्कॉलर में नहीं कचोटा, तो मैं और अधिक उत्साहित हुआ, लगे हाथ मैंने उनके आलेख, ‘चौथा-शेर’ को प्रकाशित करने की अनुमति प्राप्त कर ली और यह एक तरह से मेरी सम्पादन/लेखनी को उनका आशीष था।

एक मोह है कि ‘चौथा-शेर’ का सार भी मैं यहाँ दे ही दूँ, ‘चौथा-शेर’ वस्तुतः हमारा राष्ट्रीय स्तम्भ अशोक चिन्ह है, इसमें चार शेर हैं मैंने भी वास्तविकता में जब वाराणसी-सारनाथ की यात्रा की तब ही जाना, आप जानते हैं तो ठीक, नहीं तो मैं, यह स्पष्ट कर दूँ ही कि ये तीन जो सर्वविदित है, हालांकि सम्राट अशोक की परिकल्पना में यह था या नहीं मैं अल्पज्ञ हूँ, पर हमारी व्यवस्था ने इसे विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के रूप में माना और स्वीकारा, कोई-कोई मीडिया को चौथा स्तम्भ कहता है- पर वह अलग प्रसंग है।

‘चौथा-शेर’ में अनुपम जी इन तीन के अतिरिक्त या कहूँ कि पहला शेर इस समाज को मानते हैं, जिसको हम कभी देख नहीं पाये, जो सब कुछ करके भी अनपेक्षित, उपेक्षित रहकर भी अपने दायित्व को अधिक निष्ठा से पूरा करता रहा। जैसा कि वो “आज भी खरे है तालाब” में तालाब के प्रसंग में लिखते है कि-“सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की। यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ा, हजार बनती थी। लेकिन पिछले 200 बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्य ही बना दिया।”

जन्म-मरण-परण हर एक मौके पर राज-न्याय-जमींदार आया या नहीं, इस समाज ने कभी परवाह नहीं की। स्वयं लगा और न केवल लगा अपितु समाज को नहीं दिशा दी। आने वाली पीढ़ी को सन्देश दिया कि दियो लियो आड आवं राज काज तो इयाँ ही ऑतो जातो रव्हे। आप ही देख लीजिये आपके मेरे इर्द-गिर्द, ये धर्मशालाएँ, कुएँ, जोहड़ी, बावड़ी, सर, सरोवर, तालाब- हम तो नई भाषा में कहूँ तो, इनको मेंटेन ही नहीं कर पाएँ हैं।

मैं भी राजस्थान के शेखावाटी अंचल से हूँ, मेरे अपने गाँव लक्ष्मणगढ़ में दो बड़े जोहड़ हैं, जिसमें से एक चूँकि परम्परागत मूर्ति विसर्जन के कारण प्रासंगिक है, दूसरा, कोई आये क्यों.... बेबसी की मजार की भाँति, केवल उपेक्षित। आने वाली पीढ़ियाँ लगता है कि केवल इनको पढ़ ही पाएगी, क्योंकि तब तक ये खण्डहर से मिट्टी में तब्दील हो चुके होंगे।

वापिस विश्वविद्यालय परिसर की ओर चलूँ। त्रैमासिक था जर्नल। सो तीन महीने बीत गए। नया अंक आने को था। सराहा सबने पर सबसे ज्यादा सराहा गया ‘चौथा शेर’। तभी सूचना मिली कि अनुपम जी सीनेट-हाल में पधार रहे हैं, इस बार कुछ खास था, आयोजन। हाँ, उनके साथ थे एक युवा, उनसे ज्यादा सम्पर्क नहीं हो पाया, पर, जितना सुना वो यह था कि अहमदाबाद के फरहाद कॉन्ट्रेक्टर भी पानी पर काम कर रहे हैं, वो साथ रहेंगे। और जैसा कि मुझे ज्ञात हुआ है कि वो आजकल जैसलमेर में उसी मिशन में लगे हैं। इस आयोजन में तकनीक और परम्परा का अटूट मिश्रण था। एक तरफ मिश्र का कथ्य तो दूसरी ओर प्रोजेक्टर पर स्लाइड के जरिए थे कॉन्ट्रेक्टर, सजीव था सब कुछ।मैं फिर नहीं चूका, नया अंक और फिर लालच। इस बार सुझाव था, आस्था के नाम पर फतवे-फरमान-एश: आदेश-एश उपदेश, की बात। क्रिया-प्रतिक्रिया का सा कुछ वक्त था तब, इधर अमरनाथ यात्रा में बाधा थी तो दूसरी और महाराष्ट्र में मराठी-मानुष, सो अनुपम जी ने लिखा आलेख, चाहो तो उपयोग में ले लो शीर्षक था “ओम नमो सिवाय” (ओम नमः शिवाय नहीं है यह)।

उसी प्रसंगत याद आ गया है मिर्जा वाजिद हुसैन चंगेजी का शेर–

सब तेरे सिवा काफिर इसका मतलब क्या।
सर फिरा दे इन्सान का ऐसा खब्त-ए-मजहब क्या।।

(काफिर - अविश्वासी, खब्त - पागलपन, मजहब - धर्म)

उस आलेख की कुछ पंक्तियाँ– “जी नहीं शीर्षक में कोई गलती नहीं छूटी है। इस छोटी सी पत्रिका में इतनी बड़ी गलती नहीं हो सकती, पर इतने बड़े और महान देश में कई छोटी-मोटी गलतियाँ होती रही हैं। मेरे सिवाय कोई नहीं, यह है आज देश का हालत। कभी सरकार का नारा था कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक यह देश एक है, आज नारा है कि मेरे सिवाय कोई नहीं। तिरंगे को एकरंगा करने वाला यह भदरंगा झंडा पहले भी यहाँ वहाँ उठता ही था, पर अमरनाथ के बाद जितना उठा, सर और आँखे शर्म से झुक गई।”

और

“बर्फानी बाबा के दर्शन समाज का एक वर्ग करता था तो दूसरा आव-भगत में स्वयं को खपाता था, एक पुण्य तो दूसरा पैसा कमाता था, सन्तोष दोनों को मिलता था।”

अन्ततः लिखते हैं-

“इस ओम नमो सिवाय को ओम नमः शिवाय में बदले बिना हमारा कल्याण होगा नहीं।”

आगे के अंकों में भी उनका कॉलम रहा, गाँधीवादी चिन्तन उनको घूँटी में मिला था सो इस बार शहीद स्मारक पर चर्चा रही, रीथ (पुराने टायर पर सजाई गई फूलों की माला), गाँधी स्मारक पर काला संगमरमर, अमर-ज्योति और फिजूलखर्ची की परम्परा पर उनका लिखा आलेख समाहित किया “हिन्दुस्तानी आँखें, ब्रितानी आँसू।

आगे भी “संवेदना शून्य समाज” और स्वाधीनता दिवस के राष्ट्र के नाम सम्बोधन की भाषा-बन्धन पर आधारित आलेख रहे।

यह वर्ष 2006 से 2013 का काल था, मैं फिर मानव संसाधन विकास मंत्रालय से फेलोशिप मिलने से पहले मराठी भाषा हेतु डक्कन कॉलेज, पुणे और फिर स्थानान्तरण मिला, तमिल भाषा हेतु मैसूर, कर्नाटका। सो वक्त कम ही मिला कुछ सम्पर्क का, हालांकि गाँव के पुस्तकालय का शताब्दी ग्रन्थ “नैवेद्यं” हेतु आलेख मँगाने का प्रयास था, पर सफलता नहीं मिली, खैर “नैवेद्यं” पढ़ने के बाद उनका समालोचनात्मक शुभाशीर्वाद, उनके स्वयं के हाँथों से लिखे विस्तृत पत्र द्वारा जरूर मिला।

भारतीय युवा संसद की संस्थापना की परिकल्पना जब डेढ़ दशक पूर्व की थी। तभी से कुछ लोग संरक्षक के रूप में कल्पना में रहे थे और जब सोचा कि महाधिवेशन में उनका सानिध्य मिले, युवा उनसे मिलें, उनको सुने, अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखें, यह प्रयास रहा, तब नहीं मिला और अब केवल स्मरण। युवा संसद द्वारा जब पानी के संरक्षण को सन्दर्भित कर प्रयास आरम्भ किया गया तो, दूरभाष के द्वारा उनसे बातचीत लगातार चली, रुपरेखा के दौरान उनके द्वारा प्रदत्त सुझाव काफी कारगर रहें।

उनकी ही प्रेरणा से जल संसद और जल संवाद की मेरी कल्पना ने मूर्त रूप लिया, पहले ही आयोजन में सहस्त्राधिक युवा जुड़े, पानी की महत्ता को जाना, समझा। और जब राजस्थान विश्वविद्यालय परिसर में यूनिसेफ और राजस्थान सरकार के साथ वाटर पार्लियामेंट का आयोजन किया तो मुख्य वक्ता के रूप में बुलाने का विचार आया भी, पर तब तक उनके कीमोथेरेपी की डॉक्टर जल्दी करने लग गया था, वो अधिक सहमत नहीं थे, शायद अब तक यह सब उन्होंने अहसास भी नहीं होने दिया था। कुमार प्रशान्त जी हेतु उन्होंने कहा, पर वो भी नियत कार्यक्रम के कारण स्वीकृति नहीं दे सके। राज्य सभा चैनल सेअरविन्द सिंह आये, वे इस दौरान मरुक्षेत्र में डॉक्यूमेंटरी पर काम कर रहे, सो सामायिक प्रसंग के साथ पानी पर सार्थक चर्चा हुई।

जल-संसद के इस आयोजन अवसर पर वो नहीं आ पाये, पर उनकी चर्चा तब भी जीवन्त रही, हाँ, इस बात का अति सन्तोष है कि “आज भी खरे है तालाब” और “राजस्थान की रजत बूँदें” के बाद की उनकी आलेख परम्परा को उनकी आत्मीय संस्वीकृति और सुरेन्द्र बांसल के सहयोग से आगे बढ़ाने का सौभाग्य मुझे मिला।

और जब मैंने कलेवर को अन्तिम रूप देते हुए उन्हें बताया कि शीर्षक क्या रखूँ, तो जवाब था-

अब तुम भी कुछ करोगे?

मैंने संकोच के साथ कहा- “रहिमन पानी रखिए” अत्यन्त प्रसन्न हुए, मैं भाँप गया, संकलन का शीर्षक स्वीकृत हो गया है, आल्हादित भाव से उस दिन तकरीबन 30-40 मिनट की बात रोहित के पास संयोजित है, सुरक्षित है।

किंचित देरी से उनको प्रकाशन “रहिमन पानी रखिए” भिजवाया, आंशिक सुधार की ताकीद के साथ प्रशंसा ही मिली, “गगन बिहारी बनो भले तोड़ो मत धरती से नाता” उनको विशेष आन्तरिक लगा, फिर “नैवेद्यं” में पूरी कविता को पढ़कर उन्होंने पिताजी को पत्र लिखकर सद्भाव प्रदर्शित किया, लिखा- आचार्य जी लेखनी की यह सादगी, अन्तरमन तक पहुँचती रहें, प्रवासी मातृभूमि से जुड़ेंगे- आज नहीं तो कल, निसन्देह इस तरह काव्य विरचित होता रहे।

जल संसद के अवसर पर प्रकाशित पुस्तिका “अमृतं जलं” में जल संरक्षण पर विभिन्न विचारकों की अभिव्यक्तियों को उन्होंने संग्रहनीय बताया, लिखा कि इस प्रकार विविध स्रोत-अनुसन्धान को जन-जन तक पहुँचाया जाना चाहिए, जिससे विचार सनातन बने रहे, अमृतंगमय की तरह, चिन्तन-विचार व्ययतो वृद्धिमायाती है, सो उपयोग-अनुप्रयोग होता ही रहना चाहिए।

इसके एक महीने बाद ही जल संवाद शृंखला आगे बढ़ी, विश्वविद्यालय महारानी कॉलेज में। इस बार फिर बेहिचक फिर पूछ बैठा। बोले- लापोड़िया से लक्ष्मण सिंह जी को और कुलधरा, जैसलमेर से चतर सिंह जी को बुलाओ। गाँव से युवाओं को जोड़ो, पुराने लोगों के पास जो अनुभव है, उसको वर्तमान से जोड़ो, यंत्र-प्रोद्योगिकी-परम्परागत पद्धतियाँ आपस में जुड़कर कुछ नया सार तत्व निकले, मंथन के सत्र सतत बने, ऐसी कोशिश चलती रहें।

भारतीय युवा संसद फिर सफल रहा, सारे परिवार को उत्साह मिला, फिर युवा जुटे। पहले कार्यक्रम में छात्रों की संख्या अधिक थी तो दूसरे में छात्राओं का अप्रत्याशित भागीदारी। लक्ष्मण सिंह जी के साथ रहें इण्डिया टीवी की स्टेट हेड संगीता प्रणवेन्द्र जी, पुरातन-नवीन विचारों के साथ, पानी जीवन का कितना अभिन्न अंग था; रहा... कभी लोकगीत के प्रसंग तो कभी जल संरक्षण की साक्षात प्रतिमूर्ति लापोड़िया के चलचित्र के जरिए। मैंने स्वयं बहुत कुछ सीखा।

अब सोचता हूँ, उनका होना, कितना समृद्ध करता। भाव-अभाव के मध्य कोई अब नहीं है, यह है हकीकत, महाजनों येन गत स: पन्थाः पदे-पदे मार्गदर्शन देगा। और कुलं पवित्रं जननी कृतार्था, एक व्यक्तित्व जो स्वयं में संस्था, विभाग, अभियान, लेखक, विचारक, पत्रकार, समाज सेवक, सक्रीय कार्यकर्त्ता इतना सब कुछ था, होते हुए भी प्रेरणा बना अनगिनत लोगो का।

कितनी ही नदियाँ, जलस्रोत पुनर्जीवित हो चले, एक अनछुआ विषय सार्वभौमिक, सर्वकालिक हो चला, जल ही जीवन है से अमृतं जलं तक का उनका यह सफर अमृत रहेगा, अनुपम होना-अनुपम रहना मुश्किल है तो भी अनुपम चिरस्थायी रहेगा।

उनका रहना, जीना, विचार और सौम्य मधुस्मित स्नेह सतत रहेगा ही....

किसी आलेख के अन्त में वे लिखते हैं, उसी से श्रद्धांजलि -

“लेकिन नाम के साथ काम खत्म नहीं हो जाता है। जैसे ही हथिया नक्षत्र उगेगा, पानी का पहला झला गिरेगा, सब लोग फिर तालाब पर जमा होंगे। अभ्यस्त आँखें आज ही तो कसौटी पर चढ़ेंगी। लोग कुदाल, फावड़े, बाँस और लाठी लेकर पाल पर घूम रहे हैं। खूब जुगत से एक-एक आसार उठी पाल भी पहले झरे का पानी पिये बिना मजबूत नहीं होगी। हर कहीं से पानी धँस सकता है। दरारें पड़ सकती हैं। चूहों के बिल बनने में भी कितनी देरी लगती है भला! पाल पर चलते हुए लोग बाँसों से, लाठियों से इन छेदों को दबा-दबाकर भर रहे हैं।'

कल जिस तरह पाल धीरे-धीरे उठ रही थी, आज उसी तरह आगर में पानी उठ रहा है। आज वह पूरे आगौर से सिमट-सिमट कर आ रहा है :

सिमट-सिमट जल भरहि तलावा।
जिमी सदगुण सज्जन पहिं आवा॥

शिष्यस्ते अहं शाधिमांत्वाम्प्रपन्नं

{कृष्ण शिष्य को -प्रेरणा दो}
श्रीमद्भगवद्गीता 2/7

आशुतोष जोशी
सच्चाई और साफगोई के व्यक्तित्व-अनुपम मिश्र को समर्पित
लेखक, भारतीय युवा संसद के संस्थापक एवं जल संसद के संयोजक हैं।






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