सब विकल्पों के पुजारी
पूर्व राज्यसभा सांसद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पूर्व संघटन महासचिव प्रो. जनार्दन द्विवेदी जी, जो तीन दशक तक भारत की राजनीति में संघटन की धारा के अत्यावश्यक-अनिवार्य-आदरणीय पहलू रहें।
".....कौन मित्र, अमित्र मेरे"
दो दशकों में उनसे प्रत्यक्ष होने के तमाम मौकों की टीश बीते दो सालों में जाती रही, और मुझ जैसे साधारण विद्यार्थी को उन्होंने घंटों सलाह-मार्गदर्शन से -कुछ करने की कोशिस करने की अपार उर्जा दी।
प्रसंगतः - उनकी की सुनी, से उद्धृत अंश –
“मेरे मन में दूसरी चीजें बस गयीं और मैं अपने मन की बात कह रहा हूं, जो लोग संगठन में काम करते हैं, वे जानते हैं की मेरे मन में उनके लिए बहुत आदर है, जो साधारण घरों से ऊपर उठकर आते हैं, मेरे मन में उनके लिये बहुत आदर हैं, जो साधारण रहकर नेता बने हैं।
और
“मेरा शुरू से यह विश्वास रहा है की हमारी सद्भावना बौद्धिक दृष्टि से गरीब के दुख-दर्द से हो सकती है, लेकिन अगर आपने उस दर्द को जिया नहीं है, भोगा नहीं है, तो न आप सम्पूर्ण नेता बन सकते हैं और न सम्पूर्ण रूप से बौद्धिक बन सकते हैं। “
अकबर रोड जब भी गया, समय लेकर भी नहीं गया तो भी उनका वक़्त मिला, इतना मिला की लगा की हिन्दी साहित्य का यह स्कॉलर अपने व्याख्यान को रोके नहीं, कुछ बातों को लेकर मेरे आग्रह को, जो आरम्भतः मुझे लगा की पूरी तरह से वे नकार रहे है, पर अंततः ज्ञात होता की यह तो उनका दृढ़ता को परखने का अंदाज़ है. वे चर्चा में होते है तो गुरु भी होते है और सखा भी, और कुछ भी थोपने की मंशा में तो कभी भी नहीं।
विनोबा से लेकर लोहिया तक उन तमाम विचारों में कार्य करने के बाद भी उनका यह मानना रहा है की समाज और दुनिया को बदलने का माद्दा कोई एक विचार भर में नहीं होता, निरन्तर मंथन-मान्यता-मिजाज़ भी होना चाहिए, जितना साधारण, उतना ही उनकी माने तो असाधारण।
उनकी ही जुबानी कहूँ तो -
“जहां तक संसद की सदस्यता का प्रश्न है या ऐसे और प्रश्न हैं, यहां हम बैठे हैं और असल में जिनकी वजह से बैठे हंं वे बाहर हैं। इसलिए मैं नहीं मानता की यहां से जाने के बाद क्षेत्र कम होता है, मुझे लगता है क्षेत्र बहुत बड़ा होता है। मेरे सभी साथी जानते हैं की कम से कम इन 57 वषों में मुझे समय की कमी महसूस हुई है, कभी यह महसूस नहीं हुआ की मैं क्या करूं ? मैं यहां से जाता हूं, तो अपने काम में जुड़ जाता हूं।“
अपने मंतव्य को जब मैं पूरा कह चूका था तो फिर उनका आरम्भ हुआ, की वास्तविकता में जब तक शुचिता नहीं आएगी, सत्य को सत्य और असत्य को नकारने का साहस न होगा तो ऐसे कार्यकर्ताओं, समाज-सेवियों की आवश्यकता नहीं है, जो भीतर से स्वयं खोखलें है वो भला समाज-देश-संघटन को कहाँ से मजबूती दे पायेंगे.
इसलिए वे पार्टी के भीतर और बाहर बेबाक रहे -
“मैं एक बात और कहना चाहता हूं, यदि मैं यह बात आपकी शैली में कहूं, संसद वालों, मुझे भी थोड़ा कष्ट होता है, लेकिन आपकी शैली में कह रहा हूं। जब विवेक-तंत्र की जगह स्वर-यंत्र अधिक प्रभावित हो जाता है, तो कोई मर्यादा मंत्र काम नहीं आता। मैं इसको नवविस्तार से आगे नहीं कहना चाहता हूं। जब कभी मैं अपने साथियों से इस तरह की बात कहता हूं, तो बहुत बार मुझे मेरे हितैषी बरसों से सलाह देते हैं की आप क्यों बोला करते हैं, यहां भी सलाह देने वाले बैठे हैं। आप क्यों कहते हैं, लेकिन अपनी आदत है की रहा नहीं जाता है और जो भीतर का सत्य है, वह बाहर आ ही जाता है। “
कुछ कुछ उसी तरह जो शास्त्र कहता है की –
’सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात्सत्यमप्रियम” ? अर्थात् सत्य बोलें, मीठा बोलें, कड़वा सत्य न बोलें। तो शंका यह है, कि क्या अपवाद रूप में ‘झूठ बोलना’ भी धर्म हो सकता है? ‘प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः।’ अर्थात् मीठा तो बोलें, परन्तु झूठ न बोलें।
हिन्दी साहित्य के स्कॉलर के रूप में उनकी पहचान इस गंभीर-क्रूर-प्रवंचना से संयुक्त राजनीति में यथावत रही, इसलिए भी की क्योंकि उन्होंने अपने जीवन की किसी भी अंश को स्वांत सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा के साथ मंगलानाम च कर्तारो के साथ जिया।
उनकी ही रचित नवीन कवित्त रचना, ध्यान से पढेंगे-गुनेंगे तो स्वतः ही भान होगा की यह ही तो जनार्दन द्विवेदी जी का कृतित्व और व्यक्तित्व है
“मित्र मेरे, बड़ी बेढब बात मेरी,
भला क्या औकात मेरी ।
उपवनों के परखी तुम,
जंगलों की जाति मेरी।
बन न पाएंगे तुम्हारी कल्पनाओं
के मुताबिक चित्र मेरे,
मित्र मेरे।
धैर्य धरती, मन पवन है,
अग्नि सा अंतर दहन है,
सिन्धु जैसा है हृदय तल,
दृष्टिपथ अपना गगन है।
क्या करूँ मैं, यदि हमेशा ही रहे हैं,
स्वप्न बहुत विचित्र मेरे, मित्र मेरे।
कुछ लुटेरे, कुछ भिखारी,
मिट रही है उर्ध्वगामी वृत्ति की पहचान न्यारी।
प्रश्न उठता है दिशा से, किसलिए संकल्प ढोयें,
सब विकल्पों के पुजारी।
इसलिए यह जानने से,
अब न कोई फर्क पड़ता,
कौन मित्र, अमित्र मेरे, मित्र मेरे।“
सर्वोच्च न्यायालय का हाल का विचार जो भी रहा हो, भारतीय समाज, संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली में कुछ विषयों से वो बिल्कुल भी इत्तफाक नहीं रखते, भले ही उसके लिए उनको पार्टी लाइन भी पार करनी हो तो वो उस पार भी गए, पर गलत को गलत कहने का उनका ज़ज्बा न कम था न आज, ज्यादा राजनैतिक सूझ-भुझ न होने पर भी इतना जरुर कह सकता हूँ की यह उस प्रतिभा के धनी है जो झुक नहीं सकती, भले ही उसके लिए इन्हें कुछ भी तो बलिदान करना हो।
सुना है, आपने कभी ऐसा साहसी, जो खुद सब कुछ छोड़ कर अपना गन्तव्य तय करता है, अपनी कुल की मर्यादा, अपनी पहचान का सौदागर न बनकर, कुछ-कुछ ऐसा एक प्रसंग और मिलता है- केएन गोविन्दाचार्य का. वे भी कुछ ऐसे ही ..... राजिव लोचन राम चले तजि बाप को राज बटाऊ की नाईं ...कर्तव्य पथ की ओर उन्मुख हो चले थे, संस्कार, सौम्यता, करुणा और त्याग-सिंहासन और सत्ता से भी बड़ा होता है यह आपने सिद्ध कर दिया।
सुलभा: पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिन:।
अप्रियस्य च पथस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ:।। – रामायण / युद्ध / 16.21
- हे राजा ! सदैव प्रिय भाषण करनेवाले सुलभ मिल जाते हैं, किंतु अप्रिय जो हितदायी हो ऐसा भाषण करनेवाले वक्ता एवं श्रोता, दोनों ही मिलना दुर्लभ होता है ।

“इसलिए मैं कहना चाहता हूं की यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। मैं तो यह भी चाहता हूं की जब जब लोगो को यह लगे की हमें रिटायर होना चाहिए, तो पदों की सीमा छोड़कर अगर कुछ लोग आएं और समाज व देश की बातें ईमानदारी से कहें, तो भी देश का बड़ा भला हो जाएगा।“
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