दुनिया से विपक्ष गायब



यह एक नैतिक लड़ाई है क्योंकि इसके मूल में यह लड़ाई है कि क्या नागरिकों को अपने लोकतंत्र में समान राजनीतिक अधिकार हैं।
It’s a moral fight because at its core it is a fight about whether citizens have equal political rights within their democracy.


सोचिये,  पूरी एक पीढ़ी खपने को तैयार है। आपकी या चाइना की भाषा नहीं,  अपनी खुद की गढ़ी भाषा में वे भारत के भगत सिंह सरीखे है, और एक-दो नहीं हजारों-लाखों युवा केवल मानवीय आज़ादी,  अपनी तथाकथित लोकतान्त्रिक मांगों को लेकर उतारू है।

सबसे बड़ा प्रश्न यह खड़ा होता है की ईरान में यह पैट्रोल के नौ रुपये से एक-आध रूपया बढ़ने से, इराक में राशन व्यवस्था खातिर,  चिली में भी शुरू तो मेट्रो के किराए बढ़ने से हुई थी, लेकिन यही विरोध-प्रदर्शन सरकार से कई नाराज़गियों और बढ़ती ग़ैरबराबरी सो होती, होती राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था आर्थिक असमानता विषय पर आ टिकी। को लेकर नए सुधारों की मांग के लिए,  दुनिया सुलग रहीं, है कुछ क्रांति सा।

बांग्लादेश में भारत के कारण प्याज, पाकिस्तान के कारण भारत में चीनी और भारत के कारण से पाकिस्तान में टमाटर अपने ऊँची महंगाई के कारण सबब है। इसी बीच मुहाजिर कौमी मूवमेंट के अल्ताफ़ की दरख़्वास्त अपने यहाँ आयी है की वे अब भारत की शरण में आना चाहते है, अबसे कुछ दिनों पहले उन्होंने .."सरे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा ट्वीट भी किया था।

पड़ौस में चीन समर्थित गोटाभाया के कारण भारत की चिन्ता बढ़ी है, हालांकि वे भी शेष दुनिया में आये बदलाव् की भांति ही, राष्ट्रवादी है। वैसे भी भारतीय इतिहास से वर्तमान तक श्रीलंका, भारत को परेशान करने को ही पैदा हुआ है, लगता ऐसा ही है।  दण्डकारण्य से लेकर श्रीपेरुदंबूर और बैंगलोर में रोमेश कालूवितर्णा से जयसूर्या तक, सब ऐसे-वैसे दंश ही तो है।

भारत-पाक मुद्दों पर, अपने बेतरतीब बयानों के कारण अपने देश की अर्थव्यवस्था को संकट में डाल महातिर मोहम्मद, वस्तुतः मलेशिया का ही नुकसान कर रहें है, कालापानी पर नेपाल का रुख भी वैसा सा ही। समझने की बात तब ज्यादा होती है, जब आप किसी और के बहकावे में आकर अपने सम्बन्ध ही ख़राब नहीं कर रहे अपितु देश-समाज को कमजोर कर, वैश्विक परिदृश्य में स्वयं को केवल कबीलाई साबित करने पर तुले हैं।

अमेरिका महाभियोग की भी चर्चा है, चर्चा ब्रेक्जीक्ट की भी है, कैटलोनिया हो या महाराष्ट्र बिना दो घुर विरोधियों के एक हुए बिना सत्ता, सरकार बनना संभव ही नहीं है, वो अलग बात है की एक उदारवादी तो दूसरा राष्ट्रवादी।

संकेतों की थोड़ी तांक-झांक करें तो समझ में आएगा की इन सब विद्रोह, असंतोष, आम जनता का इस तादाद में सड़कों पर आना क्यों हुआ?  साफ तौर पर आप देख सकेंगे की दुनिया से विपक्ष गायब सा हो गया है, सत्ता में आये राष्ट्रवाद के बाद, इस विरोध का नेतृत्व करने वाला कोई रहा ही नहीं,  क्योंकि भारत सहित सारी ही दुनिया में सत्ता से अलग हुआ, हुए दल की आदत में कम्फर्ट जॉन इतना हावी हो गया की उनको दिल्ली से मुम्बई जाने में भी पांच से दस दिन लगने लगे है।

स्पैन में जिस प्रकार का जनादेश मिला है, उसमें सब की अपनी अपनी ढपली है, अपना अपना राग, जो जिस इलाके की बात करता है, उसको वहां बहुमत। विपक्ष का यह अकाल ही पाकिस्तान में धरने-प्रदर्शन का कारण रहा है।

हांगकांग का युवा, अपनी लेविस ज़िंदगी में,  हस्तक्षेप से उद्वेलित हुआ, साधारण से मांग लेकर आगे आया जोशुआ वांग कब लोकतन्त्र की पहचान बन गया, यह सब तो दुनिया का अव्वल जासूस चायनीज़ भी नहीं समझ पाया।  राजनैतिक विश्लेषक हालांकि इस आन्दोलन का अन्त नज़दीक ही देख रहे हैं, उनका कहना है की हांगकांग की यह चिंगारी भी नब्बे के दशक के थ्येन आनमन चौक की तरह दफ़न कर दी जायेगी , पर दुनिया यह कब समझेगी, ये सरकार कब समझेगी की टैक्स पेयर यह जनादेश,  कब जन आन्दोलनों में बदलेगा, इस तह में वे क्यों नहीं जाना
चाहते?

हॉन्ग कॉन्ग में विवादित प्रत्यर्पण विधेयक के विरोध को समझे तो वहां का युवा कहता है की "ये कहना कि हम प्रदर्शन ना करें, ये कहने जैसे है कि हम सांस ना लें. मुझे लगता है कि लोकतंत्र के लिए लड़ना मेरा कर्तव्य है. शायद हम जीत जाएं, शायद हम हार जाएं, लेकिन हम लड़ेंगे। नेतृत्व जोशुआ वोंग तो और भी आगे जा रहे हैं  "प्रदर्शन करना और सड़कों पर इकट्ठा होना हॉन्ग कॉन्ग के लोगों का मौलिक अधिकार है।  लोग आगे भी सड़कों पर उतरेंगे और राष्ट्रपति शी जिनपिंग और बिजिंग से कहेंगे कि अब लोगों की आवाज़ सुनने का वक्त है."'एक देश-दो प्रणालियां' के तहत विशेष दर्जा रखने वाले हॉन्ग कॉन्ग में चीनी सेना सिर्फ़ तभी हस्तक्षेप कर सकती है जब हॉन्ग कॉन्ग की सरकार इसके लिए अनुरोध करे या फिर क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए और आपदा के समय सेना की ज़रूरत हो।

चीन ने हॉन्गकॉन्ग पर कहा है कि हमें पुलिस पर पूरा विश्वास है कि वो देश के माहौल को संभाल लेगें। लेकिन प्रवक्ता यांग गुआंग ने यह भी चेतावनी दी कि "जो लोग आग से खेलेंगे, वो इससे जलकर ख़त्म हो जाएंगे। "


जायज मांग का आपका आधार आपको मुबारक़, आप जब तक देश-काल-परिस्थति को जानेंगे तब तक आप केवल क़यास भर लगाएंगे, और तदनुसार अपनी राय भी कायम करेंगे। वकील खुद, जज भी और कानून की किताब भी अपने फ़ैसले के मुताबिक़ कुछ ऐसा सा ही हुआ न सब-कुछ।

चीन को देखने का आपका अपना दृष्टिकोण,  हांगकांग के युवा को सहमत करें, जरुरी तो नहीं?  उनको अब भी लगता है की वो चीन का हिस्सा बनाने पर भी अपनी स्वायत्तता की शर्त पर कायम रह सकते है, साम्राज्यवादी चीन उनको कुचलेगा नहीं?  सब संसय है पर नब्बे के दशक का थ्येन आन मान चौक का चीन तो अब तो पहले से ज्यादा ताकतवर है।

हांगकांग, खासकर इसी सप्ताह टेक्नीकल यूनिवेर्सिटी में उग्र हुए युवाओं के बहाने। विषय को अधिक सुस्पष्ट रूप से समझने हेतु, प्रसंगानुकूल केवल ऐश सेंटर फॉर डेमोक्रेटिक गवर्नेंस एंड इनोवेशन के निदेशक टोनी सैच और हार्वर्ड कैनेडी स्कूल में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के देवू प्रोफेसर केएक संवाद का हिन्दी भाषा में रूपान्तरण का प्रयास।

एक जिज्ञाषा के लेकर, प्रश्न के साथ की हांगकांग के लोग अपने विचारों, आकांक्षाओं, राजनीति और मुख्य भूमि चीन में रहने वाले लोगों से भिन्न हैं? वास्तव में वे किस लिए लड़ रहे हैं?

हांगकांग 150 वर्षों तक एक ब्रिटिश उपनिवेश था। यह एक लोकतंत्र नहीं था, वास्तव में, लेकिन इसमें बहुत अधिक स्वतंत्र, बहुत अधिक खुला समाज और वर्तमान की मुख्य भूमि की तुलना में उसका, अधिक अंतर्राष्ट्रीय जुड़ाव रहा है। एक अलग संस्कृति और एक अलग दृष्टिकोण को जीवंत किये हुए, जो विशिष्ट रूप से महानगरीय और अधिक रूप से खुला है । चीनी शहर पहले की तुलना में अधिक महानगरीय हों, लेकिन वे अभी भी वैश्विक रूप से तुलनात्मक रूप में अनुभवी नहीं हैं, जितना हांगकांग है। इसके अलावा नयी पीढ़ी, जिन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक को नहीं देखा, वो अधिक अधिक स्वायत्तता को देखत है। वे कई तरह से वैश्विक नागरिक हैं, और मुझे लगता है कि उन्हें डर है कि इसे बंद किया जा रहा है और तेजी से बीजिंग उन्हें तय करेगा कि वे क्या कर सकते हैं? और क्या नहीं? कुछ घटनाक्रम ऐसे हुए है, जिनसे चीन ने ऐसा महसूस कराया है कि उनकी स्वतंत्रता वास्तव में बहुत नाजुक और नियन्त्रण की परिधि में बंधी हैं। नयी पीढ़ी, मुख्य कार्यकारी अधिकारी कैरी लैम की तरह महसूस करती है की हांगकांग अब, अपने लोगों के हितों के बजाय बीजिंग के हितों का प्रतिनिधित्व करता है।

हांगकांग में युवाओं को काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह अविश्वसनीय रूप से महंगा हुआ है, और नौकरियों और मुश्किल। रहने को घर मुश्किल है। अपने माता-पिता के साथ छोटे अपार्टमेंट में रहना पड़ता है क्योंकि यह बहुत महंगा है। निराशावाद की इस हवा में अनेक पहलु है, जो युवाओं को यह सब करने को मजबूर कर रहा है। और बहुत सारे युवा लोगों की इसमें जल्दीबाज़ी सी है, निराशा को बाहर निकालने का अवसर सा है, यह सब। वे कुछ सम्भावनाये तलाश रहे हैं की श्यादा अबकी कुछ कुछ समाधान हो जाएँ। प्रत्यर्पण संधि के इर्द-गिर्द से उपजा यह सवाल, अब कठिन हो चला है। दिलचस्प यह भी है कि इतने व्यापक पैमाने पर, असाधारण संख्या में लोग आगे आयें हैं, और साथ ही लोगों की एक विस्तृत श्रृंखला भी है।

(मूल अंग्रेजी-  How do you think Hong Kongers differ in their thoughts, aspirations, politics, and values from those living in mainland China? What exactly are they fighting for?

SAICH: I think there are different starting points for that. Above all, Hong Kong was a British colony for 150 years. It wasn’t a democracy, admittedly, but it had a much freer, much more open society and more international engagement than the mainland until recently, and I think that produced a different culture and a different approach, which is distinctly cosmopolitan, distinctly open. And even though Chinese cities are much more cosmopolitan than they used to be, they are still not very experienced globally in the way that Hong Kong is. In addition, some of the younger people growing up don’t remember the period of the British colonial authority, but they have been promised this greater autonomy. They are in many ways global citizens, and I think they fear that is being closed down and that increasingly Beijing will dictate to them what they can and cannot do. Events such as the kidnapping of the booksellers and others being taken across the border has made them feel like those freedoms are actually very fragile. They also feel like the chief executive, Carrie Lam, really represents Beijing’s interests rather than the interests of the people of Hong Kong.

Young people face a lot of challenges in Hong Kong. It’s incredibly expensive, and jobs are difficult to come by. Finding housing is also very difficult; many people still have to live with their parents in small apartments because it’s so expensive otherwise. All that contributes to this air of pessimism that some of the young people tend to have. And like a lot of young people, when there is an avenue to vent your frustrations, you are likely to follow it. So this question around the extradition treaty provided that vehicle for frustrations to be vented. But what’s interesting is it has been an extraordinary number of people, and a very wide range of people as well. - Tony Saich, director of the Ash Center for Democratic Governance and Innovation and Daewoo Professor of International Affairs at Harvard Kennedy School.)



पिछले हफ़्ते जनाब भारत थे तो मिठाईयां खा रहे थे,  बड़े अदब से पेश भी आएं,  सब वो जो उनके व्यापारिक हित में था,  पर वो भी हुआ जो भारत के हित में था। पर जब नेपाल पहुंचे, तो उनकी जुबान फिसली नहीं, यह ड्रैगन का अपना तरीका रहा है। और उसके बाद ही तो काला पानी आया।

वैश्विक मीडिया में फिर से कैटलोनिया आया है,  हम देश-दुनिया को कम जानते ही नहीं,  कोशिस भी नहीं करते। ये सब घटनाएँ आगाह करती है की सही नेतृत्व हो,  उसमें राजनीति का पुट न हो तो जनता साथ भी आती है,  जन-आन्दोलन का स्वरुप भी बनता-जाता है।

भारत के परिप्रेक्ष्य में 2013-14 का काल खण्ड कुछ वैसा सा ही था। पर क्या भविष्य में ऐसा सब होने पर,  सुघटित,  अहिंसक,  जन-आन्दोलन फिर होने पर वह पुनश्च दिशा दे पाएंगे?  कोई विपक्ष से वह केन्द्र-बिन्दु उभर पायेगा जो सरकार-समाज सत्ता को नेतृत्व दे पायेगा? जेपी हो की अन्ना उम्र के उस पड़ाव में भी उनकी विश्वसनीयत ही तो थी की देश उठ खड़ा हुआ। हालांकि दोनों की तुलना नहीं की जा सकती, परिस्थिति की भी और व्यक्तित्व की भी। उस आंशिक क्रान्ति के बाद के परिवर्तन से से उद्भूत सत्ता, सत्ता के केन्द्र से सहमति भी, उनकी या इनकी नहीं रहीं, है।

मैं यह समझता हूँ की अब इस दिशा में भी काम होना जरुरी है की जब मजबूत विपक्ष,  देश के मुद्दों को समझने-परखने और तदनुरूप आचरण-बयां करने  करने को असली ज़ामा देना शुरू करें, बजाय इसके की अगले पचास साल फलां पार्टी, दल की सरकार ही होने, रहने वाली है सो केवल अखबारी बयां, या दाल-बदलू से नज़र आएं।  आप नहीं समझते यह जरुरी है? जनता कब-किस को नकार दें, उसकी स्वीकार्यता-अस्वीकार्यता में बदल जाए इसका कोई अंदाज़ा तो नहीं होता। हमारे सामने ही राजनैतिक उद्धरण है, पिछले विधानसभा में जब इसी जनता ने मजबूत-केद्र को किनारे कर दिया,  राजस्थान-मध्यप्रदेश में करीबी मुकाबला हो तो भी छत्तीसगढ़, छत्तीसग्रह सा साबित हुआ,  और कोई शांति-अनुष्ठान सफल नहीं हुआ। अभी-अभी हरियाणा जाता-जाता रहा, और सत्ता की चाह में छोटा-बड़ा भाई आप कुछ भी माने, उनके साथ जा बैठा, जो कल तक केवल परस्पर एक दूसरे के लिए घृणास्पद भर थे।

सामाजिक स्तर पर अप्रेल की घटनाक्रम का अन्दाज़ा भी कुछ वैसा सा ही था,  सरकार सब-कुछ तन्त्र के जरिये ही करें तो फिर जनता उसको नकारने में चुकती नहीं। सबरीमाला का मुद्दा भी कुछ वैसा ही स्थानीय-राज्य सरकार की खैर नहीं,  कोच्चि में लाखों की संख्या में महिलाओं का मार्च-मानव शृंखला तय कर चुकी थी की अब  सोचिए जो आन्दोलन महिला अधिकार के नाम पर था,  प्रोपेगंडा बनाया,  उसको नकारने वाला तबका महिलाओं का ही था। कानूनन अब महिलाओं को सबरीमाला में जाने का हक़ है, पर इसे दुःशाहस मानने के कारण, आस्था को ध्यान में रख ही तो महिलाएं वहां जाने उद्दत नहीं,  कोई भी नहीं है जो उनको रोक रहा ?

कश्मीर को लेकर कुछ लोग दोहरा जीवन जी रहें है, उनका तर्क है की धारा 370 हटने-हटाने में उनकी असहमति नहीं,  फ़र्क़ केवल तरीके का है, जो केन्द्र सरकार ने अपनाया है। दबे हुए नहीं,  पूर्णतः उभार के साथ विपक्ष के बड़े नेताओं का बयान खुद इसकी पुष्टि करता है। आपसी सहमति,  अभी तक विपक्षी दलों में इस बात को लेकर भी नहीं बनी है की उनके अपने दल-विचारधारा का कोई एक तर्क क्या रहें?

कोई जन-आन्दोलन देश भर में नहीं हुआ,  कोई बड़ा धरना-प्रदर्शन जैसा भी कुछ नहीं,  इस बार तो कोई विरोध-स्वरुप अवार्ड-वापसी करता भी नज़र नहीं आया,  मतलब साफ़ है की सब मौन सहमति है। पर चूँकि इसमें भी दोनों तरफ ही वोट की राजनीति है तो कोई केवल मौन और कोई और मुख़र,  प्रधानमन्त्री तो हरियाणा में विपक्ष को धारा 370 को पुनः लागु करने का मुद्दा,  चुनाव घोषणा पत्र में डालने से कहने को भी नहीं चुकें।

कश्मीर को ही लें तो जम्मू में कोई विरोध नहीं है,  लद्दाख में जश्न सा माहौल है,  शेष रहा घाटी का इलाका, वहां भी देखें तो कुल-मिलाकर वहीं परिवार के लोग जो सत्ता में अब तक काबिज रहें, पिछले दिनों में यकायक केवल एक दिन रात्रि का मीडिया का प्राइम-टाइम,  तो दूरसंचार की पोस्ट-पेड सेवा बहाली के बाद गिरफ़्तार महिलाओं को आप बड़ी ही आसानी से पहचान जाएंगे।
आम इंसान, मैं नहीं कहता की खुश है या दुःखी?  पर उसे फ़िक्र अपनी गुजर-बसर की है, जिसका इस धारा -हटने से कोई वास्ता है, नहीं। उल्टा अख़बारों के शीर्ष पंक्तिया,  जिसमें राजस्थान के एक मुस्लिम ट्रक-ड्राइवर की हत्या कश्मीर के सेव-बागान में की गयी,  चरमपंथियों के इस कृत्य से सेब-उत्पादक वह किसान सबसे ज्यादा आहत होगा,  भला यह सब चलेगा तो कौन अगला होगा? जो उस सेब को अपनी ज़िन्दगी पर खेलते हुए बाज़ार तक पहुँचा, कश्मीर के किसान की आर्थिक मदद को आगे आएगा?

यह न तो जम्हूरियत का आन्दोलन है,  न आम जनता का ही,  सब केवल प्रायोजित सा आईपीएल जैसा सा है,  जिसका ड्रेस कोड से लेकर,  गाना-बजाना-रंग सब पहले से नियत होता है,  देखिये, ज़रा ग़ौर फ़रमाइये सब अपने आप समझने लगेंगे।

कैटलोनिया की आज़ादी का आन्दोलन,  कल के उस फ़ैसले के बाद फ़िर गति लेने लगा, जिसमे पिछली साल आज़ादी की मांग को लेकर हुए प्रदर्शन के दौरान गिरफ़्तार लोगो लो कड़ी सज़ा देने का निर्णय हुआ।

The “Be Water” nature of Hong Kong’s protests—fluid, flexible, and fast-moving—has taken on a new form half way across the world in Catalonia: as a tsunami.

कैटालोनिया, स्पेन का समुन्नत क्षेत्र, जिसके उत्तर में फ्रांस, दक्षिण में वालैंशिया प्रदेश, पूरब में भूमध्यसागर एवं पश्चिम में ऐरागाँन का प्रदेश है। यहाँ का राजनैतिक संघटन कैटलन नेशनल असेंबली है जिसका उद्देश्य कानून, लोकतांत्रिक और सामाजिक राज्य की स्थापना के साथ कैटलोनिया की स्वतंत्रता प्राप्त करना है। वैसे दुनिया में इसकी अपने और प्रसिद्धि भी है, फुटबॉल फैंस के लिए बार्सिलोना बहुत परिचित नाम है और यहाँ की क्लब बार्सिलोना एफसी से प्रतिबन्ध से मुक्त होकर, अपने परम्परागत प्रतिद्वंदी को हारने वाले लायनेल मेसी जुड़े हैं।

“Dictatorships like the Chinese and the resurging Spanish one do not tolerate dissidence or even cultural difference,” he said. “Thus, what the Hong Kong and the Catalan challenges to authoritarian regimes have in common is their value as symptoms for the growing impatience of peoples around the world with political systems that sacrifice the rights of minorities for the sake of expanding their power.” (Source: https://qz.com/1728078/be-water-catalonia-protesters-learn-from-hong-kong/)

धार्मिक संगठन जमीयत-उल-इस्लाम (जेयूआई-एफ़) का आज़ादी मार्च भी पाकिस्तान में विपक्ष की नाकामियों की फेरहिस्त का हो नतीज़ा कहेंगे।

अपने यहाँ भी दो यूनिवर्सिटीज़ में क्रान्ति का कुछ ….है, जेएनयू में हॉस्टल फीस तो बीएचयू में संस्कृत विभाग में मुस्लिम शिक्षक को लेकर और उत्तराखण्ड में आयुर्वेद पढ़ रहें छात्र भी तो फीस को लेकर ही प्रदर्शन-धरने में हैं।

अब इन मुद्दे पर देश का युवा साथ क्यों नहीं होता? एक तो इनके अपने ही विषय होते है, जिसको लेकर ये सजग और आहत अपनी इच्छा के मुताबिक़ होते है। दूसरा, इनमें अपना एक एलिटनेस है, बाकी सब विद्यार्थियों, रिसर्च स्कोलरों के ये दकियानूसी, डफर भर मानते है, मानों आधुनिकतावाद, उदारवाद और शोध को लेकर ये ही सब कुछ हो। तीसरा, ये अपनी विचारधारा को लेकर इतना संकीर्ण है, की वहां सब अच्छा ही अच्छा, अँधेरा भी सही, भले ही वो रोशनी को रोकता हो। अन्य विचारधारा में कुछ भी अच्छाई इनको नज़र ही नहीं आती, और डिंग ये लोग अन्टोलरेन्स, अनटचेबिलिटी की हांकते है। विद्यार्थीकाल में संकुचन न हो, उसका दायरा विस्तृत हो, यही तो कवीन्द्र-रवीन्द्र कहते है-

"मन जहां डर से परे है
और सिर जहां ऊंचा है;
ज्ञान जहां मुक्त  है;
और जहां दुनिया को
संकीर्ण घरेलू दीवारों से
छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा नहीं गया है;
जहां शब्द  सच की गहराइयों से निकलते हैं;
जहां थकी हुई प्रयासरत बांहें
त्रुटि हीनता की तलाश में हैं;
जहां कारण की स्पतष्टइ धारा है
जो सुनसान रेतीले मृत आदत के
वीराने में अपना रास्ताद खो नहीं चुकी है;
जहां मन हमेशा व्यासपक होते विचार और सक्रियता में
तुम्हानरे जरिए आगे चलता है
और आजादी के स्वेर्ग में पहुंच जाता है
ओ पिता
मेरे देश को जागृत बनाओ"
"गीतांजलि"
- रवीन्द्रनाथ टैगोर

सोचिये, इतना उन्नत-विश्वविद्यालय, उत्कृष्टतम-शिक्षक, प्रकृति की उपत्यका, और अथाह-भण्डार की तरह पुस्तकालय, फिर भी देश को तमाम अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा और शिक्षाविद देने वाला, वाले ये विश्वविद्यालय किसी भी छोटे-बड़े सामाजिक आन्दोलनों से दूर क्यों है?

क्यों? नब्बे के दशक के बाद कोई ऐसा राजनैतिक नेतृत्व उभर कर सामने नहीं आया जो देश को दिशा दे, युवाओं को सहभागी बना सकें, जनता का दिल जीत संसद तक बात रखने की जिजीविषा दिखा सकें। आप कुछ नाम लेंगे, लेकिन वे केवल, उनका दायरा भी देख लीजिये। बाकी अन्य, जो नाम आपके मन-मस्तिष्क में है, वे उनके विचारों की तह में भी आप जा सकते है।

मार्क्सवाद का उन्नत अध्येता, येचुरी-कारत के बाद क्यों नहीं उभरा? उतना दृढ-प्रतिज्ञ न सहीं, इर्द-गिर्द तो कोई नज़र आता। भिन्न विचार रखने वाला भी जब, इनको सुनता है तो सोचने को मजबूर हो जाता है, एक बार के लिए ही सही, पर! वह उहापोह की स्थिति में आ जाता है, क्यों? यही तो साधना है, ज्ञान की, अपने विचार के प्रति निष्ठा की।

दिल्ली विश्वविद्यालय से निकलें जेटली, और डॉ. राकेश सिन्हा के बाद इधर भी एकदम से शून्य सा कैसा है?  डॉ. हर्षवर्द्धन, निर्मला सीतारमण और किञ्चित उद्धरण भर ही तो है।

प्रो. जनार्दन द्विवेदी, जो तीन दशक तक कांग्रेस के रणनीतिकार रहें, वैसा सब है, कहाँ? अब तो सुविधाओं का विस्तार हुआ है, आपके लिए अपर संभावनाओं के द्वार भी खुलें है, फिर यह स्यापा क्यों? अपना देश क्रान्ति को तैयार कभी होता ही नहीं, सही कह सकते है की हमें इसकी जरुरत ही क्या है, सहने के कारण ही शायद यह देश सहिष्णु था, कहलाया।

बाकी एकता और अखण्डता, संविधान में स्वर्णाक्षरों में लिखे शब्द है, राज्यसभा की 250 वीं कार्यवाही हो या आगामी 26  नवम्बर को संविधान दिवस जैसा -विशेष अधिवेशन, सब बाहरी है,अन्दर जो कुछ है वो सबके सामने है। क्यों? किसलिए दिखावे और ढोंग की इस राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था को नकारने का जज्बा आता नहीं, जरुरत क्या है?

भारत के 700 साल के संघर्ष को समझाने वाले, अंग्रेजियत के ही तो पहरुपिये है, मानों अब भी इस देश में आपको यह भाषा नहीं आती हो तो आप गंवार हो, नाक़ाबिल भी। तमिल, तेलुगु, ओड़िया आपके लिए क्षेत्रीय भर और कामकाज की भाषा नहीं हो सकती, क्यों? क्योंकि देश का एलिटनेस भी तय करने का जिम्मा मुग़ल-अंग्रेज इनको ही पुश्तैनी रूप से दे गए थे। सही मानिये कोचिंग में जा रहा, यह युवा सन्त्रस्त है। उसकी फ़िक्र आजकल घरवालें भी नहीं करते, वो अपनी मोबाईल-दुनिया में ही रमा है, बस। घरवालें केवल उसकी रोजमर्रा की जरुरत को पूरा करने को ही है, बाकी सब जज़्बात केवल नाटक है। नाटक, थियेटर और अपना बुद्धू-बक्सा भी आजकल, कई दिनों तक बन्द ही रहता है, एक महाशय के घर पहुँचा। उनसे थोड़ा महाराष्ट्र के बारे में जानना चाहा तो पहले मोबाइल पर, पर उसकी भी बैट्री डिस हो चुकी थी, वो भी बेचारा पावर बैंक पर गुजर-बसर कर रहा था। अब वो ढूढ़ने चले टीवी का रिमोट, पुरे घर में हड़कम्प मच गया, हाथ कुछ नहीं आया। तभी बाहर से बैण्ड की आवाज आयी..... यह देश है वीर जवानों का, ये देश है, अलबेलों का मस्तानों का इस देश का यारों ... होय!! इस देश का यारों क्या कहना।

इसी फिल्म का कोई यह गाना, कोई अब क्यों नहीं सुनाता?
साथी हाथ बढ़ाना, साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जायेगा मिल कर बोझ उठाना
साथी हाथ बढ़ाना ...

तेल का शहंशाह ईरान, यहाँ पेट्रोल का राशन तय किए जाने और दाम बढ़ाने के सरकारी फ़ैसले के ख़िलाफ़ लोग सड़कों पर उतर आए हैं, और यह अब तक राजधानी तेहरान से निकल कर, करमंशाह, इस्फ़ाहान, तबरीज़, कराद्ज, शिराज़, यज़्द, बूशेहर और सरी जैसे शहर तक प्रभाव कायम किये हैं।

सद्दाम हुसैन के बाद से अब तक राजनैतिक एकरूपता को ताकता इराक अब और भी अराजक नज़र आ रहा है। व्यवस्था से थके वे लोग अब सिर्फ़ इस्तीफ़ा नहीं चाहते हैं, पूरी व्यवस्था को बदलना चाहते है। भ्रष्टाचार या बेरोज़गारी और मंहगाई के कारण हालात इस क़दर ख़राब हो गए हैं कि लोग सड़कों पर उतरकर सुरक्षाकर्मियों की गोली खाने के लिए भी तैयार हैं।

तुर्की की दिलचस्पी कश्मीर में है, पर अपने खुद के मानवाधिकार उसको कम याद रहते है, या नज़रअंदाज़ करने की उसकी आदत सी हो गयी है। भारत कुर्द मिलीशिया को आज़ादी के नायक कहने लगे बस, जिनके ख़िलाफ़ उन्होंने आक्रामक अभियान चलाया हुआ है।

लेबनान की राजधानी बेरूत में जिसें व्हाट्सएप आंदोलन कहा जा रहा है वो केवल उसके टैक्स से सी नहीं, बल्कि उसके आगे हर चीज़,  ईंधन, खाने, ब्रेड समेत तंबाकू, पेट्रोल को लेकर भी तो है, हालांकि नए टैक्स को तुरंत रद्द कर दिया गया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। अब आन्दोलन की मांग और दायरा दोनों ही बढ़ चले हैं।

दुनिया के सबसे साहसी और विश्वास योग्य- कुर्द।  जिन्होंने हर एक मोर्चे पर लोगो को दुनिया जितायी है पर खुद ही अपनी जमीं की तलाश में है, कुछ ईरान में कुछ इराक में, कुछ सीरिया, यमन और यहाँ वहां बिखरे ज्यादा है। इराक़ के उत्तर पश्चिम में एक स्वायत्त राज्य होने को है, पर तुर्की के दक्षिण पूर्व में यह स्वायत्तता की मांग, तो वहीं, सीरिया के उत्तर-पूर्व में इनका अपना शासन हैं, ईरान के उत्तर पश्चिम में भी कुर्द हैं, पर अब भी वे अपने कुर्दिस्तान को मोहताज़ है।

कुर्दिस्तान को लेकर आज सबसे बड़ी लड़ाई सीरिया-तुर्की की सीमा पर मौजूद पीवाईडी और वाईपीजी संगठनों ने छेड़ी हुई है क्योंकि तुर्की में इस समय दो करोड़ कुर्द लोग रहते हैं। तुर्की पीकेके की ही तरह पीवाईडी और वाईपीजी को अपना दुश्मन मानता है, आईएस के ख़िलाफ़ सीरियन डेमोक्रेटिक फ़ॉर्सेज़ (एसडीएफ़) ने अमरीका के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी। एसडीएफ़ में कुर्द और अरब लड़ाके समूह हैं। इन्हीं में से एक वाईपीजी अमरीकी फ़ौज का साथी रहा है, लेकिन अब अमरीका ने उत्तर-पूर्व सीरिया से जाने की घोषणा कर दी है। और कुर्द फिर तकते ही रह गए।

सीरिया को ही ले तो यह दुनिया में फ़िलहाल जंग का मैदान है, तमाम नए हथियार रूस के हो या की अमेरिका के यहाँ परिक्षण को आ रहे है। अमेरिका की यहाँ चली नहीं तो वो यह कहते हुए यहाँ से हट चूका है की वह आईएस के ख़िलाफ़ लड़ाई जीत चुका है। उसकी वजह से अब तक पीवाईडी और दूसरे संगठनों को सुरक्षा हासिल थी, लेकिन उनके चले जाने के बाद तुर्की आराम से वाईपीजी का सफ़ाया कर सकता है।

इराक़ के कुर्द सबसे ताक़तवर हैं, क्योंकि उनके पास बहुत पैसा है, साथ ही उनको इराक़ी सरकार ने स्वायत्त क्षेत्र का दर्जा दिया हुआ है। जो तेल भंडार हैं और बिज़नेस का केंद्र है। पश्चिमी देशों की मदद से सद्दाम हुसैन के वक़्त में ही उन्हें काफ़ी स्वायत्तता मिल गई थी। यहाँ के कुर्द नेताओं से इतर इराक़ का आम तुर्क इन संगठनों की मदद करना चाहता है। इन लोगों के राजनीतिक मतभेद हैं क्योंकि सीरिया, तुर्की के कुर्द संगठन मार्क्सवादी हैं, और इराक़ी कुर्दिस्तान के संगठन मार्क्सवादी नहीं, ऐसे में यह सोचना की सब एक साथ आ जाएंगे ऐसा होना फ़िलहाल मुश्किल है।

यमन की अपनी अशान्ति है, संयुक्त अरब अमीरात सात अमीरात का फेडरेशन है। यमन में जो लोग इन क्षेत्रों से लड़ने गए, ज्यादातर फुजैहरा से लोग रहें, ये लोग गरीब और पिछड़े हैं। उनके काफी लोग वहां हताहत हुए और ये जंग वहां काफी अलोकप्रिय हो गई। दुबई के शासक शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम ने अबू धाबी के क्राउन प्रिंस को चेतावनी दी कि सऊदी अरब के अंदर हवाई अड्डे और दूसरे ठिकानों पर हूती जो बमबारी कर रहे हैं, अगर एक दो मिसाइल या बम दुबई में दाग दिए तो यहां का पूरा कबाड़ा हो जाएगा।  तब जाकर कुछ उनको अहसास होता है जो दूसरे के घर के छत पर पटाखे छोड़ मजे लेते है। हक़ीक़त में यह अदन का यह क्षेत्र दुबई, सऊदी अरब और ईरान की प्रभुसत्ता के भेंट चढ़ा है, पर अब चूँकि शिया हूती विद्रोही खुद समृद्ध और कुछ हद तक समझदार हो चलें है तो इन सबको चिन्ता होने लगी है।  दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी आरामको में हुए ड्रोन हमले इन्ही सब का नतीज़ा है।

दक्षिण एशिया की और चले तो इंडोनेशिया शादी से पहले सेक्स, लिव-इन रिश्ते में रहने, राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, धर्म, सरकारी संस्थाओं और राष्ट्रीय प्रतीकों जैसे राष्ट्रीय ध्वज या राष्ट्रगान का अपमान के अलावा गर्भपात कराने पर सज़ा को लेकर असन्तोष गहराया है। राष्ट्रपति जोको विडोडो ने विधेयक पर और विचार किए जाने की ज़रूरत है, कहते हुए टाला है, पर तनाव कायम हैं। इण्डोनेशिया में इस्लामीकरण के खिलाफ छात्रों के संघर्ष को बाकी देशों के छात्रों का भी समर्थन-सहयोग मिल रहा है।

इंडोनेशिया के समीप प्रशांत महासागर क्षेत्र में स्थित स्वतंत्र राष्ट्र पापुआ न्यू गिनी के आंदोलनों ने 'परिवर्तन की आवश्यकता' को प्रदर्शित किया है। पापुआ के छात्रों-नागरिकों का संघर्ष लगातार जारी है, छात्रों के इस संघर्ष में कई मांगों में एक पापुआ के सैन्यीकरण को बंद करने व वहां के संघर्ष में गिरफ्तार कैदियों की रिहाई भी है। इसी तरह एक मांग मजदूर विरोधी लेबर बिल के प्रावधानों को हटाने की भी है, मुद्दा नस्लीय भेदभाव और भ्रष्टाचार उन्मूलन भी है।

चालू सत्र में भारत की संसद में एनआरसी की बात आनी है,  गैर मुस्लिम की बात उसमें उल्लिखित होगी ऐसी आशंका है। विशेषज्ञों को और सत्तारूढ़ दल की मंशा को समझे तो, उनके तर्क साफ़ है की इसमें गैर-मुस्लिम का विशेषोल्लेख होना चाहिए क्योंकि बांग्लादेश हो की पाकिस्तान दोनों की जगह मुस्लिम की तादाद बहुतायत में होने से,  वहां का अल्पसंख्यक समाज प्रताड़ित किया गया, लिहाज़ा मानवीय पक्ष से उनको नागरिक अधिकारों और तत्क्षम मान्यता दी जा रहीं है।  आप प्रश्न यह आता है की शेष इतने बड़े जन-समूह को लेकर क्या रणनीति हो सकती है। भारत से अलग अगर यूरोप की और रुख करें, तो पाकिस्तान के मुद्दे पर भारत को अक्सर परेशान करने वाला तुर्की, इस मसाइल पर समाधान देता नज़र आ रहा है।

तुर्की ने उन कथित विदेशी लोगों को जिनके तार इस्लामिक स्टेट समूह से जुड़े हुए थे, वापस उनके देशों में भेजना शुरू कर दिया है। भले ही कुछ यूरोपीय देश अपने नागरिकों को वापस लेने को लेकर अनिच्छुक हैं। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त के अनुसार अगर अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मानकों के अनुसार मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता तो विदेशी नागरिकों को उनके अपने अपने देशों में वापस भेजा जाना चाहिए, और अगर कोई विदेशी नागरिक किसी अन्य देश में गंभीर अपराध करने का अभियुक्त या किसी अन्य मामले में हिरासत में लिया जाता है तो उसकी ज़िम्मेदारी लेना उस नागरिक के अपने देश की होगी। अंतरारष्ट्रीय क़ानून के तहत, अगर किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे देश की नागरिकता न अपनाई हो, तो उसे उसकी नागरिकता से वंचित करना गैरक़ानूनी है।

हालांकि यह कुछ अपराध आदि मुद्दों से शुमार है, पर नागरिकता से वञ्चित करने का किसी भी कानून या देश को हक़ नहीं, जबकि उसकी मूल नागरिकता उस देश से जुड़ी हो।

बेरूत में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन कार्यकर्ताओं  को राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने और सेना के मनोबल को कम करने जैसे अस्पष्ट आरोपों में हिरासत में लिया गया है। अरबी में हिराक के रूप में जाना जाने वाला एक विरोध आंदोलन, जिसको असंतुष्ट लोकतंत्र के एक नए युग की शुरुआत के रूप में देखते है, अल्जीरिया में अगले महीने चुनाव के बाद तक ही इस देश का, जनता का भविष्य और मन्तव्य तय होगा, फिलहाल का तनाव शंकित करने वाला है।

बोलीविया में व्यापक स्तर पर प्रदर्शनों के बाद वहां का राजनैतिक संकट गहरा गया है, बड़े राजनेता जहाँ मेक्सिको में शरण लेने को मजबूर हो गए थे और अब भी ये प्रदर्शन जारी हैं। कोचाबम्बा शहर में कोका उपजाने वाले किसान और पुलिस तथा सेना के जवानों के बीच हिंसक वारदाते जारी है।

ब्रिटेन में ब्रेक्सिट को लेकर मचे सियासी घमासान के बीच आम चुनाव तक यह आशा कर सकते है की यह कोई जनाक्रोश नहीं बन पायेगा। जनता से इतर राजनैतिक दलों में देखें तो परस्पर विरोध है, असन्तोष का यह रूप पार्टियों में आन्तरिक रूप से और भी मुखर है।

फ्रांस की राजधानी पेरिस से लेकर छोटे क़स्बों तक येलो वेस्ट या येलो जैकेट मूवमेंट, जिसमें हिस्सा लेने वालों ने पीले रंग के वो जैकेट पहने हुए थे, जिन्हें सुरक्षा के लिहाज़ से पहना जाता है। पेट्रोल और डीज़ल पर लगे टैक्स लगाने में सरकार का मक़सद था, कि बिजली से चलने वाली गाड़ियों को प्रमोट किया जाए।  पर यह आंदोलन के तात्कालिक कारण हो सकते है, पर मूल में तो वो सरकारी नीतियां भी हैं, जो अमीर और ग़रीब के बीच की खाई को और गहरी करती जा रही हैं।

इक्वाडोर में महंगे पेट्रोल-डीजल के खिलाफ प्रदर्शन थम गया है, पर राजधानी क्वीटो इस बात को लेकर अनजान थी की सब्सिडी खत्म होने के कारण सड़कों पर इतने लोग उतर आएंगे। पर हाँ फिलहाल की शान्ति से अब वो भविष्य को लेकर आश्वस्त नहीं है, जनता का यह रुक निसंदेह सरकार को और गम्भीर होने का संकेत दे चूका है।

वेनेजुएला की एक परियोजना में गबन को लेकर पोर्ट-ऑ-प्रिंस में प्रदर्शन के दौरान के बाद की मौते और भ्रष्टाचार की जांच में विफल रहने पर राष्ट्रपति के इस्तीफे की मांग और उग्र हो चुकी है। पेट्रोकारिबे परियोजना से उपजा विवाद इतने सब विषयों को समेटेगा, यह जनता की अपनी जागरूकता ही थी।

कजाकिस्तान में चुनाव नतीजों के बाद, अलमाती में हुए प्रदर्शन की वीडियो बना रहे एक पत्रकार की पुलिस ने पिटाई कर दी। यह घटना, जनता को यह बताने को काफी थी की मतदान अनियमितताओं द्वारा प्रभावित थे।

जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार ने मौजूदा समय में बोलिविया, चिली, हॉंगकॉंग, इक्वाडोर, मिस्र, गिनी, हेती, इराक, लेबनान, होंडुरस, निकरागुआ, मलावी, रूस, सूडान, जिम्बाब्वे, फ्रांस, स्पेन और ब्रिटेन में प्रदर्शन को गम्भीरता से लिया है। विरोध प्रदर्शन आर्थिक मुद्दों जैसे बढ़ती महंगाई, लगातार कायम सामाजिक असमानता और ऐसे वित्तीय तंत्र की वजह से हुए हैं जिसमें सिर्फ कुलीन वर्ग को ही फायदा, राजनीतिक मांगें हैं। जिसमें जनमत एक ऐसी व्यवस्था चाहती हैं, जिसमें सभी के लिए समान सामाजिक, आर्थिक और वित्तीय प्रणाली हो और जो सभी के लिए काम करे। वे अपने मानवाधिकारों का सम्मान चाहते हैं और उनके जीवन पर प्रभाव डालने वाले फैसलों में अपनी आवाज सुनना चाहते हैं।

पर, अब सात साल के बाद मुम्बई मूल के दुनिया के आला सम्पादक, विचारक डॉ. फ़रीद ज़कारिया को 2012 में दिए हार्वर्ड में दिए उनके भाषण को पुनर्विलोकन को कह सकते है। उन्होंने तक की परिस्थिति के मद्देनज़र कहा था की -

I want to sketch out for you, perhaps with a little bit of historical context, the world as I see it.
इसलिए, मैं आपके लिए स्केच करना चाहता हूं, शायद थोड़ा सा ऐतिहासिक संदर्भ, दुनिया जैसा कि मैं देख रहा हूं।


The world we live in is, first of all, at peace — profoundly at peace. The richest countries of the world are not in geopolitical competition with one another, fighting wars, proxy wars, or even engaging in arms races or “cold wars.” This is a historical rarity. You would have to go back hundreds of years to find a similar period of great power peace. I know that you watch a bomb going off in Afghanistan or hear of a terror plot in this country and think we live in dangerous times. But here is the data. The number of people who have died as a result of war, civil war, and, yes, terrorism, is down 50 percent this decade from the 1990s. It is down 75 percent from the preceding five decades, the decades of the Cold War, and it is, of course, down 99 percent from the decade before that, which is World War II. Steven Pinker says that we are living in the most peaceful times in human history, and he must be right because he is a Harvard professor.

हम जिस दुनिया में रहते हैं, सबसे पहले, शांति से - गहराई से शांति से। दुनिया के सबसे धनी देश एक दूसरे के साथ भूराजनीतिक प्रतिस्पर्धा में नहीं हैं, युद्ध लड़ रहे हैं, छद्म युद्ध कर रहे हैं, या यहाँ तक कि हथियारों की दौड़ या "ठंडे युद्धों" में उलझे हुए हैं। यह एक ऐतिहासिक दुर्लभता है। महान शक्ति शांति की एक समान अवधि खोजने के लिए आपको सैकड़ों साल पीछे जाना होगा। मुझे पता है कि आप अफगानिस्तान में बम गिराते हुए देखते हैं या इस देश में आतंकी साजिश के बारे में सुनते हैं और सोचते हैं कि हम खतरनाक समय में रहते हैं। लेकिन यहाँ डेटा है। युद्ध, गृहयुद्ध, और हां, आतंकवाद के परिणामस्वरूप मरने वालों की संख्या 1990 के दशक से इस दशक में 50 प्रतिशत कम है। शीतयुद्ध के पहले के पांच दशकों के दशकों के मुकाबले यह 75 प्रतिशत कम है, और निश्चित रूप से यह उस दशक से 99 प्रतिशत नीचे है, जो द्वितीय विश्व युद्ध है। स्टीवन पिंकर कहते हैं कि हम मानव इतिहास में सबसे शांतिपूर्ण समय में रह रहे हैं, और उन्हें सही होना चाहिए क्योंकि वह हार्वर्ड के प्रोफेसर हैं।

अन्ततः, केवल इतना ही की विपक्ष हो तो जनता को इस ओर रुख नहीं करना होगा। अभी दिल्ली के सांसद को लेकर पोस्टर राजधानी में थे, कोई पोस्टर भारत में और राज्यों में विपक्ष को लेकर भी लगना चाहिए। आज की ही खबर को लें तो पेट्रोल बुजुर्ग की आयु ले चूका है, पर कोई ट्वीट या न ट्विस्ट। आजकल भारत में कुछ विशेषज्ञ राजनैतिक दलों ने हायर कर रखे है, जो यह बता सके की केन्द्र या राज्य सरकारों को किन मुद्दों पर घेरा जाएँ, जब राजनीति आम जनता तक न पहुंचे, जमीनी हक़ीक़त वे नहीं जान पाएंगे और फिर ये कृत्रिम मुद्दे केवल जलवायु परिवर्तन पर अंतराष्ट्रीय चिंता की माफ़िक़ ही तो नज़र आएंगे।


संसद अब चलेगी, पर विषय केवल विवाद है, विवादों के विषय है, सलाम।


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