हकीकत अवाम


नये शब्द जितने पिछले दो दशक में प्रचलित हुए है, शायद उतने पिछली सहस्त्राब्दी में भी नई बने-गढ़े गए होंगे।


अब रोमिंग के बाद क्वा-क्वारन्टाईन भी ऐसा ही है। तो इस दौर में योग-संयोग से हर कोई अपने आपको निठल्ला-बेबस, अन्यमनस्क सा बताता, जताता है, भलें ही दिन में कई बार पकवान और जायकेदार खाना नसीब हो तो भी, अपने सूबें में तो एक बड़ा प्रचलन में मज़ाक है कि काश! हम भी सरकारी क्वारन्टाईन में होते, फल-मक्खन-और पता नहीं क्या-क्या सब नसीब होते, हाँ अगर आप शाकाहारी है तो निसंदेह विकल्प सीमित होंगे ही।

इस मज़ाक से याद आया कि कल एक “भाईसाब” का पोस्ट बड़ा ही ज्ञानवर्धक था, लिखा कि इस लोकडाउन में घर रहते अपने परिवार को लव-जेहाद से ताक़ीद कीजिये, ख़ासकर उनका ध्यानाकर्षण लड़कियों की ओर था। वे कह रहे थे कि लड़कियों को इस वक्त, इसके लाभ-हानि बताते हुए तार्किक संवेदना को बढ़ाये। उन्हें सावचेत करे कि यह रास्ता अंततः दर्दनाक है, आपका और समाज का अस्तित्व कालान्तर में इससे दुर्दशा, संकट में आ जायेगा।

मैं!, उनकी इस कल्पना भर से सिहर गया, मन भी बड़ा कुंद-कुंद सा हो गया, रात के तीसरे प्रहर तक कुछ विचलित सा, की हमारा समाज तो पूरा ही सह-शिक्षा की ओर उन्मुख है, अन्य संप्रदायों की तरह हमारे यहां तो कोई तालीम-मिशनरी जैसा भी कोई सक्रिय अस्तित्व नहीं, एकल होते- होते….. नानी-दादी को बहुत पहले छोड़ दिया।

ऐसा वर्तमान-भूतकाल कहा-बताया जा रहा हैं की मानों देवालय केवल में हर कोई ही आसाराम-रामरहीम-चिन्मयानन्द ही है, इनमें से कोई भी तो परम्परा से भारतीय संप्रदायाचार्य नहीं है तो भी, सब। और कोई भी मन्नत-मुराद, केवल वहां जाकर ही जैसे कोई अप्रतिम प्रतिभा निखर आती है तो कोई एआर रहमान निकल आता है।

ऐसा नहीं है, सब मतों की अपनी गरिमा-महिमा है, हाँ कभी-कभी नब्बे के दशक में ख़ासकर शुक्रवार को भारतीय खिलाडियों को नक्कारा देख लगता था की कोई प्रभुसत्ता अव्वल है, पर जबसे गांगुली-सहवाग-रोहित-धोनी सब उभरें तो लगा हाँ कोई प्रभुसत्ता  अव्वल है, जीहाँ वहीँ जो आपकी मूल है, जिसमें आपकी पीढ़ियां रही-पाली-बढ़ी-खपी।

अपने-अपने विश्वास को दृढ़ कीजिये-रखियें और दूसरों पर छींटाकशी के अतिरिक्त। अच्छे हाथों में हो तो चर्च हो की मस्जिद-दरगाह और मन्दिर-मठ-चैत्यालय-बौद्ध विहार-गुरुद्वारा यही की- मज़हब नहीं सिखाता की आपस में बैर रखना, यह भी दीगर बात हैं कालांतर में इसको लिखने वाले का ही इस पर मुक़्क़मल-ईमान नहीं रहा, वही अपने अल्लाम्मा इक़बाल का। गिरगिट से बदल गयें और उस साजिश में शरीक हो गये जिसनें दो देश ही नहीं दिए, अपितु दुनिया को आतंकवाद के पनाह का अनचाहा अड्डा दे दिया।

विज्ञान को चुनौती देने वाला वेटिकन, केवल विज्ञान के ही आसरे हैं, पर जिसकों आपने दान-दौलत-सोने चांदी का स्थान बताया वे देवालय अब भी धार्मिक-नैतिक और उतने ही सामाजिक हैं जितने जब-कब उनको होना चाहिए, भारत में इनका राजमर्रा राजनीती-अर्थनीति और समाजनीति में हस्तक्षेप कभी नहीं रहा है, यह भी सर्वविदित है, बाकी को लें तो।

मेरे अपने हिस्से का भारत, वो जो कर रहा है, अपने मज़हब के लिए नहीं कर रहा, राजनीती में वो है तो भी वर्तमान की राजनीती के ककहरे से विमुख, इसीलिए योग्यता के बाद भी दर किनार है। हुसैन सुल्तानिया का अपना मज़हब फ़िलहाल, मुल्क़-अवाम और उसकी अपनी इन्सानियत है।

सबके अपने ढंग है, मसले यह नहीं, अपने हिस्सें-हिस्सें को कोई-हरकोई करता भी है खाता भी, पर हो सक्षम है, वे केवल खुद का संरक्षित कर दूसरे की हिस्से का खा रहें हैं तो पाप ही तो खा रहें हैं कुमा रहे है, इसमें वे भी शामिल है, जो दूसरे की मज़बूरी का फायदा उठा उसका शोषण करते है, जिसमें वर्तमान के तथाकथित वो भी शामिल है जो आलू का दाम बढ़ाने में अव्वल हैं।

अपनी पीड़ा को थोड़ी देर, न समाधान देख लेपटॉप को खोला पर वहां भी मन नहीं लगा, बन्द करते-करते पास की हार्ड-डिस्क से यकायक चाणक्य शुरू कर दिया, सूर्योदय होते-होते आँखों में नींद आ चुकी थी।

वे जनाब जो गुर सिखाने की बात कह रहे थे, उनके ख़ुद की बड़ी बेटी इसी लव-जिहाद से वाकिफ़ हो रही है, और उनके शहजादे भी और छोटी बेटी भी, सोचता हूं, एक अनुभवी “भाईसाब” अगर कह-लिख रहें है तो इससे ज्यादा आनुभाविक क्या हो सकता है,
वो दुःखी है?
राष्टवादी है?
ताक़ीद कर रहें है?
कि पीड़ा जगज़ाहिर कर रहें हैं?
यह तो केवल वो ही जानते है, हाँ इसी तरह उनकी तीन बच्चों की हकीकत अवाम को पता नहीं, मजे की बात तीनों ही बच्चे अपने अपनी-अपनी सौगात के साथ क्वारन्टाईन में हैं।

कुछ आप समझिये, कुछ इसी बहाने अपनी सन्तति को समझाइये, इससे बेहतर साथ रहने, समझने-समझाने का कोई समय हो नहीं सकता, और हां कोई पुराने उदाहरण मत दीजिए, वेबजह असहिष्णुता फैलती है, साम्प्रदायिक दूरियां बढ़ती है, केवल वर्तमान दिखाइये, अख़बार-न्यूज चैनल।


वर्तमान से बेहतर कोई और समय-साक्षेप, साम्प्रतिक, समकालीन कोई और हो ही नहीं सकता। सच मैं इन “भाईसाब” को धन्यवाद, आप भी सोचें, सोचना मना थोड़ी है, आप नहीं करेंगे तो, पर तो कतरे ही जायेंगे।

क्या यह सच है? कि
"काफ़िले बस्ते गयें, हिन्दोस्तां बनता गया।"

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