पृथ्वी, वो चिरप्यासी ..... रह गयी

अब वो मुझसे ज्यादा डरने लगे है, रोज सुबह वो कमरे में आते है मुझे जगाने, नहीं ऐसा नही हैं, केवल धड़कन देखने। मैंने तो कुछ कहा या बताया नहीं पर आजकल उनको ज्यादा ही आशंका में देख मैं भी अधिक चिन्तित सा हूँ। मैं यकायक छोड़ चला जाऊंगा, यह केवल एक पक्ष है, पर यह अर्द्धसत्य हो ऐसा भी नहीं।

जाने की जल्दी में तो मैं भी नहीं, पर सबका अपना-अपना वक़्त होता ही है। चला तो तेज़ ही था मैं, पर हां दौड़ नहीं पाया, मुझे दौड़ना था, पर नहिं हो पाया यह सब।

मुझे नाराज़ होने का हक़ था, उनको नहीं। उनको केवल मैनें मनाने भर का हक़ दिया, बार-बार, हर बार। मैं शर्ते भी बहुत लगाता रहा, पर वे उसमें भी केवल रजामंदी ही देते थे। मानो मैं कोई बोझ हूँ और वो केवल मजदूरों की तरह से कुछ।

यह तो नहीं कि सब मनमर्ज़ी सा खुदगर्ज सा मैं। अपनी आवश्यकताओं को संकोच में बदला, बड़े ख़्वाबों को टुकड़े टुकड़े में बदलता गया, उनको पूरा करने में दिन-रात को भूलता रहा, बस। छोटी-छोटी सीढ़ियों को चढ़ता मैं, पीछे देखता रहा कोई आने को आतुर दिखा, तो उसे भी मौका देता गया। कई ऊपर जाने की जल्दी में साथ छोड़ गए, कई इस यायावर से परेशान हो लौट चलें, कुछ ने गिराने की कोशिस न कि हो ऐसा भी तो नहीं रहा। सफ़र है तो, पगडण्डी भी होगी, कंकड़ भी प्यास भी, धूप-पानी-बर्फ सब।

कल का भरोषा वो करें जो जल्दी सोयें हो जो कल को भी साथ ले चलें, उनको तो केवल चलना ही है, इस और कि उस और, फ़र्क़ नहीं पड़ता।
मैंनें क्यो किया यह सब। मैं सब जानतां था यही सब कहेंगे। पर ऐसा नहीं था, पर आगे चढ़ते-चढ़ते मुझे अहसास भी नहीं था, सब नहीं हैं। 

मेरें यह सब करने से पीढियां सोचने लग जायेगी, समाज में बदलाव की बयार में वे भी वैसे ही बह जाएंगे, यहीं न सब। मैं नहीं, तुम तो बिल्कुल भी नहीं, फिर अपने आप अवतरित हो कोई उनको-,मुझे सीख दे जाएगा, कितना किंकर्तव्यविमूढ़ होना बाकी है, अभी और।

किसी को कोई भी निष्ठा नहीं है, न कोई यह फ़लसफ़ा की कुछ दिया तो आभारी मुद्रा हो, ना केवल अहसान जताने की मुद्रा में है, पूरी पीढ़ी। फिर भी जंग न सही, खेल में ही सही हार-जीत की बाज़ी तो लड़नी होगी। तेरी हार मेरी हार, तेरी जीत मेरी जीत…… यही तो गाते थे बचपन से, अब यह सब क्यों बदलने का हिसाब-किताब का वक़्त आ गया। एक फेरहिस्त क्या किया, न किया कि तलपट सी, मानो ज़िन्दगी केवल हिसाबों में ही कैद है, और उधारी की ताक़ीद में ही मैं-तुम लगे रहें, वक़्त केवल इसी फ़िक़्र में, उलझाएं है।

न वो शाम है, न सुबह। बड़े हो गए हम, छोटे थे तो अच्छे थे। अब कोई केवल इसलिए नहीं कहता कि नाराज़ हो जाएंगे, या टालो, यह टालने में ही तो वक़्त गुजरता गया और हम, हम हो गए, मैं की यह सत्ता स्वाभाविक आचरण को चट कर गई।

गुजरना वाक़ई वक़्त को था, हम गुजर जाने को आतुर हो चलें, क्या जीवन केवल क़िरदार भर है, बीतने पर टीश दे जायेगा, आज यह सब जाने की बातेंकेवल लिखने की हिम्मत भर आज की है, चलता तो यह सब से रहा हैं।

वो सब, हर कोई मुझे बेहद चाहते हैं, मैं निश्चित रूप से निष्ठुर दूर भागता गया, छोटे से बड़े सब से। क्या कुछ पाने की जिद्द थी, उनको हमेशा यह लगा, पर कुछ भी ऐसा था नहीं जो गौण, अदृश्य या छूपा था। जीवन खुलें पन्ने सी ही रहीं, सब कुछ दिखाई देता रहें, अब खुले कागज़ उड़ने तो थे, अब-आज उड़ चलें।



वीरान से रात, अब तो दिन-शाम ही ऐसी है, कोई वायरस से सबको सहमा-सहमा कर, केवल घर जो बैठा दिया, जो निकल लौट न पाया, मौत का अबसे खतरनाक मंज़र काल्पनिक कहानियों में भी नहीं पढ़ा।

सोचता हूँ, केवल आंख ही सोती-रोती है! पर ना जहान-आसमां-मंज़िल और रास्ते सब इस दौर से गुजरने होते है, लौटा कोई नहीं, आशा फिर आहट जिसकी बदौलत दुनिया को चलना होता है, जो गया-लौटा कोई नहीं। पीछे की पीर-पड़ाई भी उसको पता नहीं होता, क्योंकि वह ख़ुद भी तो केवल शून्य हो चल बसा।

फ़िक़्र क्या है फिर? यह केवल अध्यात्म और दर्शन के  बातूनी जुमलें है, अपने पर गुजरने, खुद से खोने में यह अज्ञान-ज्ञान में तब्दील हो जाता है, नासदीय भाव तो यही है, बाकी बतोरे तो बहुतेरे हैं।

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ||
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ||
अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः, स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन, कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।

गति अब सपनें में नहीं चरम पर है, अनन्त आकाश, तीव्र वायु, तपिस में अग्नि, आकाश में केवल नीरवता क्योंकि जितने भी तारे-सितारे लौट चुके है, चन्द्रमा अस्ताचल को है और रही पृथ्वी वो चिरप्यासी सी रह गयी, केवल वही है जो विरही सी बोझ को ढोती रही कोई आस के बिना केवल दुआ देती रहीं, पर निष्ठुर उसको भी गौण कर गया।

क्या मिला इस सब से। पर कैसे बताऊँ, इतना सब कुछ तो मिला था, बचपन से ही तो। फिर क्या था जिसको पाने की जद्दोजहद में लगता, यह-सब गौरख-धंधे की चक्कलस में जाना ही नहीं थासो जल्द ही मुक्त हो गया, नही!

कुछ अतृप्त सा था नहीं जीवन में जो कहा नहीं गया हो, बिल्कुल सारी विवेचना के बाद का है, अकिंचन से था जो कुछ दे नहीं पाया यह जरूर सार हैं, अभागा नहीं हूं पर अब सबको अभागा कर चला, माफी तो उसे मिलें न जो भूलवश सब कर जाएं, पर जानते-बुझते करें तो, उसके लिए सजा, सजी हो, पर मैं चला, तो सजा अधूरी रह गई, फिर लौट आएंगे, इस सज़ा का भी तय अपना मज़ा है।

उम्र लम्बी होती तो ओर दुखी करता, तनाव देता, पर अल्प-उम्र का भी अपना एक जीना है, नियति का यह एक पहलू भी तो अनूठा है।

कुछ उधार भी बाकी है, थोड़ा कुछ सा-जो लौटाने का आलस भर रहा, मंशा ख़राब नहीं थी, अपने खातिर नहीं मेरें ख़ातिर वो जरूर बतायेंगे, अगर तनिक भी वे अपना मान ख़्याल करते हैं।

कितनो को जाने दिया, कितने ही थे जिनको रोका नहीं, कुछ को खुद से जाने को भी कहा, यह जाने की अपनी मजबूरियां होंगी, मैं दो-तरफा नहीं होना चाहता, रखता।

वक़्त केवल बढ़ गया, जप-पूजा से, नहीं तो पहले ही मियाद पूरी हो चली थी, कुछ और तपिस देने वाला सूरज भर ही तो बना, इससे। प्रकृति-प्रवृत्ति हैं, सब जिसके पास जो अर्जन-स्वभाव है, वही तो देगा, शीतलता की आशा, उससे जो उस ओर जाने की जहमत न उठाने के लायक ही नहीं था, आप नालायक शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहते तो।

पता यह भी रखता हूँ कि सहन करना इतना आसान नहीं होगा पर निष्ठुर जो ठहरा वैसे जानता तो हर कोई था ही अहसास आपस मे करवाये या नहीं, कुंडली मे जो लिखा था, हां विद्यायोग की अल्पता को अपने संघर्ष से बदल पाने में सफल हो पाया, पर कितने अल्प योग को पूरा करता, और वैसे भी शास्त्र और विधि के विधान को मान हानि-लाभ सहिए, जांहि विधि राखें.....।

मेरी ओर से किसी से भी माफ़ी नहीं मांगनी, मैंनें कुछ ऐसा किया भी न हैं छोड़ा भी नहीं, मेरी तलपट में ज्यादा कुछ ऐसा रहा भी नहीं सब कुछ आर-पार भर।

रागी-विरागी ये शब्दकोश के अक्षर भर है, मैंने जो जिया, जिसके साथ जुड़ा, गया, रहा सब जगह ही मेरा आदान-प्रदान, आचार-विचार व्यवहार का पक्ष, कौटुम्बिक ही था, रहा। दोहरे जीवन को नहीं जिया, जानबूझकर, अनजाने का जिक्र भी जरूरी था, बाकी सर्वज्ञ हूँ नहीं।

हाँ, अतृप्त-तृप्त कोई भी लालसा का जीवन नहीं जिया हैं, मैनें, जो समझा, किया, करनी में कोई कमी नहीं कि अपने पुरुषार्थ को जकड़न में नहीं रखा, स्वच्छन्द जीवन भी नहीं जिया, मितभासी-मधुरभाषी नहीं था तो भी अपनी लीक को बनाया, उस पर चला भी। चपल बचपन से था पर चापलूस नहीं बना, निष्ठाएं केवल अपनी विरासत के प्रति ही रही, बाकी सब खोखले नज़र आये तो विश्वास अपने आप बना ही नहीं।

आज यह सोचा है कि कल से जल्दी सोऊंगा, ताकि सुबह जल्दी उठ पाऊं......

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