इतना कौन पढता हैं?

अरुणाचल हो या लद्दाख, वहां उनको पहचान का संकट है!!!
शेष भारत के लोग वहां परमिट से जाएंगे, उन्हें वहां सम्पत्ति खरीदने का अधिकार नहीं, पर जो चीन आगे बढ़ रहा है, वो तो उनके अस्तित्व को ही खत्म कर देगा।

देश में यह आवाजाही, रहने-बसने की आज़ादी से ही सब समाधान होंगे, गुजरात-महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, हिमाचल, ओडिशा सब कहीं की संस्कृतियाँ इससे ही तरक्की का हिस्सा तो हुई, कौनसा राज्य हैं जहाँ गरबा-गणपति-पौंगल-भांगड़ा और दुर्गा पूजा नहीं?
जगन्नाथ यात्रायें नई नहीं है,  वो तो अब भी बांग्लादेश हो या पाकिस्तान, नेपाल भी। अब भी वैसी ही है, नहीं? 

जगन्नाथ यात्रा को सुचारु चालू रखने का सुप्रीम कोर्ट का ताज़ातरीन फैसला भी एक भारतीय की आस्था को सम्बल था, मीडिया जिसें मुस्लिम कहकर टीआरपी लेना चाहती है, पर अतीत और इतिहास तो बदलता नहीं, वर्तमान में कोई भी मजबूरियां, भय-लोभ रहा हो तो भी। 

असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय और अन्यान्य उत्तर-पूर्व के राज्यों को उनसे इतर भारत के भागों से आये नागरिकों के बसने की आपत्ति स्थानीय नागरिकों की नहीं हैं। उनको तो इससे रोजगार के अवसर ही मिले हैं, उत्तर पूर्व में विस्तीर्ण मारवाड़ी समाज का योगदान कोई भी अर्थव्यवस्था का मॉडल लेना चाहेगा, स्कुल-कॉलेज-हॉस्पिटल-धर्मशाला-जलआपूर्ति, के अतिरिक्त दान-धर्म-पुण्य कर्म में निरन्तर रत रहा सनातन भारत का यह नागरिक, कब क्षेत्रीय आडम्बरों में बंधा?

इस तमाम उपक्रमों-उपकर्मों में पला-बढ़ा-आगे आकर नेतृत्व के लायक स्थानीय नागरिक समाज बना ही?  अब यह कहें की इनको बाहर निकालों, तो वो भी देख लीजिये, पुरे देश में कोरोना से उद्भूत बेरोजगारी-भूख-बीमारी से निजात दिलाने में केवल सरकार सफल हो सकती थी?

अब तो यह सवाल ही नहीं, क्योंकी सरकार का किया, तो दश फीसदी भी नहीं था, वो बीस लाख करोड़! 
इतना ही था न?
शेष नब्बे फीसदी इसी समाज ने किया, फिर संस्कृतियों को खतरा किससे है?
इसे समझे कौन?
सरकार भी अब, पहले की बजाय कूपमण्डूता की मुद्रा में आने लगी है। नहीं तो अनुच्छेद 370 ख़त्म, करने के बाद जम्मू-कश्मीर में डोमिसाइल दैत्य को क्यों पैदा किया?
क्यों लद्दाख में बसने की शेष भारत की तमन्ना को शिशु-मौत देदी?
पर वहां, भी पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य के नागरिकों को छूट?
लदाख की संस्कृति को हिमाचल या उत्तराखण्ड से खतरा हैं?

तो गल्फ कंट्रीज़ में कमाई से नवधनाढ्य हुए कारगिल के लोगों से आप अपनी कर्मस्थली-धर्मस्थली को बचा सकेंगे?
वैसे भी लेह में आनुपातिक जनसंख्या, सब बयां ही कर रहीं हैं, और गर्म देशों के लोग चाहे वो दक्षिण हो या पश्चिम, वो तो आपकी ढंडक को एक सप्ताह ही नहीं झेल पाते, उन्हें वहां पहुँचने के बाद एक दिन तो हाई लेटीट्यूट शब्द ही उच्चारण में नहीं आता।   

उत्तर-पूर्व में पहले चकमा, अभी हाल के रोहिंग्या को किसने प्रवेश दिया। मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड में केवल केन्द्र का अधिपत्य है? स्थानीय सरकारें कत्तई जिम्मेदार नहीं, त्रिपुरा-मेघालय-बंगाल का रास्ता उनका कौन आसान कर रहा था, असम उनका किला और जम्मू-कश्मीर उनका सैरगाह ऐसे ही बन गया?
कौनसी सरकार थी, जिसने उनको नागरिकता देदी?

भारत के लोगों के नाम पर कश्मीरी अवाम को डराने वाली सरकारें रोहिंग्या को बसने में बड़ी जल्दी दिखाती है, क्योंकि वहां उनको घुसपैठियें भी उनको धार्मिक के साथ ही वोटर नज़र आते हैं, कौन बिचारा?
पर 370 का नाम आते ही उनको छींके आने लग जाती है, तो एलर्जी का इलाज़ होगा, स्थाई ही?

सरकार को सीमाई इलाकों में बस्तियाँ बसानी होगी, इजराईल की सीमा केवल तभी तो बची रहीं। गलवान घाटी में धीरे-धीरे कम हुई जनसंख्या, नेपाल के बॉर्डर पर भी कुछ वैसा सा ही यही जम्मू की सीमाई कठुआ, राजौरी, पूंछ सबमें कालान्तर सीमा अतिक्रमण में आसान कर गया, जब लोग न होंगे तो कौन सूचना देगा?

कठुआ के केवल भौगोलिक सकेन्द्रण को देख लीजिये, सच-षड्यंत्र सब अपने आप समझ जाएंगे, कोई तर्क जरुरत नहीं। घटना को मैं नहीं नकारता, पर उसको अंज़ाम शातिर ने नहीं दिया, इसको मैं कभी असत्य नहीं कहूंगा, यह मेरा इक़बालिया बयां मानिये, वहाँ भी गया हूँ और बकरवालों से भी मिला हूँ। सब जगह सत्य को अँधेरे में और झूंठ को उजालें में दिखाया, परोसा गया था, बस।

दूध का धुला भी किसे कहूं, भारत तो सब जगह ही विस्मित हैं, अपने ही लोगो से, मातृभूरियम-पितृभूरियम यह सब केवल दैनिक प्रार्थना भर का हिस्सा है, देश  सब किस्सा सा हो जाएगा? या आपकी कल्पना का गणराज्य,  संयुक्त राज्य भारत हैं। जहाँ अमेरिका सरीख़ी दोहरी नागरिकता होगी, देश प्रान्तों में बंटा, क्षेत्रवाद ही सर्वस्व???

केन्द्र की इसी सरकार ने मणिपुर में भी अब परमिट लेकर जाने का फ़रमान लागू कर दिया, समय सीमा की दृष्टि से अपना कार्यकाल पूरा करते अरुणाचल प्रदेश-मिजोरम-नागालैंड और उत्तराखण्ड-हिमाचल के पर्वतीय हिस्सों में परमिट को लगातार किया है।
वहां भारत को बसने की आज़ादी नहीं, सोचता हूँ की 1947 में कौनसी स्वतन्त्रता मिली थी?
और 370 के खत्म होने के बाद कौनसे कानून खत्म हुए थे?
मैं, अपने देश में परदेशी सा, पासपोर्ट नहीं पर वीजा सरीखा भी मुझे देश में घूमने के लिए चाहिए?

गलवान घाटी के हिस्सें में जाने का मौका मिला था, साल 2018 में भारतीय युवा संसद के लेह सत्र के दौरान, पर परमिट तो लेना ही पड़ा, वो अलग बात हैं की अनुग्रह स्वरुप यात्रा होने से सहस्त्र-काश्यापर्ण प्रति व्यक्ति खर्च नहीं हुए।

मैं तो नहीं गया, जम्मू-कश्मीर बैंक से अमरनाथ की रसीद सबसे महत्वपूर्ण थी ही?
इस बार यात्रा नहीं हुई, तो वो ही लोग सूबे और मज़लिस की सरकार को गुहार लगा रहे हैं, ज़नाब वज़ीरे दाख़िला से भी दरख़्वास्त भी वे ही लोग कर रहे है, वो ही जो एकरंगा झण्डा बुलन्द कर पाकिस्तान की....... करते हैं। खुद भूखा-नंगा पड़ौसी इनकी फ़िक्र में, फ़ौरी और अमली तौर पर पाकिस्तान की......पिछले साथ दशक से करवा ही तो रहा हैं।

सोचता हूँ की चीन के भरोसे भारत से द्वेष रखते, नेपाल-पाक का देश-संस्कृति के रूप में इतिहास क्या रहेगा? 
नाकनक्श बदलते नागरिक अब इन देशों में आम होते जा रहे हैं, भारत के सीमाई क्षेत्र में कुछ लोगो को नेपाली सेना की ड्रेस में चीनी लोग नज़र आयें, पर वे सब ये ही तो हैं?
कहाँ हैं अब मलाला?
जब दुनिया भर में पाकिस्तानी लड़कियों के चीन माइग्रेंट हो जाने की रिपोर्ट अब आम हो चुकी है?
कहाँ हैं? वैश्विक मानवाधिकार आयोग….
दुनिया में धर्म का अमला सऊदी अरब?
अब क्यों नहीं बोलते वे?
सब गोलमाल है, ऐसा सा लगता है?     
फ़िलहाल, अपने देश लौटते हैं, शायद गिलगित के हिस्से का भारत हम देख पायें सो थोड़ा उधर चला गया। अपनी संस्कृति के नाम पर युवाओं को बार-बार आन्दोलन को प्रेरित करती इस घिनौनी राजनीती ने भारत को बार-बार, हरबार ताक पर रखा हैं।
कोई धर्म की फ़िक्र में हैं, कोई क्षेत्र-भाषा-संस्कृति-जाति तो कोई विचारधारा के संघर्ष में युवाओं में खुनी क्रान्ति को जज्बा-जूनून वगैरह-वगैरह के उत्तेजित नाम देता है, जब सीमा नहीं बचेगी, तो बाकी सब तो चीन हो ही जाएगा, हांगकांग और तिब्बत तो अभी अपने सामने ही बदले हैं।

कौनसी भाषा? कौनसा पहनावा? केवल एकरूप समाज? उसमे आज़ादी की बात पर ही सजा, पर बिगड़े भारत को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मायने भी कौन बताएं?
राज्यों को अपनी ही पड़ी है, तो केंद्र उनको सहयोग क्यों दें? केंद्र - राज्यों के इस समन्वय के अभाव में केंद्र-राज्य सूची के इस तात्कालिक विवाद का असर अब कई दशक देखेंगे, जब जनसंख्या असंतुलन से उद्भूत सरकारें गठित होने लगेगी…..

बहुत से साथी कहते हैं की बहुत लम्बा लिखते हो, फेसबुक पर इतना कौन पढता हैं?
मैं केवल अपने लिए लिखता हूँ, हाँ कुछ बाकी लोग भी थोड़ा-कुछ जानलें, इसलिए सार्वजनिक मञ्च पर जोख़िम होने पर भी सरेआम, शाश्वत भाव से सबके सम्मुख होता हूँ। वैसे सत्य को अनेक पहलू है, अनेक, क्योंकि उसमें निरन्तरता है, वो अक्षुण्ण है.........   

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