अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण-०१) सप्ताहान्त- श्रृंखला

सप्ताहान्त-शृंखला

नोट:- शीर्षक को पढ़, तुरंत प्रतिक्रियावादी न बनें।


अब आप सोच रहें हैं जो जुमला सबसे अन्त में होता है, वो सबसे पहले देकर आप क्या जताना चाहते है? श्रीमान ऐसा कुछ नहीं केवल, एक ताकीद करना भर है की जिंदगी में केवल रूढ़ अर्थों को ही असलियत मत मानों।

अस्तु, आगे बढ़ते हैं नहीं तो इस में ही अंधेरा हो जाएगा और शाम की बातें, जुबान से कागज़ पर उतर नहीं पाएगी। यूँ तो ऐसा लोकडाउन किसी के साथ कभी भी पहला ही है, तो भी सबके अपने तजुर्बे भी और कथकहिं भी। पूरा समय देखें तो ब्रह्मचर्य से गृहस्थ, और वानप्रस्थ तक तो आ ही गया। बैठे-बैठे सोचा क्यों? न अब जयपुर को देखा जाएँ, वह जयपुर जो अछूत है। कहने को हम उस नगर के वासी हैं जहाँ बहुत कुछ है। पर सब अनछुआ, अछूत जैसा ही।

साप्ताहिकी की इस श्रृंखला में पहला मुकाम था, जयपुर का दक्षिण-पश्चिम का कोना, नगर से दूर-उपनगर और उस उपनगर के उस पार देहात-गाँव और सड़कों के जाल में विकास के नए पैमाने गढ़ता सेज़ का इलाका।

कभी शाहिद मिर्ज़ा जी ने राजस्थान पत्रिका में जब यह सब शुरू हुआ था तो लिखा था था "शूली ऊपर सेज़ पिया की", कभी मीरा अन्तर्द्वन्द्व में थी, कौनसा सुख? और यहीं किसानों की उपजाऊ जमीन पर यह अट्टालिकाओं के विकास की तामीर लिखी गई थी, जयपुर के दक्षिण-पश्चिम को लें या दक्षिण को जहाँ हज़ हॉउस को लेकर भी किसान ही त्रस्त हुआ, हुआ कुछ नहीं, सब राजनीति के चक्कलस भर, बस बन नेस्ताबूद हो चलें।

हरियाली के प्रयोग तो देखें, अब तक पढ़ें आंकड़ों की तहक़ीक़ात करने लगा, सब मस्टरोल में कैद भर हो गए, पर उपजाऊ जमीन का दुःख तो सामने था ही।

मदाऊ और नेवटा के तालाब भी कुछ दिन में तहसील के कागज़ो में सिमटा दिए जाएंगे, गोचर जमीन पर प्लाट कट ही चुके हैं, कुछ सिवाय चक के नाम की जमीन तो है पर वहां भी नींव के ऊपर दीवारें हैं कहीं किसी को ठगा गया है तो कोई कुछ ठग बने बैठें हैं, सब्जबाग ऑफिसे भी हैं, पर उनका नाम ही साफ-साफ दिख रहा है, बाकी उनके भी खिड़की-दरवाजे और चौखट नदारद ही हैं।

फार्म हाउसों के बीच कुछ होटल्स भी है, जो नए कल्चर के अध्ययन केन्द्र है, नाम चाहे जो आप दें दे रेव-सोशल और कैफे सब कुछ सहीं। जयसिंघपुरा से नेवटा, मदाऊ, मुहाना सब किसी शहरी संस्कृति के उस अमावस्या के हिस्से में हैं जो अछूत ही रहते तो अच्छा था, पर अब तो सब हाज़िर-रूबरू था।

यह केवल सही हो, ऐसा नहीं पर समाजशास्त्री कहते हैं की –“जिस हिस्सें में शराब-कबाब-अण्डे सरेआम हो जाये वो अपराध का नया केन्द्र होता है, मेरा बोलना था की साथी बोल पड़ें, “सब यह ही यहाँ हैं, अब तो हर कोई इस थाने में आने को आतुर है।“

यहाँ से दौ सौ -तीन सौ किलोमीटर दूर कोई भलमानस थानेदार भी तो इन्हीं से मानसिक रूप से दुःखीमना हो वो कर बैठता है जिसकी कुहुक कोई अनाथ पीड़ा सी ताउम्र भोगेगा। सुना है, अब उस थाने में कोई भी स्टाफ नहीं रहना चाहते, एक ऐसी दरख़्वास्त सोश्यल मीडिया में आम है, पर यह खबर अच्छी है कि अब उस मामलें की जांच सीबीआई से जांच हो रही है।

इसी इलाके में कोई इजरायली नागरिक जो अपने आपको कृषि-वैज्ञानिक कहता था, एक तस्दीक में उसके डुप्लेक्स फ्लैट में दुनिया के तमाम नशे के नवांकुर नहीं, कई सालों से चल-पल-बढ़ रहें, पौधों की कारगुजारी भी लोकडाउन की बड़ी खबर रहीं, बाद में वह सब नील बट्टे सन्नाटा में तब्दील हो गयी तो भी। देख लीजिये न, क्या सब, यहाँ नहीं हैं, अनुसन्धान !! भी, पता नहीं क्या दिख जाएँ, राजस्थान पर्यटन के पुराने आकर्षित नारे की तरह।

अर्थव्यवस्था, समाज के बाद इतिहास भी थोड़ा।

मुग़ल अकबर कभी इन्हीं रास्तों से अजमेर गुजरा था, इतिहास पढ़ने के बाद भी यह सब अछूत था, पर चौड़े राजमार्गों के बीच ईंट-गारे से चुने, अपने तरह से रचे-गढ़े स्थापत्य के नमूने मेरे सामान्य ज्ञान को कहने को काफी थे,

सवाल था ....... " वाकई आपने ये माईलस्टोन पहले नहीं देखें?

मैंने कहा नहीं, उधर से फिर सवाल- "सच"!

सोचिये कैसा समाज है, जिसको मनु की मूर्ति से इत्तेफाक नहीं हैं उनमे जातीयता दिखाई देती है, पर महाराणा प्रताप की जमीं पर इन शिलालेखों को बचाने की इतनी जुगत शिद्दत से शासन कर लेते हैं, चुप्पी से न चूकते हुए सा, यह भी एक नया अनुभव था।

मीरा, “सूली ऊपर सेज हमारी, किस विध सोना होय” के बाद यह भी कहती हैं की “जौहर की गति जौहर जाने, की जिन जौहर होय” तो क्या मीरा भविष्यवेत्ता थी, नहीं? पर लोकसाहित्य जरूर दूरदर्शी था, होता है, जिसे आप समकालीन साहित्य कहते हैं वो बनावटी हो तो भी जिसने जीवन की अनुभूति से लिखा वो, वो केवल सच का प्रतिदर्श हैं। पर, उसमें सेज़ भी हैं और मानों उसने यह मरकज़ भी देखें हो? सो वे जौहर को भी देख रहीं हैं।

विकास के प्रतिमान में जिन लोगों ने अपनी जमीन को खोया, केवल जमीन नहीं यहाँ भी आत्मोसर्ग हुए ही है, पर वक़्त के साथ इमारतों की नींव में गड़े नरमुण्ड कालकवलित हो ही जाते हैं ऊंचीं गनचुम्बी इमारतों में नींव की ईंट, केवल शहादत हैं और मेहराब पहचान।

कंगूरे कथा कहेंगे, इतिहास में गायें-पढ़े-बढे जाएंगे तो भी रामवृक्ष बेनीपुरी की पंक्तिया अब भी सार्थक है- 

"एक नई प्रेरणा से अनुप्राणित हों, एक नई चेतना से अभिभूत, जो शाबासियों से दूर हों दलबंदियों से अलग। जिनमें कंगूरा बनने की कामना न हो, कलश कहलाने की जिनमें वासना न हो। सभी कामनाओं से दूर सभी वासनाओं से दूर, उदय के लिए आतुर हमारा समाज चिल्ला रहा है। हमारी नींव की ईंटें किधर हैं? देश के नौजवानों को यह चुनौती है !"

मैं विकार रहित न होऊं, तो भी मेरे साथ अविकार हैं, सूर्यास्त के पहले फ़िर वहीँ जाना हैं जहाँ घौंसला है, अनन्त आकाश के विचरण और कुछ चुग्गे को बेतरतीब तरीके ही सहीं इकट्ठा कर लौटना होता हैं, यहीं से कहीं आवाज़ आ रही हैं-

गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस
चल ख़ुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस


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