अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- ०९ ) सप्ताहान्त- शृंखला

सुनने को मिला की किला व्यक्तिगत सम्पत्ति है, सो वहां तक रोड बना, होटल वन विभाग ने रोक दिया। उसके बाद अब कोई सुध-बुध लेता नहीं, पिछली बरसातों में काम होते पेड़ों के कारण व्यापक भूस्खलन ने कई जगह पहाड़ी को ध्वस्त किया हैं।

देवता बड़ा की उसका सम्पूजक या पुजारी। ऐसा प्रचलित रहा हैं की पुजारी, अनुयायी ही होते हैं जिनके हाथ वास्तविक प्रभुसत्ता होती है, यह दीगर बात हैं की वे लालची, चापलूस या अपनी शक्ति-सामर्थ्य को जानने में ही दिग्भ्रमित हो जायें।

धरती आ ढुंढ़ाड़ री, दिल्ली हन्दी ढाल।

भुजबल इण रै आसरै,नित नित देस निहाल ।।

ढुंढ़ाड़ (जयपुर,आमेर राज्य) की यह धरती सदा दिल्ली की रक्षक रही है | 



इसके बल के भरोसे ही देश हमेशा कृतार्थ व सुरक्षा के प्रति निश्चिन्त रहा है, ऐसा प्रचलित है।

लोकतन्त्र हो या पुराना राजाओं-बादशाहों या की सल्तनत का वक़्त, निःसंदेह सत्ता का केन्द्र कोई रहा है, पर तो भी सामन्तों-जमींदारों-ठिकानेदारों की पहचान थी, इनकी शक्ति से ही मुल्क-सूबे की सत्ता की मजबूती-कमजोरी नापी जा सकती थी। आज जयपुर सत्ता का केन्द्र है, पर अकबर के बाद आमेर पहले कोई और। 

मतलब साफ-साफ वक़्त-भाग्य तो हैं, पर क़ाबिलियत को सलाम है, डर के आगे जीत। मुगल्स के जुड़ते ही आमेर राजस्थान में शक्ति की धुरी बनी, सब सगौत्री बंदु-बांधवों का ऐश्वर्य बढ़ा, धीरे-धीरे चाकसू-दूदू-फागी-झोटवाड़ा-जोबनेर-गोनेर-रामगढ-अचरोल-शाहपुरा आदि सब से पुरानी जातीय सत्ता को पदच्युत कर कच्छवाहा साम्राज्य का विस्तार हुआ।


इसी परम्परा में अनेक गौत्र है, जो हमारे आस-पास व्याप्त है, एक बार आयी सत्ता ही परिवार को पार लगा देती हैं, आमेर की सत्ता तो हज़ार साल के आस-पास टिकती है, कुछ गौत्र - देलणोत, झामावत, घेलणोत, राल्णोत, जीवलपोता, आलणोत (जोगी कछवाहा), प्रधान कछवाहा, सावंतपोता, खीवाँवात, बिकसीपोता, पीलावत, भोजराजपोता (राधर का, बीकापोता, गढ़ के कछवाहा, सावतसीपोता), सोमेश्वरपोता, खींवराज पोता, दशरथपोता, बधवाड़ा, जसरापोता, हम्मीरदे का, भाखरोत, सरवनपोता, नपावत, तुग्या कछवाहा, सुजावत कछवाहा, मेहपाणी, उग्रावत, सीधादे कछवाहा, कुंभाणी , बनवीरपोता, हरजी का कछवाहा, वीरमपोता, मेंगलपोता, कुंभावत, भीमपोता या नरवर के कछवाहा, पिचयानोत , खंगारोत, सुल्तानोत, चतुर्भुज, बलभद्रपोत, प्रताप पोता, नाथावत, बाघावत, देवकरणोत , कल्याणोत, रामसिंहहोत, साईंदासोत, रूप सिंहसोत, पूर्णमलोत, बाकावत, राजावत, जगन्नाथोत, सल्देहीपोता, सादुलपोता, सुंदरदासोत , नरुका, मेलका, शेखावत, करणावत, मोकावत, भिलावत, जितावत, बिझाणी, सांगणी, शिवब्रह्मपोता, पीथलपोता, पातलपोता।

कच्छवाहा वंश के सम्बन्ध में दो धारणायें आती है, एक ये राजाराम के उत्तरवर्ती पुत्र कुश की सन्तति है, दूसरा राम के पूर्ववर्ती अम्बरीष की साधना स्थली के कारण इस क्षेत्र का नाम आम्बेर-आमेर पड़ा।

इतिहास जाएंगे तो कई और ग्रन्थ खंगालने पड़ेंगे, फ़िलहाल चलते हैं अचरोल ठिकाने की ओर। अभी यहाँ जो खाप हैं वो हैं बलभदरोत पर प्रचलन में राजावत गौत्री ठिकानेदार। अपनी अवस्थिति के कारण और सम्बन्धों को निभाने में अव्वल होने से आमेर का विश्वसनीय क्षेत्र।


कस्बें के बाहर के अहाते में तोरण द्वार, टूटी-फूटी ही सहीं पर पुराणी हवेलियां, शायद एक दो बरसात में खण्डहर हो जाएगी ये भी। सेठ-साहूकार अब यहाँ से छोड़, यहाँ गौड़ ब्राह्मणों का एक बड़ा वर्ग रहा था कभी, वह भी जयपुर कूच कर गया, उनकी ढाणी यहाँ भी बिक चुकी हैं, सांकेतिक रूप में कई गलियां सब बयां कर रही हैं।


आगे का सफर पैदल होना था, गाड़ी की एसी से निकले तो पहले गुवाड़ (गाँव का चौक) में खेलते बच्चों को देखा, सूना-सूना नज़र आता गाँव यहाँ आबाद था, सच शैशव की बस्ती-मस्ती दोनों ही अमिट हैं। 

वहीँ चर्चा में शामिल हुए, वहां मौजूद अपनी मेहनत-मजूरी कर पेट पालने वाले यादव जी को कोई प्रेरणा होगी, वे ऊपर के सफर में साथी हो गए। 

शायद, संक्षिप्त चर्चा में उनको कूदेरा होगा। आश्चर्य का विषय यह था की अचरोल चारों तरफ पहाड़ियों से घिरा है, ढ़लान भी रूकती रूकती सी है, जैसे हम अक्सर पहाड़ियों में खेती को देखते वैसा सा, पर जलस्तर का परता किया तो पता चला आठ सौ पार !!


न कोई बाबड़ी, तालाब, बंधा कुछ भी नहीं सोचा पिछली आज़ादी के बाद की पीढ़ी ने, जाने को उद्यत तो थे, पर पुराने विवाद ने हर किसी को सन्दिग्ध बना रखा सो संभव नहीं हो पाया, कोई नहीं किले को कूच किया।

थोड़ी दुरी पर पहला पड़ाव, वहां जरूर तालाब पर पानी नदारद, कभी यह तालाब काफी गहरा होता था, अब केवल बीस-तीस फिट भर हैं।

 

कहते हैं की पुरे साल पानी होता था, बच्चे अक्सर मौका ताड़ नहाने-तैरने आते थे, उसी दौरान हुई मौतों ने तालाब को लील लिया। 



समाधान का यह क्रूर रूप भविष्योन्मुखी तो नहीं था,पर तत्कालीन वक़्त में समीचीन सबको यही लगा।


आयुर्वेदिक दृष्टि से पूरी घाटी बागान-भरपूर-समृद्धि का खजाना हैं, जिस किसी को देखो, जो पत्ती-फूल, ऐसा वैविध्य आजकल काम ही दर्शनीय होता हैं। अब, ऊपर आ तो चुकें पर मुख्य द्वार दिख ही नहीं रहा? मुख्य भाग में लिए दो परकोटे पर पाने होंगे, वो भी भूल-भुलैया से ही हैं। 

सब कुछ जर्जर अवस्था में हैं, चौघट नदारद हैं दरवाजे भर है, मानों यहाँ सब आ? रामराज्य हैं, सम्भाल, न कोई रोकटोक। वैसे ऐसे घनघोर जंगल, बेतरतीब पत्थरों चढ़ाई, थोड़ा भी पानी आ गया तो दिशाहिन, सीधे नीचें। साथी बोल रहें थे, यहाँ आता ही कौन होगा?


किले के द्वार पर भैरव, अन्दर जाते ही मानों ढंडक ने दस्तक दे दी हो, कुछ तो पसीने से लथपथ थे, कुछ वहां की संरचना, बनावट और अवस्थिति सब, खूब-करामात। 

अचरोल माँ नन्हा अल्केमिस्ट और दूसरे यादव जी न होते तो हमारा यहाँ से ही लौटना तय था, चमगादड़ो की आवाज़, पूरा काली-कलूटी छत-आँगन सब और ऊपर से कोरोना का इस पक्षीं सम्बन्ध। 

युद्ध तैयारी, कानों को ढ़ककर अन्दर, कोई नहीं, केवल कोलाहल उन काले जानवरों का हाँ, बीच-बीच में अब तक देखि प्रजाति की चिड़ियाएं, अछूत जयपुर का एक और अहसास।

पानी के साथ अन्तर्सम्बन्ध, नीचे की पीड़ा मन में तो थी, यादव जी अब जद्दोजहद में लगे थे, विशालकाय शिलाखण्ड को हटा, मानों वो कोई खजाना, तिलस्म दिखा रहे हों, तो इसका मतलब पुरे किलें के नीचे -तीन मंज़िल निर्माण केवल संरक्षित किये हैं, अब भी उसमें अथाह जल था, कुछ अंधेरा, कुछ काले पक्षी और जर्जर होती दीवारें, चबूतरे गवाही नहीं दे रहे थे अन्दर जाया जायें, तलघर से आसमान छूती बुर्ज को रुख किया, काला जानवर वहां भी रोक ही रहा था, अब छत पर थे तो आमेर के आगे का पूरा क्षेत्र सामने था, सब तरफ हरा ही हरा।


बचपन में चुनाव प्रचार में अक्सर सुनते थे की सावन के जाये को चारों और हरा दीखता है, यह विपक्ष-सत्ता एक दूसरे पर व्यंग्य करती थी, आज उसका निहितार्थ जानने का सहीं मौका था, जयपुर में कुछ यूनिवर्सिटीज़ में इसी आकर्षण से प्रवेश होते है, पर जब गर्मी से आमना-सामना होना पड़ता हैं तो, क्या? अब पछताए होत क्या?


निर्माण की मजबूती, केवल चुने का प्रयोग, मेहराब, गोल गुम्बद सब अप्रतिम। 

बिना मशीनरी के आदमी कितना विकसित था, और अब विकास की होड़ में विकासशील भी कोई स्वीकार नहीं कर रहा? 


समाज, मानव ने तरक्की नहीं गवायाँ हैं कमाया केवल राजनीति ने हैं, जो ईमान जब बेच चुकती है, फिर श्रेय-प्रेय सब व्यर्थ ही होगा।


इस किले की वारिस को वसीयत को असलीजामा देनें में रूचि है, थोड़ी वे इस विरासत की ख़ैरियत को भी सजग होते, सबको सन्मति दे भगवान। अब बादल थे, लौटने का अभी मन नहीं था, अभी-अभी तो आएं हो, अभी न जाओं छोड़कर…….

यादव जी के किस्सें लगातार जारी थे, बच्चा भी कुछ बोलना चाहते था, पर उसकी बचपन की ज़बान उन शब्दों को पकड़ने की ताक़त हमे नहीं दे पा रहीं थी। बारिस की बूंदों में हलके-हलके फिसलते से हम फ़िर नीचे की ओर थे, एवरेस्ट चढ़ लौटना विजय हैं, मंज़िल क्षणिक हैं और यात्रा अविराम।


ऐसा क्यों होता हैं, जब वापसी में होते हैं तो राहजन अधिक नज़र आते हैं, जो तरुण नीचे खेल रहें थे वे अब ऊपर की ओर रुख किये हैं, थोड़ी सी बातचीत में उनकी संजिदगी, नज़र आया इनमे एक राठौड़ था, संशय था, पर जबाब भी, योग्य राजा हर कहीं से अपने राज्य को सुदृढ़-समृद्ध करने को अच्छे लोगों को आमन्त्रित करता रहा हैं, वो शास्त्र हो की शस्त्र, हुनरमन्द भी कुल मिलाकर राज्य को तरक्की देने वाला, स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते, वही तो हुआ न ।


वे शहर-शहरी होना नहीं चाहते ऐसा नहीं, पर गाँव को भी वे जी भरकर जी लेना चाहते हैं, तरुणाई की इस ताज़गी ने उत्साह दिया। 

अचरोल का यह किला केवल पत्थर का ढांचा ही तो नहीं, जुड़ने-जोड़ने की यह अन्तहीन यात्रा सतत रहेगी, हम हो न हो, कोई और इन रस्मों को निभाएगा।

उनके अपने तरीक़े होंगे, जड़ होते रिश्तों से नई बनाबट अच्छी होगी, वो अजमा रहें हैं, उसको निभा रहें हैं तो थोड़ा इस प्रयोग को भी हो जाने दो, नहीं?



सावन की बौछारों ने किसको अछूत छोड़ा हैं, पर मानव की तो सीमा हैं ही, फिर कहीं मिलना-जुलना, पगडण्डियों पर चढ़ना, बेवजह पसीने बहाना, सब के सब बहानों के नाते ही सही, करते रहिये, जुड़ते रहिए, बरसात-बून्द-बहाव फिर वाष्प, यही हैं वैतरणी।



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