अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- ०५) सप्ताहान्त- शृंखला

अजूबा हैं, यह जयपुर शहर। इसको केवल चारदीवारी में ही देखने लगेंगे तो कई परते ही खुलेगी, फिर भी बहुत कुछ अधूरा ही रह जाएगा। और अगर आप ऊपर पहाड़ियों का रुख कर लेंगे तो तमाम टांकों से निकले अकूत धन के बाद भी बहुत कुछ छिपा धन मिल जाएगा, खोजना तो होगा? 


कई बार निराशा भी हाथ लगेगी, मेहनत-भाग्य का योग बन गया तो जो मिलेगा उससे आप ही नहीं देश भी तरेगा। आप क्या समझते हैं, सल्तनत काल, मुग़ल काल और ब्रिटिश युग में जयपुर ने जो अर्जन किया वो अथाह नहीं होगा? 

भारमल से भगवानदास, मानसिंह और जयसिंह तो उनमें शामिल है जो अग्रिम मोर्चों में रहें, अति विश्वस्त। तो जो जय-विजय हुई उसका अधिकांश हिस्सा आमेर नहीं आया? आया तो वो अब तक सामने क्यों नहीं?

सुबह की सैर में कभी गाड़ी से आमेर और उसके बाद सीढ़ियों से चढ़ाकर अपने स्थापत्य को देखने का अवसर मत गवाईये, ख़ासकर वे जो दौड़ते रहते है, मैराथन सा। जिनको कहने को शुकुन है तो भी किसी और-ठौर की में वे तनाव में ही जीते हैं, कुछ वे जो इनसे दूर है तो भी उनका मन अभी भी इधर ही रमा है, सबको लेकर साथ, खोजने निकल पड़िये गड़े धन को? धन न मिला तो भी जीने का जज्बा तो मिल ही जाएंगे। कई से चक्कर, चढ़ाई, चलकर करेंगे तो वो परिक्रमा होगी जो जीवन को योगमय बना देगा ही।


सागर में पानी नहीं था, तो प्यास बढ़नी ही थी, यो कौन होगा सो सागर से हताश-निराश लौटेगा, पर हुआ तो यही था। सागर से लौट रहें हैं पर जिज्ञासा कम नहीं बढ़ी ही है, आम रस्ते से अलग रह ली, देखा तो देखता ही रह गया, अद्भुत स्थापत्य, नक़्क़ाशी, चित्रकारी, पर उनको खण्डहर देखते मन फिर क्लान्त हुआ। उसी और पन्ना-मीणा की बाबड़ी भी, जो इतिहास के पूर्व पक्ष के साथ उत्तर पक्ष का शागिर्द नमूना है।

कोरोना के कारण सब बन्द पर, आँखों ने देखना नहीं छोड़ा, ढूंढने की चाह ही थी की एक पड़ाव था जो इंतज़ार कर रहा था।

जगत शिरोमणि मंदिर का मुख्यद्वार खुला मिला तो सीढियाँ चढ़ने को मन हुआ, कोई नहीं था, सो वहां मौजूद भारतीय पुरातत्व विभाग के सक्षम अधिकारी से मुलाकात हुई, अनुज्ञा मिली, आगे तो मानों इतिहास खुद मुंहबोला हो गया। परम्परा से अलग पहले मंदिर के बाहर से ही परिक्रमा तो पुराणों के साक्षात् दर्शन हो चलें, अवतारों को बड़े की अनुपम तरह से तराशा गया है, शिखर तो मानों सुई-धागे से पिरोया गया हो। मंदिर के अंदर हर तरफ खिड़किया ही सब उजास का जरिया थी।

ठाकुरजी के सेवक कहने वाले पारम्परिक सज्जन के साथ वार्तालाप शुरू हुआ, वक़्त बीतता गया, इतिहास-वर्तमान, वे आज़ादी के दशक के जन्में थे सो समाज-राजनीती कुछ भी तो अनकहा नहीं रहा।

मुख्य विग्रह में सबसे प्राचीन विष्णु, द्वारकाधीश प्रतिमा ही थी, पर बाद में इसमें चित्तोड़ से तत्कालीन राजा जगतसिंह द्वारा लायी गयी मीरा के गिरधर गोपाल की मूर्ति, उसके बाद मीरा की अष्टधातु की पूर्ति, इसके अतिरिक्त सभी मूर्ति प्रस्तर की है। शिव-नंदी की तरह यहाँ गरुड़ प्रतिमा मुख्य मंदिर के बाहर उच्च वितान पर विराजित है, मानों वो हरदम मीरा के भजन की हर एक पंक्तियों की गवाही है, साक्षात्-

अब मैं सरण तिहारी जी, मोहि राखौ कृपा निधान।
अजामील अपराधी तारे, तारे नीच सदान।
जल डूबत गजराज उबारे, गणिका चढ़ी बिमान।
और अधम तारे बहुतेरे, भाखत संत सुजान।
कुबजा नीच भीलणी तारी, जाणे सकल जहान।
कहं लग कहूँ गिणतनहिं आवै, थकिरहे बेद पुरान।
मीरा दासी शरण तिहारी, सुनिये दोनों कान(मीरा)

मन्दिर के उच्च भाग से देखने पर तो कुछ पल को लगता तो यहीं हैं की आप वृन्दावन में ही हो, घर-घर तुलसी ठाकुर पूजा......अनिवार्य है तो भी, विश्वास तो है की परंपरा के अनुगामी उसको भी लिक पीटने की तरह ही सही निभा ही रहे होंगे। सनातन का विस्तार सक्षम हैं, जैन -कबीर सब ही मतों से तो इसकी पुष्टि है। एक कौने में विशाल बद्रीनाथ, दूसरे में सूर्य मंदिर, उसके समीपस्थ जैन मंदिर, तीसरे कौन में नृसिंह मंदिर चौथे में शिव मंदिर और सबके मध्य में जगतशिरोमणि।

मंदिर के निर्माण, राजा जगतसिंह की अल्पायु, विभिन्न चरणों में इसके स्वरुप में परिवर्तन की भी एक लम्बी कहानी है, हाँ पर यह एक सच हैं की यह मीरा की कृष्णमूर्ति वर्षों आमेर की किले में नज़रबन्द तो रही थी, ही।

मंदिरों के अहाते छोटे होते जा रहें हैं, सनातन परंपरा का यह अद्भुत क्षेत्र अब त्रस्त-सा ही है, उपेक्षा अपनों की है, मन्दिर देवस्थान विभाग की लिस्ट में शामिल है, अनुदान केवल आंशिक सा है, पर स्थापत्य बचा है, नहीं तो स्वार्थ इनमे भी शोरूम बनाने से बाज़ नहीं आता। 

मन्दिर की जमीन वैयक्तिक हो जाती है, वही जब गृहस्थ का आवास हो जाता है तो कालान्तर में वह सार्वजनिक नहीं बपौती हो जाती है। 

पर बोलने की बात, अब चुप्पी में अपना रास्ता तलाश रहीं हैं। इसी वृन्दावन सरीखी कॉलोनी में कभी विभिन्न ठिकानेदारों की हवेलियां अब खंडहर हो चली है, उनसे यह सब संभल नहीं पा रहा या उपशाखाओं में विस्तृत हुई पीढ़ियों में कौन इसकी सुध लें?

अवधि बदीती अजहूं न आए, पंडर हो गया केस।
रा के प्रभु कब र मिलोगे, तज दियो नगर नरेस॥ (मीरा)
{ बदीती =बीत गई। पंडर = सफेद। नगर नरेस = अपने राजा का राज्य }

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