अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- ०६) सप्ताहान्त- शृंखला

जल बीच मीन पियासी रे

कितने अन्तर्द्वंन्द्वो में जीता है आदमी, यह दुःख-सुख कुछ नहीं केवल अपने मन का गढ़ा है। इस अपने ही गढें जाल में वो इतना अभ्यस्त हो जाता हैं, की स्वछन्द आकाश होने पर भी वह उसी पिंजरे की कैद भर को सच मान लेता है।

जब आकाश अनन्त हैं, तो पृथ्वी, अग्नि, वायु और जल भी तो होगा। विकास के प्रतिमान ने ओजोन में छेद किया, अन्तरिक्ष को युद्ध का अखाड़ा बनाया- मतलब आकाश से छेड़छाड़। स्वाभाविक स्वरुप छीन भूगर्भ को रिक्त और पर्वत को क्षीण किया - सीधा सा आशय भूमि को अचला-अनन्ता-रसा-विश्वम्भरा विहीन किया। अक्षय ऊर्जा को विनाश से जोड़, परमाणु स्वरुप को विध्वंसक बना, अग्नि को भयावह भर बना दिया। 

प्राणवायु को ख़त्म किया, वनस्पति का ह्रास- वायु में जहर घोला। और अन्ततः सबका सार, सृष्टि के अमृतत्व बहते जल को व्यर्थ में बहाया, गन्दा किया, मतलब मानव सभ्यता ही नहीं, सकल चर के विनाश की बुनियाद रख दी।

हर बार की तरह कुछ भी तो तय नहीं था। दिल्ली रोड की राह ली, पहाड़ी के जंगल के सामने कंक्रीट का जंगल। 

वैसे वहां भी मन्दिर ज्यादा, आजकल तो मज़ारे अधिक नज़र होने लगी हैं। जंगल में जानवरों को शकून रहा नहीं कभी-कभार वे भी सैर-सपाटे को शहर आने आम हो गए हैं। 

आगे इन्हीं घाटियों में चौकियां नज़र आने पर जयपुर, आमेर बन जाता है, वहीं सामने विशाल मानसागर, जिसको आम भाषा में जलमहल का रिवाज़ जयपुर का हैं।

यह पिछोला हैं या आमेर रोड का हिस्सा? यह एक नया प्रश्न मन में आज ही बना। तालाब, झील या सर सब में पाल का अपना एक महत्त्व है, चैक डैम, बैक वाटर इन सबको को मद्देनज़र तो खोले के हनुमान जी का रास्ता अग्र भाग हुआ, वैसे भी पूर्व दिशा का क्षेत्र भी इसकी पुष्टि करता हैं। 

हरिवंश पुराण के अनुसार- "प्रतीच्यां तु सुरा इमे" ऐसा भी आता है।

जल महल की पाल पर किञ्चित शङ्का के पैर रखें, वहां देखा सरकारी बोर्ड तो। 

पर अन्दर ऊपर की और गए तो सब इतना फैला सा। 

इस झील का पाल इतना बड़ा होगा, नगर-निगम ने इतना सब निर्माण, सुन्दर स्वरुप दिया, साधुवाद दिल से निकला। पर सामने का पानी देख मन फिर उतना ही दुःखी, बद्दुआ दूँ, देना चाहूँ तो भी किसको? 

सरकार को कोसना, जैसा आम तौर पर होता है, या उस समाज को जिसकी जिम्मेदारी है, उसके लिए कुछ कहूं, बोलूं या खुद को भी समान जिम्मेदार मान कोई समाधान को उद्यत होऊं। 

अनेक विकल्पों में अनन्तिम विकल्प चुना, मैं समाधान दे पाऊंगा, यह शङ्का नहीं है, कोशिस करूँगा ऐसा ढुलमुल भी नहीं, निमित्त होने का अवसर हो यह अवसर चुना।

प्लास्टिक का ढेर, पानी के ऊपर था, यूँ कोई चितेरा फोटोग्राफर होगा तो इस रंग-विरंगे को भी खूबसूरती से व्यक्त कर देगा ही, पर यह जहर सा न केवल पानी, भूमि को भी तो डश रहा है, इसको अभिव्यक्त क्यों न करूँ?

आचार्य विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं-

"अब प्रश्‍न यह है कि धूर्तता को ज्ञान की कोटि में रखा जाए कि नहीं और यदि रखा ही जाए तो क्‍या आगे बढ़ना ही एकमात्र सफलता का मापदंड है? ये जिज्ञासाएँ उठती हैं, पर इनका ठीक-ठीक समाधान नहीं मिल पाता। 'गहना कर्मणो गति:' कर्म की गहराई आज तक थहाई नहीं जा सकी। 

साध्‍य बड़ा कि साधन, सिद्धि बड़ी कि साधना, या सागर बड़ा कि नदी, इन प्रश्‍नों का ठीक-ठीक उत्‍तर मिल नहीं सका। प्रत्‍येक युग में इन प्रश्‍नों की मीमांसा करने का प्रयत्‍न हुआ है, पर कभी भी कवियों की किसी एक उत्‍तर पर राय एक नहीं हो सकी है। 

सीधी-सी बात जानता हूँ कि जमुना की धार में जीवन-नौका छोड़ दी है, अनके मानसिक क्‍लांतियों एवं विरसताओं के बीच हार थक कर इसी धारा में पड़ा रहा, बीच-बीच में एक से एक चमकीली उपधाराएँ आईं, बहुतेरे साथ के माँझी उनकी धरे-धरे ऊपर चढ़ गए और बीच-बीच में गंदी मोरियाँ भी मिलीं, कुछ साथी उनकी ओर खिंचकर नीचे चले गए, कर्म-पथ पर चलने रहने की अपेक्षा उन्‍हें नरकों में धँसना ही सुकर लगा, परंतु मेरी तरी निश्‍चल गति से यमुना की मझधार में ही पड़ी रही।"

पता नहीं क्यों, पर यह आज चार दशक बाद भी यों लगता हैं की यह उन्होंने किसी जलमहल के मानसागर तालाब को देख ही ऐसा लिखा होगा। वाल्मीकि की रामायण भी क्रोंच वियोग से गति को बढ़ी थी।

वे सब इसको पुनरुज्जीवित नहीं करना चाहते, उनकी रूचि बनास में हैं, फिर जब कभी बीसलपुर न भरेगा तो वे चम्बल को तकेंगे, फिर नर्मदा और दिन-बी-दिन वे नदियों-नालों, पानी के अपार स्रोतों को लीलते जाएंगे।

पानी बिच मीन पियासी, मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी

आतम ग्यान बिना सब सूना, सहज मिले अविनासी

घर में वसत धरीं नहिं सूझै, बाहर खोजन जासी

मृग की नाभि माँहि कस्तूरी, बन-बन फिरत उदासी

क्यों? किसलिए? उनको अपनी पीढ़ी-अपनी सन्तति की फिक्र है, अथाह पैसे की कुहुक। पर पारिस्थितिकी न बचेगी तो केवल ग़रीब कूच करेगा? कोविड-कोरोना के बाद भी अक्ल नहीं आई, तो नहीं आई, "जाकी उतर गयी लोई-उसका क्या करेगा कोई" इतना भर, इत्यलं।

नालों से आता पानी, दावानल सा हैं, जिसने स्वाति नक्षत्र में बरसे-मोती की उत्पत्ति को ही ख़त्म थोड़ी किया है, उसका असर मण्डियों में सब्जी-फलों पर उतना ही है।

लोग केवल पराठों के साथ आते है, वे ख़त्म हो जाते है तो लौट जाते हैं, उनका यह टाईमपास भी इस सदी की त्रासदी ही है, इस पुरे क्षेत्र के लोगों ने ही तोड़ा होगा, पाल के नक्काश शिलाखण्डों को, सरकारी-निजी विश्वविद्यालयों के बहुरूपिये छात्रों ने इसको ऐशगाह में बदलने में कोई संकोच नहीं रखा।

इन तमाम, इन नकारात्मक के बीच सोचता हूँ की लोग जब जाएंगे-आएंगे तो सब ध्यान में आएगा, धारणा बनेगी फिर कोई इस पहाड़ी की तलहटी में ध्यान को भी जाएगा, समाधि केवल जड़ नहीं होगी, बाकी फिर जल है, तो जीवन तो होगा ही, हम इस जल की देखरेख करेंगे तो यह बाकी अन्य पञ्च-महाभूत को पुष्ट करेगा।

चक्र तो तभी चलेगा, पास का एक करीब चार-पांच शताब्दी का गवाह स्तम्भ यह प्रेरणा दे रहा है, ऊपर गए तो सब अच्छा दिखने लगा, सब हराभरा, बड़ी झील भी, ऊपर की घाटियाँ, चौकियां, मन्दिर, विशाल उन्नत क्षेणी के किले भी, पर इन सबके बीच जो छोटा नज़र आया, बौना सा वो था आदमी।

आज का अछूता जयपुर भी टीश ही दे गया, मन ने रोक दिया, इसलिए पाल के सहारे-सहारे कनक वृन्दावन की पगडण्डिया फिर अछूती रह गई, ऊपर की पहाड़ी भी, जो पास सी लगी थी।


कोई और भी आएगा, आता ही होगा, वह भी मैं नहीं हम तीन अविकार-शङ्कर की तरह सोचता होगा, और हम से बेहतर कर ही रहा होगा, पर क्या केवल कोई और! इसी को इति मान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना होगा? नहीं मैं करूँगा,


लौटने में उसी पाल पर लगे ताज़ा खजूर खाने को उस पेड़ को पत्थर पर हमने गुरेज़ न किया-बाज़ नहीं आएं, सोचता हूँ कोई पत्थर मारने पर भी फल, मीठा देता हैं एक हम मीठा देने पर भी उसमें जहर घोल रहे हैं…..

मानसागर के उस पार की पाल भी अब निजी हाथों में होगी, इससे विकास नज़र आएगा, क्या यह एक शर्त है, बनास के पानी को यहाँ लाने की? स्थान देवता, लोक देवता को पूजने की जगह, घर का जोगी जोगना आन गाँव का सिद्ध क्या कारगार होगा? फिर इस अपनी जल-परम्परा का पानी केवल सीवरेज के हवाले ही होता रहेगा?

है हाज़िर तोहे दूर बता वे दूर की बात निरासी,

कहे कबीर सुनो भाई साधो गुरु बिन बरहम ना जासी,

पानी में मीन प्यासी...


मौन स्वीकृति हैं? मौन क्रिया का सूचक?


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