अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण -०२) सप्ताहान्त- श्रृंखला

सप्ताहान्त- श्रृंखला

नोट:- शीर्षक को पढ़, तुरंत प्रतिक्रियावादी न बनें।


बद्दल छायें हो तो सफ़र और आसान सा लगता है, अपने आप ही यात्रा में सकारात्मक रूचि बनने लगती हैं। अछूते जयपुर की इस कड़ी को इस बार फिर, अविकार के साथ आगे बढ़ाया- गंतव्य और रास्ते तय नहीं होते, यकायक सब और लोंग-ड्राइव।

पिछली बार मैदान था तो इस बार घाटियां, भौगोलिक अक्षांस-देशान्तर को देखें तो जयपुर का पूर्वी द्वार। अनवरत जयपुर रहते हुए 30 साल होने को है, पर चूलगिरि अछूता ही रहा। अब भी है तो तथास्थिति ही, चौघट तक तो पहुँच ही गए, कोरोना के बाद स्थापत्य-मूर्ति और कुछ-कुछ बहुत कुछ को गति।

फिलहाल सफर जयपुर के पूर्व-दक्षिण में फैले झालाना पहाड़ियों की रम्यता को निहारने का गौधूलि का समय और होली से अब तक कई बार हुई बारिस से मानो, पूरी ही घाटी किसी चितेरे ने अपने ही रंग से भर दी हो।

खो-नागोरियान, लुनियाबास और शान्तिनाथ जी की खो अब सब ओर केवल एकरंगा माहौल है, विविध संस्कृतियों, आचार-विचारों, धर्म स्थलों से आबाद जयपुर का यह पूर्वी हिस्सा पिछले कुछ वर्षों में बदल दिया गया है, जंगल हो की घाटियाँ सब जगह केवल बेतरतीब तरीके से बने मकान हैं, या भूमाफिया-कब्जे-अतिक्रमण का सांया ही, विरासत की छतरियों के अवशेष तो बचे है, पर वे भी कुछ दिनों में नेस्ताबूद कर ही दी जायेगी यह एक विस्तृत भूभाग के आगे की ओर बनी दीवार और दूर-दूर जानबूझकर बनायीं, आकाश छूती मीनारें यह संकेत दे ही तो रहीं हैं।

लौटने में ब्रिटिश कॉलोनियों की याद ताज़ा हो गई, जब एलिट लोगों की बस्तियां-फार्म हॉउस पहले पहाड़ी तलहटी और बाद में रेलवे के इस पार का नज़ारा मैंने साथी को दिखाया, वो-वे साब-फला जो जेडीए में- सब ऐसे ही ऐसे, हैं-ऐसी भी बस्तियां ? मैंने कहा इन्हें ही कॉलोनियां कहते है, बाकी तो बहुतेरे मिलेंगे जिनका नाम जवाहर-इंदिरा-अटल-मनमोहन मिलेगा, नाम और यथार्थ का अन्तर अब साथी, अक्षरसः समझ ही चुके थे।

ऊपर मन्दिर को लेकर अपने-अपने मतों के टकराव है, किसका आधिपत्य हो कौन दर्शन को जाएँ कौन इस जमीं का मालिकाना हक़ पर रहें, पर उस मंदिर से प्राचीन स्थापत्य, जो वहीं तलहटी में हैं उसकी सुध-बुध लेने वाला कोई प्रन्यास, कोई श्रावक है?

जयपुर के राजघराने में भी सम्पत्तियों को लेकर विवाद है, पर जो जमीन पीढ़ियों से इन्हें मिली, उनके श्रद्धा-स्मारकों, छतरियों की तनिक भी देखभाल करने की जद्दोजहद है?

रखता है यह कोई भाव?

मुझे लगता है की ".... दो गज़ ज़मी न मिलीं कू ऐ यार में" यह केवल जफ़र की पीड़ा नहीं, इस देश कि हि विडम्बना है की एक काल बाद दीवारों पर टंगी चौघट में तस्वीर बदल दी जाती है, केवल अपने से पहले की पीढ़ी और एक उसके बाद की पीढ़ी का आश्विन मॉस में श्राद्ध निकाल भर, हम अपने कर्तव्य की इतिश्री मान बैठते है, कहना भी सही हैं की मेरी पहले की पीढ़ी ने मुझे यह ही बताया-सिखाया, नहीं?

पिछली जगह की तरहा यहाँ भी मांस-मदिरा और अण्डों का बाजार आम हैं, और हम कहते हैं की यह जैन अतिशय क्षेत्र है, धर्म-संस्कृति-सम्प्रदाय में उलझे इस सनातन को कोई मार्ग कैसे दिखाएँ?

कौन हैं जो ऊपर और नीचे दोनों में समान रूप से अधिकार जता सकें?


मैं कभी केशरिया-नाकोड़ा और चूलगिरि में प्रवेश-पूजा को लेकर प्रश्न नहीं कर रहा, मेरा सवाल है की अब और इसके बाद के संघर्ष में?

तुम जैन-मैं बौद्ध, वो शैव और वो उसके आगे वैष्णव-शाक्त-आर्य समाजी-दलित-महादलित-पिछड़ा-अति पिछड़ा और, और ....... आर्थिक पिछड़ा, अगड़ा????? इसमें उलझा यह भारतीय सनातन कैसे अबकी बार निकल पाएंगे?

मैं मिजोरम या मेघालय की नागालैंड की तो अभी चर्चा ही नहीं कर रहा, वैसे भी कोरोना के कारण नकारात्मक माहौल कम नहीं, पर फिर भी सोचने की फुर्सत???

दिन-भर तलने में व्यस्त, बार-बार गैस में बर्नर की और उद्यत हाथ, आगे आने वाली पीढ़ियों को चौघट तो देगी?

मैं शंकालु हूँ, हाँ-ना यह फैसला भी आप ही करें।

इसी हरीतिमा ओढ़े वादियों में कुछ तालाब जैसी रचना ऊपर से दिखी, पर पानी नहीं- "टैंकर से पानी भरा जाता है।" मतलब जंगल में भी मस्टरोल हावी हो चला हैं, पेड़ हैं, पर जो पारिस्थितिक अनुकूलता है, उसको देखें तो अति न्यून ही, क्यों?

यह सब जबाब सरकारी लवाजमा ही दे सकता है, अगर सही-सही देखरेख हो तो अकेला यह क्षेत्र पुरे ढूंढाड़ को ऑक्सीजन उपलब्ध करवाने को तत्पर है, पर, इस सरकारी तन्त्र में लाचार केवल प्रवासी ही थोड़ी है, जन-जंगल-जीव-जानवर और जल सब ही।

आजकल में आमेर में हुई दो वन्य जीवों की मौत, केरल में हथिनी को विस्फोटक अन्नानास या मेवात में आम में विस्फोटक से अपना जबड़ा खोई गाय?

हाँ, इन सबके बीच मेरे गाँव में गौशाला में सांड को मारता इसी देश-धर्म का व्यक्ति, रेकॉर्डिंग के बाद पुलिस एफआईआर का हिस्सा है, हालांकि रिपोर्ट दो दिन बाद दर्ज हुई, पर जहाँ मानवता को लेकर ही सम्वेदना नहीं वहां यह भी कोई कम तो नहीं?

कैलाश खैर याद आ रहें हैं, ....

मोहे सुध-बुध ना रही तन-मन की, ये तो जाने दुनिया सारी

बेबस और लाचार फिरूँ मैं, हारी मैं, दिल हारी

शहर से दूर यह पहाड़िया उन मनचलों का भी ऐशगाह है- साथी के मुँह से निकला हर एक शब्द, मुझें झकझोर रहा हैं, जो इस धर्मनिरपेक्ष भारत के साथ मिलें दंश सा हमें बार-बार, हरबार डस रहा हैं और एक हम की इस नाग को दूध पिलाने से बाज नहीं आ रहें, मुझे बेशक आप पौंगापंथी कहिये, पर इस सह-शिक्षा के षड्यंत्र को जितना जल्दी हो सके ख़त्म कीजिये, कोई नहीं बचने वाला है।

जहर हर घर के मोबाइल में रात की लम्बी बातें, टिक-टॉक और न जाने कितने लॉक-पासवर्डों के जरिये आ चूका है, बस एक भूल की देरी है, कोरोना जैसे तो कितने ही यह भारत-धरा झेल चुकी है, पर यह सांस्कृतिक आघात मनुज-पुत्र नहीं झेल पाएंगे?

आजमाने का वक़्त नहीं, करने का समय है, विदा न करें तो समय तो तक कर ही दीजिये घरों में मोबाइल का, की रात दस बजे से की दस बजे तक यह साइलेंट और एक नियत स्थान पर होगा, आप करेंगे?

क्योंकी पेरेंट्स खुद उदाहरण बनेंगे, तो ही वे कह पाएंगे, प्रेरणा दे पाएंगे, केवल एक दिन ही कर कर देख लीजिये,आपकी सफलता पर मुझे सन्देह है? आपका आश्वासन-स्वयं को दिलासा? केवल ढकोलसा भर है, करके देख लीजिये?

मुग़ल बादशाह अकबर की तरह, उससे प्राचीन लोगों के स्मारकों को भी बचा लीजिये, अजमेर रोड पर धरोहर की चिन्ता करने वाले आगरा रोड़ की छतरियों को भी संरक्षित करें, मार्मिक अपील।


#ashutoshjoshi #indianyouthparliament #youth #EachOtherTogether #iyp #mediafoundation #youthparliament #parliament #waterparliament #youth #young #chulgiri #colony #chhatariya

Comments