अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- ०७) सप्ताहान्त- शृंखला

इस बार पगडण्डिया, दिल्ली की ओर के राजमार्ग से बिना गूगल मैप के ही मुड़ चली। 

सिलेबस में कैद ज़िन्दगी में होते तो हम भी आज वो नहीं देख पाते, जो अदभुत देख लौटने को मन नहीं होता। 

वन-ग्राम की अवधारणा आमेर घाटी में इतनी सुघटित होगी मेरी कल्पना में यह नहीं था। 


सड़क से थोड़ा ही आगे बढे तो नाम नज़र आया- सराय बाबड़ी। बाबड़ी शब्द पढ़ते ही मन की उत्कण्ठा मानो बचपन सी मचलने लगी, जिज्ञासा बढ़ी- बाबड़ी लिखा तो होगी ही, चाहे खण्डहर ही क्यों न हो? 


आँख लगातार दाएं-बाएं थी, दुरी से मन्दिर नज़र आया उसके पीछे योजनाबद्द सी पार्किंग, तो शङ्का हुई, जिज्ञासा बढ़ी, गाड़ी आगे बढ़ाई तो, वाह आज की यात्रा सार्थक हो गई, असली आनन्दानुभूति।


जी, अब हम बाबड़ी के पाल पर थे, पानी भी था, आसपास में अपार हरियाली भी, मतलब लोगो ने सुध ली तो वरुण-देवता ने धरती को शस्य-श्यामला बनाया। 


यह ही है, सराय बाबड़ी जो सबसे पहले बनी, फिर ग्रामीण बसे तो गाँव साकार रूप में आया।


यूँ तो इतिहास में राजस्थान में ज्यादातर परिप्रेक्ष्य महाभारत कालीन पाए, लिखे जाते हैं, पर आधुनिक इतिहासकारों ने ऐसी प्रतीति दिलाई है की मानो सब कुछ सल्तनत या मुगल्स की ही देन हैं। 


उस इतिहास को देखें तो मन्नत को अजमेर जाते अकबर की ख़ुशामदी में इस बाबड़ी का निर्माण हुआ हैं। पहली अछूत जयपुर यात्रा से जुड़ें कोस मीनार की तरह ही यह सब।


कालान्तर में ऐसी परम्परा ही बन गई की सांझ ढलें आमेर की परिधि में आएं को, नगर में प्रवेश नहीं मिलता था, सो वह सराय में रुकते हुए इसी बाबड़ी के पानी को उपयोग में लेता था। 


इसी सदी के साल चार-पांच में इसका जीर्णोद्धार गवाह ही कहते हैं की अब भी यह अस्सी-सौ फिट तो पक्की बनी है, वर्तमान फ्लैट कल्चर के मुताबिक आठ मंज़िल, !!! बिल्कुल।


आसपास की हरियाली, तेज़ तपती दुपहरी में भी नमी, ठण्डी बयार का किञ्चित सा सुख तो हमने भी लिया ही है।


सराय बाबड़ी गाँव का यह हिस्सा, पार उस पार को निकले तो विशाल तोरण द्वार, उसके ऊपर और निचे दोनों और कमरे, विशाल बुर्ज और लम्बी दुरी तक चार फ़ीट आसार वाली दिवार। 



तो आमेर की किले के बाहर भी इतना अजुबा है,अब हम गाँव की उस पार की और रस्ते में है, अचानक विशाल चौकोर महलनुमा स्थायत्य का नमूना, फिलहाल आगे बढ़ते हैं, इसके तिलस्म को लौटने में निहारने की कोशिस होगी, कोई चौकीदार गर तैयार हो जाए तो।



थम्भ की नसीयाँ, शायद दिगंबर जैन परंपरा से भरा-पूरा जयपुर भी इससे अनविज्ञ सा ही है, अन्यथा तो यह आस्था का तो अप्रतिम स्थापत्य है। 

केवल एक थम्भ, स्तम्भ ही नक्कासी कहूं, कारीगरी कहूं या कशीदाकारी है, संगमरमर का यह शिल्प मानो कोई मोम पर उकेरा है, अब तक के तमाम भट्टारक मौजूद है। 

जैन मत की दिगम्बर परम्परा में भी, वस्त्र धारण करने की परम्परा कालान्तर में विकसित हुई, मूल का बहुत ज्यादा न सोचें तो यह दक्षिण भारत से उद्भूत हुई। 



उत्तर भारत में भट्टारक परम्परा अब नहीं के बराबर है, पर बीती शताब्दी तक यहाँ यह परम्परा रही है।



साल 2013 में संयोगवश भारत की भट्टारक परम्परा के वर्तमान के सर्वोच्च आचार्य आदरणीय श्री चारुकीर्ति भट्टारक जी से मिलने का सौभाग्य, श्रवणवेलगोला यात्रा के दौरान मिला था।

था तो थम्भ की नसियाँ में पर मन-मस्तिष्क कुछ पल को यहाँ-वहां में सामरस्य करने में लग गया। 


मन्दिर प्राँगण में परम्परागत शिवलिंग, स्थान देवता भैरव सुयोग भी है।

 

सामान्यतः जैन सम्प्रदायों के मन्दिर में यह अद्भुत संयोग मिलता नहीं।

 

कुछ आशंका के कारण हालांकि जीर्णोद्धार की बाट जोहते दोनों ही देवालय दिखें।



पीछे पूर्वाचार्यों की छतरियाँ भी तो निर्माण की उसी शृंखला में समाहित है जो किसी मध्यकालीन इतिहासकार की नज़र से दूर रहें। 

आखिर वे भी तो इंसान ही थे? 


उनको दिल्ली-आगरा से फुर्सत मिलती तो आते, सच तो यहीं है की हमने ही कहा की दिल्ली दूर है, और उसने उनकी राह को मुश्किल किया की आसान, अर्थ दोनों ही ले सकते है, नहीं?



वहां से अन्दर के रास्ते आमेर का रुख नहीं करते तो फिर कुछ छूट जाता, हाँ, थम्भ की नसियाँ से बामुश्किल दौ सौ कदम की दुरी पर फिर बाबड़ी, यह कोई संजोग, नियति या निमित्त होने का अवसर देती प्रकृत्ति।







विजय बाग़ बाबड़ी, का पानी भी शकून दे रहा था, बता-जाता रहा था की थोड़ा भी ख़याल किया तो अमृत खोजना न होगा, अमृतं जलं का विस्तार हम न कर पाए केवल देखरेख भी तो सब आसान , सरलता से संभव है। 


सराय बाबड़ी तो या विजय बाग़ की बाबड़ी दोनों ही कुवें के साथ जुडी है, दोनों ही पानी के स्रोत है, सिंचाई की अकूत जलधार के स्रोत।  



सच क्या होगा? इसमें न जाएँ तो ग्रामवासी की बात को मानें तो इनका सीधा सम्बन्ध आमेर के मावठे से जुड़ा है, वहाँ जल होने पर बाबड़ी स्वाभाविक रूप से समृद्ध रहती है।

सराय बाबड़ी-विजय बाग से ओर आगे बढ़े तो अब मालियों की बस्तियां नहीं हैं, आगे बढ़े तो कोई युवा तत्पर भाव से फिर एक जल-स्मारक की ओर ले जाना चाहता था। इन दो बाबड़ियों से इतर वो उपेक्षित है, दोनों और कब्जाईं जमीन यह अपने आप उसके हश्र को बता रहीं थी। 

अन्दर-बेवजह की तोड़फोड़ उसे खण्डहर में बदलने की कोई शुरुवात आप मान सकते है, वैसे श्री गंगादास जी की बाबड़ी के नाम से जाने जानी वाली इस जल धरोहर का भी तीन-चार साल पहले जीर्णोद्धार हुआ है, बाहर की दिवाल पर लिखा यह इंगित तो कर रहा हैं।


पीछे की जल-संरचना को देख जितना मन उत्साहित था, मानों बांच्छे खिल उठी हो, पर यहाँ आकर लगा, आगे क्यों आयें। गाड़ी अब आगे आमेर की और ले जाने की बजाय लौट आने को मन किया, हमने मन की बात स्वीकारी।

पर, रास्ते में फिर वो चौतरफ़ा घिरी आकृति ने फिर रोक लिया, रुकने की इच्छा न होने पर भी। 

यह रहस्य है, रोमांच, या कोई एक अनजानी सी सत्ता? तन्त्र-मन्त्र सात्विक अध्यात्म के हिस्सें नहीं है, फिर वो सहज कैसे हो सकता है। 

किनारे रुकें तो छोटा खिड़कीनुमा दरवाजा था, बाकि तो चारों और ही झाड़-झंकाल था ही, पास के घर से आएं युवा ने अन्दर आवाज़ दी।


कोई आया तो, पर डरा-सहमा सा, दरवाजा केवल इतना ही खोला की वो मुझे देखें, मैं ऐसा न कर पाऊं। अंदर आने की कोशिस न करूँ, उसका संकेत था। बात भी नहीं करना चाहता, पर कुछ तो बोला। वो अजमेर से है, वहां चौकीदार, नाम नहीं बताया, मोबाइल भी नहीं। मालिक कौन, कहने पर पीछे देख चुप्प। मैं थोड़ा अब पत्रकार से सवाल न कर, घुलमिलने की जद्दोजहद में लगा तो, पता चला की की कश्मीर से है, जो इसके मालिक है, साप्ताहिक रूप से आते हैं वे।

विजय बाग़ से सराय बाबड़ी, और उधर राष्ट्रीय राजमार्ग तक कितनी ही जमीन उनके हिस्से में हैं वो चौकीदार भी नहीं जानता इतना कह वो दरवाजा बन्द करने को उद्यत रहा, जिज्ञासा अन्दर जाने की बढ़ी, उसने बुधवार को आने की कही, अब जाऊं की नहीं? कई संशय तब नहीं अब सामने थे, मैं बिना मोबाइल अन्दर जाने को तैयार था, पर अब सोचता हूँ तो लगता है, काश मैं अन्दर जा पाता? यह निर्णय सहीं नहीं होता।

मन-मस्तिष्क की उलझन में कैद न होना अच्छा रहा, नाम कोई भी हो? 

काम भी? 

गाँव के लोग रसूलदार-नम्बरदार या कोई डार के दर से चुप्प होंगे? 

बाहर से कोई आता नहीं, स्थानीय सरकार की भी की मज़बूरी-सांठ गांठ हो सकती है? 

आते-जाते लोगों को कंटीले तार, जंगल सा फैला घास-पूस तो भी, कोई हैं जो उसको न जानना चाहता हो? 


पागलपंथी है, तभी तो कुछ ऐसा-वैसा हो जाता है, सच को जानने की कोशिस फिर भी रहेगी।

छोटी यात्रा होने पर भी, कुछ समय में दोपहर की धुप -शाम की उधेड़बुन और रात का सा डर सब कुछ तो देखा, अछूत जयपुर आसान यात्रा से ही थोड़ी गुजरेगा?

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