अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- १२) सप्ताहान्त- शृंखला

दुनिया में बहुतेरे स्थान ऐसे हैं, जिनकी महत्ता केवल किसी एक व्यक्तित्व-स्थान या आस्था पर अवलम्बित है, उसके बिना वो सब कल्पना सा ही या केवल उजाड़ । राजस्थान, जहाँ अनेक लोक-देवताओं का स्थान हैं, केवल उनके देवरे ही उस नगर-कस्बें का आधार है, यह सब अच्छे से समझा जा सकता हैं।


अपने राज्य के बाहर जाएंगे, तो वहां भी यह सब नज़र आएंगे, दूरदेश-विदेश गए तो वहां भी। कृषि-गौरक्ष-वाणिज्य सब पानी पर अवलम्बित है, फिर उसमें मानवीय पुट जो केवल कर्ता सा, कर्म का करणीय भाव। कर्म मूल हैं -फिर सम्प्रदान, जो की प्रयोजनमुद्दिश्य का प्रेरक होगा। फिर अपादान यानि स्थान, फिर स्नेहसिक्त होने सा, जोड़ने की कड़ी सा कोई संबंध। उसके बाद कोई संकेत स्वरुप -अधिकरण और अन्ततः संबोधन। मतलब पहचान सूचक, आदर सूचक हे! जगदीश, सद्प्रेरणा दें, शुचिता-सौख्य-सामर्थ्य दें, समवेत रहने का सहनाववतु का भाव दें। 


अब विद्वान लोग, इनको आठ कारक कहते हैं, मेरे जैसे प्राथमिक-प्रथमवर्ष/वर्ग के लिए, केवल सामने दिखने वाला सा कुछ। इसके पहले मैंने भी यह सब नहीं सोचा था। हाँ, आज कोई प्रेरणा? ही थी की कारक मेरे साथ यूँ जुड़े।


गोनेर, सबका सुविदित पर मैं? आश्वस्त होऊं? 

हम-आप गोनेर को जानते हैं? 

आज लक्खी मेलें की पद यात्रा-सी के बाद मैं कह सकता हूँ की मेरा गोनेर से परिचय, आज ही हुआ हैं, वो भी सामान्य-सा ही।

राम मिलन कब होसी
बाच सुनाइयो थी पोथी जी
नुत जिमावा थारा गोती
हीरा जड़वाया थारी पोथी
बाई तो मीरा के गिरधर नागर,
राम मिलाया सुखी होसी
मारा जूना जोशी राम मिलन कब होसी (मीरा)


इस वृन्दावन में सब श्री जगदीश-लक्ष्मी जी का है, जो कुछ सब-कुछ। मन्दिर के इस पार से उस पार का रास्ता ही हैं, जिसके इर्द-गिर्द सब बना-बसा हैं। 

धर्मशालाएं पहली बार वीरान है, दुकाने खुली तो भी सब कर्फ्यू सा ही। कोई विदेशी निराकार-अदृश्य, आक्रान्ता घर के बाहर जो आ बैठा।


विकास और बाजार की कुछ अलग ही तासीर होती है, वो कालांतर में सब-कुछ ढक देता हैं, या जिसे नहीं दिखना-दिखाया जाना चाहिए उसे उघाड़ने में उसकी दिलचस्पी होती हैं।


यहाँ भी वही तो था, दुकानों के पास कचरे का ढेर-कंटीली झाडिया, अब जिसको जो पसंद हो जाता, शायद वे इनको पालें तो वे फ़ैल ही जाती हैं। पर सच यही हैं की यह वे कांटे ही थे, जो इन स्मृतियों को अब भी संजोये थे। बीच बाज़ार, ऐसी दुर्लभ धरोहर को कौन संभाले? कौन सम्भालेगा? कोई आएगा? कब? वो कौन? पर कोई क्यों आएगा? जब अपने ही सुध नहीं लेते तो किसी और को क्या पड़ी हैं? यह सब-इतना हो गया हैं की अब तो इस बाबड़ी की आँखें भी पथरा सी गयी है।

उसकी आशा, शायद दम तोड़ चुकी थी। बाबड़ी सामने थी, नाम बाद में जाना तो भी -श्री गंगादास जी की बाबड़ी।


गोनेर के विशाल तालाब की पाल के उत्तर-पश्चिम कौण में, बेचारी सी??? पर, अब वह विशाल तालाब भी नाम को ही तो वि-शाल है, उसको भी अब अपना शब्द, साल रहा हैं, पीड़ा दे रहा हैं, मैं गोनेर का सागर, मैं-मैं-मैं ??? क्योंकि इसी के उत्तर-पूर्व में कहनी-कथनी में पांच सौ इक्कीस साल पूर्व स्वयं-प्रकटित गोनेश्वर श्रीजगदीश-लक्ष्मी युग्म प्रतिमा और उसका केवल एक जीवित गवाह, यह तालाब।


शायद उसका यह दर्प ही था, या पीढ़ियों की उस बूढ़े के प्रति उपेक्षा की वह केवल जलझूलनी-एकादशी के एक दिन का, आदर का सूचक-सांकेतिक भर रह गया।


ये मेरे उदगार हैं, मैं कुछ पल तालाब? रंगमंच का सूत्रधार? अब इंसान से प्रतिरूप बना तालाब, पर घमण्ड रहा, सो वैसा भी सोचा, और अन्ततः असीम की शरण में अपनी सीमा जानता था, सो संकीर्ण सा ही रह गया। राम का किरदार, कृष्ण का किरदार कर भी लें तो कोई राम-कृष्ण थोड़ी ही हो जाता है, सब अभिनय सा , एक बार मेकअप उतरा तो वही रंगत शुरू।


पर बिडम्बना देखों-देख लीजिये, जीवन के आधार, अन्न के आधार, पशुधन के आधार और उस सबसे परे आस्था के साथ जुड़े इस प्रतीक-पूजक सरोवर को भी सन्ततियां ही कब्जाए जा रहीं है, बेतरतीब मकानों के बीच न कोई गौचर हैं न कोई आगौर और पाल। 

सब खातों-खसरों में ही, पर सुन रहा हूँ उसको भी अब नामान्तरित करवा ही लिया गया हैं।


वापिस मेरे कर्म-करण-सम्प्रदान की ओर। 

सम्वत १७५८-६० (1758-60) में इस वैभवशाली मन्दिर की पुजारी परम्परा से जुड़े व्यक्तित्व ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। मतलब इसका इतिहास भी इस नगर की स्थापना से जुड़ा हैं। पहले तालाब-फिर बाबड़ी-फिर प्राकट्योत्सव-फिर-दिव्य प्राङ्गण में जगन्नाथ सागर पर जिनकी छतरियां हैं उन ब्रम्हर्षि श्री देवादास जी द्वारा ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया को श्रीलक्ष्मी-जगदीश्वर की स्थापना।

अब तक हर कहीं इस तरह के शिलालेख की जिज्ञासा थी, यहाँ वो मिला तो इतिहास को साबित करने का मौका मिला। 


वो कपोल कल्पना नहीं थी? इतिहास की कृति थी, जो मुग़ल/सल्तनत काल में भारत के विकास की गाथा से अपने लोगों की दासता से निकलने का जरिया सा था ही।


सीढ़ियों से उतरना आसान था, जहाँ तक सम्भव हुआ गए। करीब-करीब सत्तरेक तो उतरे ही, उसके आगे गाद-मिट्टी-घास। दोनों तरफ़ सीढियाँ थी तो भी, किसी अनहोनी को टालने खातिर, ऊपर दीवार से सटी पगडण्डी से मुख्य, कुवें के पास तिबारे को देखा, निर्माण-पत्थर-चूने की मजबूत आधार को देखने भर से समझा जा सकता हैं। वापसी में अग्रभाग की छत पर गए तो सारा नज़ारा, तालाब का क्षेत्र और बाबड़ी की सुन्दरता और साफ-साफ हो चलीं।


आगे जाना, चलना नियति है, कुछ परिकल्पनाएं मन में थी, विश्वास भी की शायद आगे आएंगे तो इसमें सब सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् ही नज़र आएगा।


कोई आश्वासन, आश्वस्त तो नहीं कर पायें, क्या पता? फिर उस बाबड़ी को भी हममें वर्त्तमान राजनेता सा अक़्स दिखने लग जाए। और विकास के ये-वे दीवाने, बच्चों के डूबने का बहाना, पशुओं के गिरने का डर, अपराधियों का अड्ड़ा बता इसको साफ कर कोई आंगनवाड़ी बना ही डालें।


अब सीधे हम श्री हनुमानदास रघुनाथदास जी, जो की वर्तमान में श्री लक्ष्मी-जगदीश्वर ट्रस्ट के कार्यवाहक प्रन्यासी व महंत हैं, के आरामकाल को भंग कर कर चुके थे। पति-पत्नी दोनों के साथ होने का पहले बार शकून था, वे भी इतिहास-परम्परा को कोई गार्गी-मैत्रेयी सी अभिव्यक्त कर रही थी। नब्बे दशक की उनकी जीवन यात्रा में बचपन-शैशव-युवा और अब का वार्धक्य सब "तुभ्यमेव वस्तु गोविन्दं" ही रहा। शास्त्र की विद्वता से ज्यादा उनमें सहज-सरल-स्नेह भाव का आनन्द ज्यादा था।

दो कथा प्रसङ्ग आपसी वृतान्त में सामने आयें।

जिसमें एक, सम्वत-वर्ष के अभिज्ञान के बिना तत्कालीन आमेर से जुड़ा हैं, जब कोई सल्तनत या मुग़ल काल का शासक मन्दिर निर्माण के दौरान मनौती को आया। उसकी अपनी भाषा में वह मन्नत पूरी हुई तो सहस्त्र जोजन (आज से पहले की भाषा में कई कोस- आज की भाषा में कई हज़ार एकड़) इनाम में मन्दिर के खातें में दर्ज हुई।


दूसरा, एक प्रसङ्ग भारतीय परम्परा को खण्डित करने का यहाँ भी आया। ज्यादा तथ्यपरक-प्रमाणिकता में न जाएँ तो कोई लेखनानुसार 28 मार्च 1681 को असद खान ने आमेर के निकट गोनेर में स्थित जगदीश जी मंदिर को नष्ट किया। गजसिंह नामक राजपूत योद्धा ने केवल पांच रणबांकुरों की मदद से मोर्चा लिया, और बाद में वे भी अनेक मुग़ल सैनिकों सहित तमाम हुए।


कहते हैं, इसके बाद ख़ुद सिपलहार अंधा हो गया। जाते-जाते मन्नत मांग शेष जीवन की दुआ की आस में लूट-नष्ट-भ्रष्ट करने कोई आया, खुद वो खाली हाथ लौटा। जो कहीं और से दिल्ली बादशाह सलामत खातिर लगान-जागीर-इनाम से जुटाया, वो यहीं समर्पित कर बीच दिल्ली की राह की मौत के आगोश में समा गया।


कुछ लिखा, कुछ सुना और थोड़ा-थोड़ा बढ़ाया-घटाया सा यह सब घटनाक्रम।


"हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता" कुछ और प्रसङ्ग भी थे, वो चर्चा में आयें, वे सार्वजनिक हो, यह समय-साक्षेप नहीं होगा, उनको अलिखित छोड़ना उचित जान, आगे कुछ कदम और बढ़ें।


मन्दिर के कुछ पहले एकरंगा इबादतख़ाना, बस उसके पास ही रुक गयें। नया निर्माण सा, बाहर की हिस्से में द्वारपाल भैरवनाथ, अन्दर से हलकी सी रुद्रपाठ की स्वर-ध्वनि। यह हैं शिवमन्दिर और उसकी बाबड़ी। केवल सीढ़ी से आप कल्पना कर सकते हैं, पीछे का कुँवा यहाँ भी त्रस्त-पस्त ही, कुलमिलाकर यहाँ वह साम्प्रदायिक सा हो गया, उसकी सम्वेदना कौन सुनें? क्योंकि उसका हिस्सा अब सम्वेदनशील जो हो गया।



मिश्रजी आचार्य, साथ में दो-द्विज, इस क्षेत्र में सनाढ्य परम्परा भी? मतलब गोनेर, गौड़-सनाढ्य-च्यवन और मन्दिर के पुजारी बागड़ा ब्राह्मण मत से सम्पूर्ण हैं। बाबड़ी में कुछ बचा नहीं, शिलालेख पिछली बरसात में गिरी दीवार के बाद भूमिगत हो चूका ही।



पुराना किला, शासन का केन्द्र रही इमारत, बाद में जो राज्य स्तरीय राज्य शैक्षिक प्रबंधन एवं प्रशिक्षण संस्थान तथा जिला स्तरीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान भी रहा, को देखने की इच्छा को टाला, समय ने जो रोक दिया।


गोनेर जैन सम्प्रदाय का भी महत्वपूर्ण पड़ाव हैं, कभी पैदल महावीरजी की यात्रा इधर से ही गुजरती थी, बाड़ा-पद्मपुरा से इस क्षेत्र का विशेष जुड़ाव रहा हैं। सम्प्रदाय कब बाधा थे, वे इधर-ये उधर आने-जाने का क्रम तो अब भी वैसा ही है, पर हाँ इस स्वार्थ की परिभाषा में नई गढ़ी राजनीति ने अब साम्प्रदायिक शब्द को ही बिगड़ा बना दिया। यह हिस्सा तो अब भी अछूत ही रह गया, कुछ कबीरपंथ का भी उल्लेख हैं, कुछ सन्त साहित्य भी। वैसे नाभादास जी द्वारा रैवासा में लिखें "भक्तमाल" में भी मंदिर परम्परा उल्लिखितहैं, कुछ सुना हैं ऐसा।





श्रावण का महीना, मन्दिर में प्रवेश सामान्यतः अवरोधित सा था। इस बार ठाकुरजी स्नान को तालाब नहीं जायेंगे, पाल पर बैठ प्रजा से नहीं बतियाएंगे और आगौर को देखने के बहाने हरियाली फसल-किसान को उत्साहित भी नहीं?


जानते सब हैं की ठाकुरजी कुशल-मङ्गल रहेंगे तो वे सबको सम्भाल लेंगे। इसलिए वे भी जिद्द में नहीं हैं, देवता-भक्त, राजा-प्रजा का यह अदृश्य सम्मोहन व्यक्त नहीं किया जा सकता, मैं किञ्चित लिख उसको संकुचित क्यों करूँ?


अन्दर झूला-उत्सव था, झूलें पर, मध्य में साक्षात् श्रीजगदीश्वर- श्रियालक्ष्मी सहित, उनके एक तरफ श्री चारभुजानाथजी दूसरी और श्रीबिहारीजी और उनके साथ ही श्री सालिगरामजी, मानों साल के कुछ समय स्वयं भगवान्-भक्तों के अति-सामीप्य का आनन्द ले रहें हैं।


प्रसाद भी मिला, मालपुएं मिल गयें तो जो कुछ सम्भावना-कमी-भूख थी, वो भी तृप्तोहं ।

समस्त पूजा-वन्दना-अर्चना-नैवेद्य और शंख-चक्र-गदा-पद्म से साक्षात् के बाद एक वाहक-वाहन गरुड़जी को भी प्रणति निवेदन। वे ही हैं, जो जरिया बनते हैं भक्त-भगवान के बीच। 

गोनेर जाएँ तो उनको आग्रह करने का क्रम आवश्यक रूप से निभायें, ताकि वो समय पर उनको लें आएं। गज-ग्राह की कथा तू सुनी ही हैं, सबने। परम्पराएँ नहीं निभाएंगे, तो छिन्न-भिन्न हो जाएगी।सांकेतिक ही सहीं, थोड़ा-कुछ निभातें चलें, इससे वो फ़िर यथारूप हो जाएगी।

राजकुमार बागड़ा जी का सौजन्य था की सब इतना आसानी से दिखा-दिखाया। उनसे वक़्त भी अनायास ही स्नेहवश मिल गया, व्यस्तता हो तो भी कुछ प्रकृति-प्रदत्त भी है, जो सहज सम्भव कर देता हैं। 

उनका सामर्थ्य तो अपार हैं, पर वे उसको दिखातें नहीं, पर सामाजिकता का भाव उनमें कूट-कूट कर भरा हैं। अन्यथा सामर्थ्य के बाद किसको वक़्त?


मेला-उत्सव वार्षिक सारणी पर लिखें तो हैं, पर देव-जन सब की संरक्षा को प्रेरित, सुरक्षा में सब विराम मुद्रा में हैं।


गोनेर, अब-सा कभी नहीं देखा-एक मन कहता हैं ऐसा कई बार हो, जो कुछ छूट-बच गया वो भी पूरा हो। दूसरा मन कहता हैं की इतना विराम फिर देखने को न मिलें।

 मैं, बड़ी आसानी से दर्शन कर चूका हूँ, पर वे जो अर्धवार्षिक रूप से दर्शन को लालायित हैं, उनका सखा-बाल्य-ईश्वर स्वरुप जगदीश! उससे मिलने की, उसको निहारने की सदिच्छा, वो शीघ्र पूर्ण करें, कुछ हमको भी मांगना था, हम यहीं मांग आएं, केवल इतना भर……


हे! गोविन्द हे! गोपाल
अबकी बार पार करों नन्दलाल (सूरदास)



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