अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- ०४) सप्ताहान्त- शृंखला

आज की कसरत उत्तर की रही, जयपुर के पहले के आमेर और उसके साथ जुड़े, ढूंढाड़ राज्य की। इतिहास सदा ही गौरवान्वित नहीं करता यह एक पहलू है, जिसका ज़िक्र प्रसङ्गतः होगा, पर केवल उसमें ही उलझे तो, हम कहीं आमेर की चोटियों पर ही ठहरे से, सिमट जायेंगे।

आज, पता नहीं क्यों, माउन्ट फ़ूजी की सुनते-सुनते जापान जाने को भी मन करने लगा है, वक़्त-बेवक़्त वो यात्रा भी दस्तक दे ही चुकी है, पर फिलहाल पुरे शहर के उस पार आमेर।

सप्ताहान्त के इस यात्रा वृतान्त में नियति बार-बार, हर बार पानी के घाट के किनारे ला खड़ा कर रही हैं। यह कोई किनारा है या यात्रा की अनथक चलने की वेला कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ, यात्रा का अनन्त से अन्त भी तो?

पहला पड़ाव रहा, सागर। सागर का इतिहास केवल आमेर के साथ शुरू हुआ ऐसा नहीं, क्योंकि इतिहास का एक पहलू यह भी कहता है की सामूहिक सभा में तालाब में पूर्वजों को जल (तर्पण) देने की रस्म निभाने की प्रथा का यह लम्बे समय गवाह रहा है। यहीं इतिहास बदला था कभी, खोहगान मीणा शासकों से कच्छवाहा वंश की तामीर का भी यही किनारा रहा, किम्वदन्ती तो है, प्रचलित मुँह की बातें भी। दगा था, राजसत्ता का संघर्ष या सब बेमाता का लिखा, पर हाँ इतिहास यहाँ से नई करवट बदलता है।

जयपुर भी बाकी अन्य शहरों सा ही है, पूर्वजों की धाती को हमने बड़े खास विकास के अन्दाज़ में ख़त्म किया या तिल-तिल मरने को मजबूर। रामगढ़, तालकटोरा, मानसागर झील (जलमहल), मावठा, सागर तो बड़े नाम हैं, छोटे थे उनका तो नाम ही बिसरा दिया गया। कितनी ही बाबड़िया रही होगी, छोटे तालाब सबके सब भूमाफ़िया की चपेट में काल-कवलित ही नहीं, इतिहास से भी ओझल हो चुके हैं।

गलता की गत भी छुपी तो नहीं।

उनको फिक्र है सागर की मावठे की भी सो वे इसे बीसलपुर ा जल महल से जोड़ देने की जल्दी में है, पर जो अथाह पानी पहाड़ी से बहता है उसको वे क्यों नहीं सहेजना चाहते? कोई जान कर अनजान है, कोई खुद सरकार है? राजा हो या लोकतन्त्र सत्ता पर आसीन को केवल अपने मातहत का कहा ही सच लगता है, क्योंकि उसमें लागत का ख़याल जो होता है। बीसलपुर से पानी लाने की इसी जल्दी ने वेन्टीलेटर पर तड़फा-तड़फा रामगढ़ बांध-तालकटोरा को स्मारक बनाया है।


इतिहास से वर्तमान की इस जद्दोजहद के बीच इसी आमेर घराने से निकले, खंगारोत परम्परा के लक्ष्मण सिंह लापोड़िया को पाता हूँ तो कुन्द हुआ मन फिर, जज्बा दे देता है। 

कहीं अभाव में भी भाव है तो कहीं कोई भरीत-पूरित है किसी पैलेस से इन धरोहरों की उपेक्षा का नज़ारा है, पानी न होगा तो क्या होगा, यह वे संसद में होकर भी नहीं सोचते और कोई इस राजपाट से दूर अहर्निश लगा है।

सागर के दोनों ही और केवल बकरी-भैंस-गाय है, सूखे मैदान में मोटरसाईकल सीखता तरुण, बीच की छतरी में अखाद्य पका तथाकथित दहलीज़ की और आता युवा, पाल के उस पार से थोड़ा अलग भैरव मन्दिर के अहाते में तगारी से मिट्टी डालता वृद्ध।

काश बुद्ध, सिद्दार्थ होते यहाँ आते तो, वे धार्मिक न होते, सामाजिक होते, इसका अन्तर्निहित बुद्ध सामाजिक नहीं थे ऐसा नहीं पर, उनमें धर्म हावी हो चला था। आडम्बरों का नकारता बुद्धत्व आज, उसी के चरम पर है।

लक्ष्य में नहीं था की चढ़ाई पर जाएंगे, पर कंगूरे की ललक में चल पड़े, कंगूरा निराश करता हैं, यह जानते हुए भी। सागर की तलहटी से जयगढ़ के बाग़ की दीवार तक पहुँच, बन्द दरवाज़े से अंगूर खट्टे है सा सोच लौट आये। 

पर उस ऊंचाई से चित्र-विचित्र जयपुर के कई रंग देखें, कुछ वे जो धुंधला सा गए, तो ऊंचाई पर पहुँच ही निराशा ही हाथ लगी, हम भी चार थे, पर चढ़ाई की पीड़ा से दो को आश्वस्त कर की हम मंज़िल पर पहुँच संकेत देंगे तो आप भी चल पड़ना, पर अन्ततः बेहतर यह ही समझा की लौट ही आएं।

भैरव मन्दिर के सेवक से पूछने लगे की पानी कब भरता हैं? पिछले साल-उससे पिछले साल तो नहीं, पर इस बार सागर भरेगा। मैंने जानना चाहा इस बार कैसे, वे आश्वस्त थे, क्योंकि बीती रात ही वे भैरवजी से बतियाते, बात करते आश्वासन ले चुके थे। 

उनके मन में अभाव में भी, संतुष्टि थी, हम लौट रहे थे तो पाल के किनारे से देखा, वे फिर तगारी उठाये, मानसून की आहट में आशंका में अपने गौधन को सुरक्षित कर लेना चाह रहे थे।

सागर से लौट रहा हूँ, पर आश्वस्त नहीं हूँ की कोई परिवार के साथ यहाँ आएं। यह बेहतर स्थिति साथी कह रहें हैं, तो अबसे पूर्व क्या था? हर कहीं जयपुर में इतना ख़ौफ़ कौन कर रहा हैं? क्यों सुधरने-सुधारने की दोनों ही संस्थायें किताबी-खिताबी रह गई? ज्ञान बिकने लगा है और अखाड़ों की बोलियाँ लग चुकी है, हर कोई प्रो-कबड्डी की राह में है, भूख सबको बहका-भटका रही है।

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