अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण - ०३) सप्ताहान्त- श्रृंखला

शहर स्वार्थी होता है, गाँव परोपकारी! ऐसा भी कुछ नहीं होता, बात-प्रसङ्ग केवल संस्कार और सत्संगति की होती है। केवल कुछ पल आपके, जीवन को इधर-उधर मोड़ देने को पर्याप्त होते हैं। क्षणिक भी व्यग्र होने की आवश्यकता नहीं हैं, तब या आज, भारत हो की दुनिया, सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों की संख्या इतनी ही थी, अनुपातिक दृष्टि करें तो।

यात्रा अनन्त पर्याय है, हम दूर-दूर की यात्राओं पर जाते हैं जीवन के कुछ नए अनुभवों, रोमांच और चिर-स्थाई वृतांतों को यदा-कदा स्नेही लोगों से साँझा करते है, फिर वो उस पड़ाव में शामिल होते हैं, उनके अनुभव फिर किसी को, और यह सब अनवरत......... ।

तो यात्रा जरुरी ही?

हाँ।

प्रति प्रश्न- कौन है जो यात्रा में शामिल नहीं?

हूँ, यूँ तो कोई नहीं।जीवन-सृष्टि-जगत जो कहें, हरकोई यहाँ यात्री है, उसके पड़ाव है और उससे निकला सार, अन्ततः असार में विलीन।

अपने आस-पास के अछूत को जानने की इस कड़ी में आज जात्रा का पड़ाव रहा हरसौली-सागरड्डू-कचनारिया-नगर। कुल मिलाकर दूदू से मालपुरा तहसील तक का ……शेष रहा सफर।

इतिहास की दृष्टि से इस क्षेत्र को देखें तो ज्यादा पीछे नहीं, आमेर के शासक बनें दुल्हैराय से शुरू हुआ राजमार्ग, पगडण्डियों सा कालान्तर में विकसित हुआ यह इलाका। ज्यादा कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य की और न जाऊं, केवल कुछ किम्वदंतियों को थोड़ा सच मानें तो महाराणा प्रताप-मानसिंह, प्रकरण में असहमत सा होता-विरोध के बाद आमेर से अलग, अपनी पहचान को आतुर खंगारोत कुल परम्परा इस इलाके को स्थाई वास के रूप में देखता, स्वीकारता हैं।

जब आवास बनेंगे तो, घर-हवेली-गढ़ सब ही होंगे, पर- लक्ष्मणसिंह लापोड़िया की सुनी, कहें तो तालाब सबसे पहले, पानी के बिना जीव, अनाज और कोई भी विकास अधूरा ही तो रहेगा।

अब, सवाल यह की यह लापोड़िया? लक्ष्मण सिंह? और उनकी बातें महत्वपूर्ण क्यों?

हाँ वो तो शुरू में ही बताना था, यह सब उनकी ही तो कृति है, मैं केवल उसको कागज़ पर उकेरने वाला भर तो हुआ। वे, उनका सुना भी तो सब लिखित इतिहास से अतिरिक्त किम्वदन्तिया सा ही तो !!!

कबीर कहते है- मै कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी । और उनका कहना, सुनना मानो कोई जीवंत सा आँखन के सामने, केवल और केवल लाइव। सब कुछ मानों चल रहा हैं, पानी के तालाब की लहरे, बांधों में लहर और नहर का पानी उत्ताल।

एक ठिकानेदार परिवार जो सत्तर के दशक में अपनी सहस्त्र जोजन भूमि से सिमट चार सौ बीघा में सिमटा, फिर भी जमींदार सरीखा उसकी क्या पहचान होगी?

जागीरदार से जमीन्दार और अब एक किसान, किसान जो आत्मविश्वास से भरित-पूरित हैं, जिसका मन कहता है की यह धरती माता उसको सदा ममता देगी, वही लाडो-कोड उससे आजीवन मिलता रहेगा जो मां के आँचल सा उसे सब विपदा में बचाएगा, पर उस धरा को अतृप्त मैं न होने दूँ, मैं मनुज, मैं जलज-तोयज-वारिज और तदरिक्त हर उस जीव को संरक्षित करूँ, आखिर मनु-पुत्र की जिम्मेदारियां सबसे ज्यादा है, नहीं?

एक प्रचलित शब्द है, रावळा- जिसका कुछ समीप का अर्थ लें तो पुराने किलें या गढ़ी के इर्द-गिर्द बसी बस्ती। तो हुआ यूँ की किसी आपसी विवाद के बाद पुलिस अधिकारी के पास गुहार को गए तो अधिकारी ने पूछा- तू क्या करता है? (उम्र-सम्मान को दरकिनार करते हुए)

साब छोटी-मोटी खेती।

राजपूत तो, खेती?

साब, अब कहाँ सब, अपना मिरिच-टमाटर को बेच काम निकाल रहें है।

साथ गए, परिचय को उद्यत हुए साथी, उनको रोकना पड़ा।

इतना जिसका परिचय है, खुद की अपनी पहचान है, साठ गांवों में हर दूसरा सरपंच-पंच उनका गढ़ा-सत्संगति का हिस्सा हो, यह उनकी बानगी-सादगी का एक केवल एक तमगा सा है, जो केवल धातु-सा। पर जो तरल है, सजीव है वो, उसको लिखने की भूल में लगा, कोई मैं।इस मैं, में तितिक्षा, प्रतिक्षा और मुमुक्षा सब ही तो है, तभी चल पड़ता है, हर बार कहीं दूर, जहाँ पानी मिलें। क्योंकिं ...पानी गये न उबरे मोती-मानस चून।

यह एक परिचय, दूसरा वह परिचय जो दुनिया में लापोड़िया मॉडल के रूप में जाना-पहचाना जाता है, मैं-आप जाने, उनको मान्यता दें, उनका चारण-विरुदावली गान करें, वे छपे, दुनिया को बेहिसाब चैनल में दिखें, इसकी परवाह किसे, … जयपुर से कोसों दूर है- मेरे आज के कथानक के मुख्य पात्र लक्ष्मण सिंह खंगारोत।

जिनको अक्सर लोग केवल लापोड़िया जी भी प्यार से कहते हैं, दो नामों के बीच इतना अन्योनाश्रित सम्बन्ध की आदि कहो की अन्त भाव वही जाएगा।

हरसौली के बाद सब ओर तालाब और उनके आगोर (catchment area) ही नज़र आयें , जल संरक्षण का यह अद्भुत प्रतिमान कब बना, किसने बनाया, क्यों बनाया, किसने पैसा लगाया, इससे हासिल क्या हुआ, ये सब व्यर्थ का है, ये सब तर्क-कुतर्क आज नहीं तब की पीढ़ी ने भी उठाया होगा, नहीं?

और इस काफिले में निन्दक नियरे राखिये वाले समाज ने उनको साथ ही सम्पोषित किया होगा, वे भी तो अन्ततः प्रेरणा-समालोचक-परिणाम के प्रति शसंकित कर, आपके आग्रह, प्रवृत्ति को ही शसक्त करते हैं। पर इसी मानसून काल में मायें- सन्तति से कहती है की - नगर की यात्रा में जरूर जाना, वहाँ अपनी-अपनी जमीन-खेती की बात होगी। स्वार्थ तो हैं, पर उसको जोड़ने की कुव्वत, वह समर्पण-शुचिता सामाजिक जीवन से नदारद होता प्रतीत हो रहा है, कैसा दौर है-यह। हर कोई राजनेता होना चाहता है, मानो केवल वही सर्वस्व है। यही तो अफ़सोस है, जहाँ समर्पण होना चाहिए वहां स्वार्थ-परिवारवाद और प्रतिपल बदलती अतृप्त कामनाएं हैं, और जहाँ स्वार्थ होना चाहिए, मैं-मेरा-कुटुम्ब भर की फ़िक्र वहाँ समर्पण, यही सनातन को मूल स्वभाव, तासीर है- शान्त-सरल-सहज और सौख्यदाता।

हर गाँव में दो तरह के तालाब, एक अन्न-सागर जो पुरे इलाके की सिंचाई, खेती को सम्पोषित करता दूसरा केवल पशु-पक्षियों की ख़ातिर और उससे ज्यादा भूमि को सदैव नमी देता हुआ, उसका उर्वरा को बनाये रखने का जतन। और यह सब स्वप्रेरित समाज की जिम्मेदारी से आगे बढ़ता, पुरे हज़ारों साल का गवाह, हालांकि मस्टरोल में तालाबों की दीवारे बना उनको भी संकुचित करे के प्रयास तो हुआ हैं, पर गाँव की पंचायत की बची ईमानदारी में वे सब बाकि और जगहों की तरह इस विस्तीर्ण जल-सभ्यता को लील नहीं पाएं।

कथा, अनन्त है, लक्षमणेनान्वितो राघव: पातु माम् - जिसमें लक्ष्मण-राघव के अनुगत है, पर यहाँ हम सौमित्र के साथ पगडण्डियों पर है जो राघव की ओर का मार्ग है, राह है-उस समाज की जो सब की सोचता है, केवल मानव-मानवीयता की परिभाषा इतनी छोटी-संकीर्ण नहीं है, जो हमने गढ़ी है। जीव-जन्तु, चराचर सब ही तो इस सृष्टि-जगत में शामिल है।

मेरा या यह कोई वायरल सच नहीं, दुनिया के तमाम वैज्ञानिकों ने इसे माना है की जिस दिन दुनियां से खूबसूरत तितलियाँ, शहद बनाती मधुमखियाँ नहीं होगी, दुनिया वेन्टीलेटर पर दम तोड़ती नज़र आएगी।

बहुत से लोग यह सब सोचते है, तदनुरूप कार्य को तत्पर है, जीवन-उम्र को दरकिनार करते हुए, बजरी माफिया तो इस क्षेत्र में भी है, लकड़ियों के गट्ठर बनाने वाले भी और निरीह जीवों को अपना भोज्य बनाने वाले जीव(नर)भक्षी भी। पर, खरगोश के अन्तिम संस्कार में हज़ारों लोग, उसकी समाधि भी यहाँ है, तमाम सूखे में भी जीव-जन्तु-जानवर की परवाह करता, लीक से हटकर बना तालाब-नाडी भी।

यह साठ बीघा एक अजूबा है, कुछ वो जो तात्कालिक समाज से बड़ी मेहनत-सिद्दत से बनाया, अपने खून-पसीने की कमाई का सर्वस्व लगाया, ताकि यह सृष्टि क्रम अनवरत बनें और उससे ज्यादा समय-समय पर उन्हीं की घूंटी का असर दिखाता कोई - लक्ष्मण सिंह लापोड़िया सरीख़ा व्यक्तित्व। जल संरक्षण में जीवन जिनका आख्यान बन ख़्यात हो गया, उन अनुपम मिश्र जी का अपना शिष्य बता आदरस्पद-नमित यह व्यक्तित्व उस विराट का दर्शक है, यह एक और संजोग हैं।


बारिस आएगी, पानी को बहना ही उसकी प्रकृति है, पर उसकी ढाल में उसे कई मुकाम मिलेंगे, उसको धरती माता से जुड़ना होगा, उसकी सन्तति को संरक्षण देना होगा, और उस पानी को कहीं तालाब में ठहरना भी होगा, कहीं नालों से नदियों और सागर तक बहना भी, सागर से फिर वाष्प बनेगी, वाष्प से बादल, वे मेघदूत मरुधरा को फिर तरबतर करेंगे, पानी को बहना है, बहता रहेगा........

'मन गोरख मन गोविन्दौ, मन ही औघड़ होई।

जे मन राखै जतन करि, तौ आपै करता सोई।।'

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