अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- ११) सप्ताहान्त- शृंखला

जयपुर कितना पास है, कितना दूर यह समझना बड़ा आसान हैं। बस, आपकी ललक हो तो, यह महानगर, कई अहसास, खुशबु और मिठास देने वाला हैं। 

पुराने ज़माने में मारवाड़ी लोग जब, दिल्ली-मुंबई-कलकत्ता-मद्रास होते थे तो, वे अपने मूल गांव को देश कहते थे, इसका मतलब ये शहर विदेश से होते-लगते थे, और देश का आशय होता था, देशज भाव, कुछ ऐसा सा भाव इस गुलाबी नगर जयपुर में भी आता है।


चार दीवारी, पुराने जयपुर से बाहर विस्तारित हिस्से में गए लोग, आज भी पुरानी यादों को "शहर" शब्द के साथ याद करते हैं, उर्दू में इसको अता फरमाते हैं ऐसा कहते हैं।


जो भी बच्चा इस शहर में जनमता
पूछता कि किस बात पर यह बहस हो रही?
फिर उसका प्रश्न ही एक बहस बनता
बहस से निकलता, बहस में मिलता…
पर नींद में भी बहस ख़तम न होती
मेरा शहर एक लम्बी बहस की तरह है….(अमृता प्रीतम)


तो क्या मैं आज शहर हूँ?? नहीं तो !

केवल शहर से, उसके विस्तार या कहें उपनगर के समीपस्थ- लगभग पूर्वी-पश्चिम का कोना। जहाँ का आसमान ऊपर होगा, और धरती सौंधी महक वाली, ये हिस्सा सिंचाई की दृष्टि से उन्नत है, सो यह सब।


कुछ पहाड़, कुछ नदी-तालाब और मैदानी हरियाले के रास्ते, सिरौली टिब्बा पहला। शायद यह, इस हिस्से के जयपुर का द्वार है, नगर प्रवेश और नगर के बाहर किसी मुकाम की डगर।


अब इस क्षेत्र को व्यावसायिक महत्व और कॉरिडोर सा दर्जा हासिल हो रहा हैं। 

रिंग रोड़ के इस पार-उस पार किसान समृद्ध हुए या निर्धन इसकी भी अपनी-अपनी मान्यतायें हैं। 

जमीन की कीमत तो उसके लिए होगी, जो उसको बेचेगा या खरीदेगा।




पर जो, "धरती माता तू बड़ी, तुझसों बड़ो न कोई"

वे, आजकल चिन्तित हैं, कुछ इस बहके से दौर से कुछ हमारी पीढ़ी की मनमानी से बर्ताव से।


नयी पीढ़ी का अब जुड़ाव जमीन से नहीं, पैसे से है। बस्सी के रस्ते मिले च्यवन ऋषि की बारह गाँव परम्परा के सज्जन - "उनको सब कुछ बेच चैन नज़र आता है, पर हमारी पीढ़ी का तो मन-जीवन और उसके बाद का गन्तव्य सब ही तो जमीन से ही जुड़ा है।" वे कह रहे थे, तो मैं और भी चुप्प सा रह गया, प्रश्न तो थे, पर सब भूल गया।


पर बस्सी पहुँचते-पहुँचते तो शाम हो गयी थी, उसके पहले के सफ़र की कहूं तो आगे बढूं, तो चलूँ-तो चलूँ ।


अब, सिरौली के इस पार थे, थोड़ी दुरी पर मन्दिर नज़र आ रहा था। उसके सामने का भूभाग किसी जल संरचना का संकेत तो तहक़ीक़ात सा मैं, अनुमान सही रहा, गाड़ी के ब्रेक वही लगे। बाकि मंदिर का बाहर का हिस्सा यहाँ भी बेतरतीब सा ही तो था। एक नल, फटा सा फ़्लेक्स, नारियल के टुकड़े, क्यों हमें सौंदर्य-बोध की फिक्र नहीं?

वहां के पुजारीजी अपने वहां की सेवा का इसी साल रजत-जयन्ती सा मना रहे हैं, उत्सव नहीं कार्य को गति देकर वे ज्यादा सन्तुष्ठ नज़र आएं। 


बाहर ओर के एक तिबारे में तीन विग्रह विराजित, सामने वाला तिबारा सराय सा, तब भी अब भी। 

यह सराय का कॉन्सेप्ट पहले की कड़ी में दे चूका हूँ, हर एक गांव के बाहर ऐसा आकार हर कस्बें के प्रवेश द्वार पर तब होता था, अब क्या? आप खुद देख लजिए।


शायद मन्दिर पुराना था? इस नया? इसमें कोई अन्तर न होगा। मन्दिर से यह स्थापत्य बचा की? यह भी?, सवाल भी आते हैं तो आते ही चले जातें हैं। उधेड़बुन से जिज्ञासा तो लातें हैं , पर आदमी अपने देश में रोटी को राम से जोड़ चूका है, यह रोटीराम केवल पेट की फिक्र में फिर इतिहास वो ही होगा जो डिडी बसु या रोमिला थापर कहेगी, वही तो लिखा और सच, अब नहीं तो कल मन लिया ही जाएगा, और आपके बचे-कुछे प्रसङ्ग किस्से-कहानियां तो।


उस पार से सीढियाँ उतरने लगे, एक-दो-तीन-चार, हाँ हर एक मंज़िल के इस ओर-उस ओर के तिबारे में कोई न कोई देव विराजित। कोई कल्पना करता है,तो वो साकार भी होती हैं, पुजारीजी की मनोकामना यूँ ही पूरी होती चली गई। और वे अपनी आजीविका-आधार सब यही, उनकी खोज-उदरपूर्ति-जिजीविषा सब यहीं, इसके सिवा जाना कहाँ।

अबकी मंज़िल में कोई प्रत्यक्ष स्वरुप तो नहीं था, पर देवता थे, जिन्होंने इस स्थल को बचाने का जिम्मा लिया, वे यहाँ स्थायी विराजित हुए। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष का यह क्या? वास्ता? यह एक लम्बा विषय, प्रकरण है, इसको भी कभी अवसर होगा तो लिखेंगे। नास्तिक सी प्रचारित अमृता प्रीतम की द्रिक भवन, अक्षर-कुण्डली के आगे, इसमें कोई वैसा काम आगे हुआ नहीं। या तो गल्प गढ़े गएँ या अतिरंजना सा।

बाबड़ी का कुवां हैं, तो भी नहीं सा। जो जैसा बचा रहें तो भी क्या कम? सुन रहे हैं की विकास की सड़क शायद अब इसको जल्दी की डामर की पट्टी में बदल डालेंगी। कोई पुरातत्व या किसी की जागरूकता इस पुरातन ढांचे को बचा भी सकता हैं, क्या बुरा है? ऐसे भी कोई अकबर की कोश-मीनार सा राजमार्ग का वैभव बना दिया जाएँ? विकास जरुरी है तो, उसमें यह बाबड़ी वाला सर्किल हो जाएँ ? 

पर बच जाएँ तो, नाम वे रख लें उनकी मर्जी का, फिर सरकार बदले वे अपना बदल कर नाम रखे, पर बचा सकें तो न?


यूँ तो कोई भी ऐतिहासिक तथ्य मेरे पास या उन पुजारीजी के पास भी नहीं, तो भी जयपुर राजपरिवार से जुड़े बोहरा जी ने अब से करीब पांच दशक पूर्व इस बाबड़ी का निर्माण या मरम्मत करवाई थी, इसको मानने के तर्क, साक्ष्य किंवदंतियों सा हैं।


हम फ़िलहाल के लिए, बोहराजी की बाबड़ी या सिरोली टिब्बा की बाबड़ी से आगे चलते हैं। कुछ बचा तो दिखा, कुछ और भी होगा पर जानने वाले अब आम रास्तों से दूर हैं, कोरोना का भय किसी न किसी रूप में हर-कहीं विद्यमान तो हैं ही। कुछ फिर जब इधर को रुख करेंगे तो और जान सकेंगे।


आगे के सफर में फिर कुछ और वृहद का दर्शन होगा, वैसे भी गोनेर की महत्ता भजन-दर्शन-कीर्तन में निहित हैं, यह क्षेत्र लोक परम्परा में वैदिकी का दर्शन करता हैं, फिलहाल फिर से रास्तों में, बादलों के साथ-साथ, कुछ पल को लगा की वे हमें रास्तों का भान करवा रहें हैं, पर वे छोड़ चलें- खुद अपनी राह चुनों-यह अथाह दुनिया, आसमान और पृथ्वी अनुचर नहीं, अनुगामी होकर नहीं देखि जा सकती।


वो बादल रास्ते बदल रहा था, हल्की-हल्की फुहार थी, अभिषेक की? नये गन्तव्य के प्रयाण में शुभकामना या अश्रु, पीछे रहे लोग सोचते रहें, वो अपनी राह-हम अपनी राह.......बादल का प्रसङ्ग भी अछूत सा.........



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