अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- ०८ ) सप्ताहान्त- शृंखला

जब निकल ही पड़े तो फिर न थकान न शिकन और रुकने का नाम क्यों?

रास्ता, सफ़र, राह जो चाहे कह लो, बेहद खूबसूरत होता है, मंज़िल तो केवल विराम हैं, रुकने का संकेत, की हाँ बस सब कुछ हासिल, और पा ही लिया तो फिर जद्दोजहद क्यों?

दुनिया के तमाम एडवेंचर जंगल या पानी में रहें हैं, इसमें क्या मूल ज्यादा पता नहीं करना, पर मूलतः दोनों ही एकाकी है, इस अकेलेपन को कोई हिमालय में तपस्या कहता हैं कोई और एवरेस्ट फ़तह। साधना तो दोनों ही जगह है, और जन्म-मरण-जरा-व्याधि सबसे निजात भी।



राजमार्ग से थोड़ा भी उधर-उधर निकल पड़ों तो अथाह हैं, बोरियत को सलाम करता इस बार का काफ़िला था जंगल की ओर। जितना नाम से जानने की ललक हो तो इतना सा नाहरगढ़ बायोलॉजिकल पार्क, पर रस्ते खोजने को निकलों तो कई तरीकों का जंगल। सरकारी बन्दिशें न होने से कुछ आसान तो कुछ मुश्किल दोनों ही होंगें, पर जब लौटती मोटरसाइकिल का रेला देखा तो पहले तो श्रावण का असर दिखा, पर जब रोककर रस्ते का अंदाज़ लिया तो पता चला यह केवल जंगल नहीं, सेतु भी है- जयपुर को सीकर राजमार्ग से दिल्ली राजमार्ग से जोड़ता।


जंगल को अब हर कोई आम रास्ता बनाना चाहता है, विकास की नवजात और अभिजात्य परिभाषा सड़क-बिजली-पानी की लाइनों के इर्द-गिर्द ही हैं, बस। इस इन्फ्रास्ट्रक्चर ने मूल ढांचे को जितनी हानि पहुंचाई है, वो सरिस्का के जंगल से जाते रास्ते से सीख ली जा सकती है। वैसे निर्वाचित जनप्रतिनिधि हो या पराजित दोनों से अलग-अलग हुई बात के बाद ही यह अंदाज़ा लगा की आवागमन का यह रास्ता सुकर हो इस पर वे दोनों ही सहमत है, पर मैंने उनके इस प्रतिमान से असहमति दिखाने में कोताही नहीं बरती। माना उन्होंने भी और केवल आवाजाही के वाहनों की रजामन्दी दिखाई, भारवाहक गाड़ियों पर वे भी असहमत ही थे, मतलब कहीं न कहीं किसी बात को उठाया जायें, उसके विकल्प खड़े किये जायें सम्भावनाएं सदैव आहट देती हैं।


चलिए, वापिस जंगल की ओर, कई सारे बोर्ड बतला-जता रहें हैं की हर कहीं कुछ न कुछ है, पर जब विशाल पिंजरानुमा ढाँचा, संकेत था, और फिर स्पष्ट भी हुआ की यह लॉयन सफारी हैं। कोरोना में उस दूर के मुसाफिर को भी थोड़ी फुर्सत होगी शायद। मतलब, गुजरात की उपस्थिति यहाँ भी है। वैसे यह गुजरातियों का खास अंदाज़ रहा हैं की वे हर कहीं, जहाँ भी जुड़े हैं उन्होंने अपना मक़ाम ऊँचा रखा है, आपसी समझ-एक दूसरे को बेहद मदद का यह गुण, काश मारवाड़ी भी इस रूप में ले लेते तो राजस्थान भी आज विकास के प्रतिमान गढ़ता नज़र आता। पर हुआ इससे उलट अपने लोग जड़ों से दूर जाते चले गए, और वे उसकी ओट में लौटते नज़र आएं।

आज इस आरण्यक में आना, उसकी रुपरेखा में पहाड़ी की तलहटी में बैठे बाबा भूतनाथ थे। रास्ता घूमता जा रहा था, जिधर हम थे उधर ही हमारा गन्तव्य था, यह संकेत लगातार राहगीरों से मिलता रहा, और तभी शिखर नज़र आया। कुत्ता, बन्दर को भगा रहा है, बन्दर गाय को डरा रहा है, यह कोई राजनैतिक कथानक नहीं, एक संयोग सा है की अब आप बाबा भोलेनाथ की टेरेटरी में आ चुके हैं, वैसे असितगिरिसमंस्यात्‌ कज्जलं सिन्धुपात्रे सुरतरुवरशाखा लेखनीपत्रमुर्वी और अन्ततः पुष्पदन्त जैसे मूर्धन्य भी कहते हैं की ईश पारं न याति, तो हम सरीखे तो चुप रह ही आनन्दानुभूति कर सकते हैं।

वर्त्तमान पुजारी जी की सुनें तो इक्कीस पीढ़ी तो उनकी ही इस साधनास्थली से जुडी है, उसके पहले कौन, कोई और, न जाने कितनों की वैतरणी पार लगा चुके हैं वे भगवान् भूतभावन। बचपन में शंकर-पार्वती के यात्रा वृतांत के माध्यम से कहानियां बढ़ती थी, उसमें शक्ति के आवाहन पर शंकर का सायुज्य रहता था, शायद वैसा कुछ इस पर्वत शृंखला से भी जुड़ा हो। मंदिर परिसर में गौशाला का होना शकुनदायक, उससे अच्छा उस दूध का मंदिर में ही पूजा और नैवेद्य में उपयोग, एक अच्छा उद्धरण था। इसी परंपरा में नया तरुण अब संस्कृत शिक्षण को उन्मुख है, जानकर-मिलकर सौरभ से अच्छा लगा। वहां के बन्दर अति-उत्पाती है, कभी जाएँ तो सावधान रहें ही।


मंदिर के सामने विशाल पर्वत पर मानव-निर्मित आकृतियों का होना, जिज्ञासा का सृजन !!! तो यहीं हैं, कछवाहों के पहले आमेर राज का तत्कालीन केंद्र। जीहां मीणा राजाओं का विशाल किला। कहते हैं की उस कीलें के निर्माण के पूर्व इस मंदिर का जो जीर्णोद्धार हुआ था, वहीँ शिखर अब तक मंदिर को दूरदर्शी बना रहा हैं। यह लम्बी चढ़ाई, वहां पर बचे पुरातत्व किसी बरसात के बाद, थोड़ा कम तपते दिन में होगी। फ़िलहाल कुछ बाटी-चूरमे की प्रसादी से वापसी की ओर।

जाते समय रास्ता अनजान था सो लम्बा लगा, पर अब तो यह भी अपना सा ही हो गया। रस्ते में कुछ तरुण हैंडपम्प पर जुटे थे, बारी-बारी से पानी को…., पर कोई बर्तन तो नहीं था, फिर? रहा न गया, पूछने के पहले ही पास में छोटा जलकुंभ सा पृथ्वी पर नज़र आया। पर सवाल तो पहले ही जा चूका था, वे बोले की दिन में दो-तीन बार वे ऐसा करते हैं, प्रयोजन जानने की उत्कण्ठा और बढ़ी। उनका कहना हैं की गर्मीं में जंगल के जानवरों को पिने के पानी की दिक्कत होती हैं सो वे इस तरह के कई जगह छोटे तालाब सा बना उसमें पानी भरते हैं, ताकि कोई जानवर प्यासा नहीं।



फिर, मन में सकारात्मक मिला, कुछ क्षण रात होते रस्ते के बाबजूद भी, उन विद्यार्थियों से बात चल ही पड़ी, कौन प्रेरणा देता हैं ऐसी? क्यों वे धूप-छाँव और जंगल के जानवरों से त्रस्त होने पर भी, उनकी इतनी सोचते हैं। सब संस्कार है, सब बचपन की घुटी सा है, जिसका असर जीवन के बढ़ने के साथ बढ़ता चला जाता है, अच्छा दिया तो उसका विस्तार होगा, बुरा तो आसानी से फैलता ही हैं।


अखैपुरा पंचयत के सिसियावास के इन भावी पीढ़ी के बच्चों का भाव-अंदाज़ अच्छा लगा। बातचीत चली तो पता चला की उनके गाँव में स्कूल केवल प्राथमिक स्तर का हैं, वे इसी जंगल और पहाड़ी की पगडण्डियों को पार कर आमेर पढ़ने को जाते है, और कई बार जंगल के जानवर उनकी बाधा भी होते है, डर के कारण झुण्ड में ही वे स्कूल जा सकते हैं।


सोचता हूँ, यह कौनसा प्रतिमान? योजनाओं को देश ने लागु किया की आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी घर से कुछ दूर स्कूली शिक्षा भी हम अपनी पीढ़ी को नहीं दे पाएं, कुछ वो हैं जिनके खातिर सुबह-शाम बस आती है, वे प्राइवेट स्कुल के विद्यार्थी और सरकारी स्कुल अब भी लाचार भर?? कितनी लचर हैं देश की शिक्षा के मूल अधिकार की बुनियाद।


मन फिर खिन्न हुआ, बात करने का मन और भी था, पर अँधेरा बढ़ा था, पूरा जंगल पार करना था। रौशनी की चादर को काला होता देख रहा हूँ, मौन था मैं, बाकि दो और भी।


दूरदर्शन का विज्ञापन दिमाग-मन मस्तिष्क में चल रहा था, स्कुल चलें हम.....

तो वो भी केवल कालें को गोरे करने की क्रीम की तरह ही था, बच्चों के साथ, नयी पीढ़ी के साथ केवल मज़ाक था

हैं, सच में???


अँधेरे को चीरती गाड़ी से अविकार आगे बढ़ रहें थे, पर मन तो उस हैडपम्प पर ही अटका सा रह गया, फिर जाएंगे, भावी पीढ़ी की बहुत कुछ सुननी जो हैं, खुद को रोकना चाहा पर उस रात ही जनप्रतिनिधियों को सोने के पहले कहने से अपने आप को रोक नहीं पाया।


अछूत जयपुर में सामान्य शिक्षा, तालीम भी इतनी अछूत हैं, अब तक?


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