अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- १०) सप्ताहान्त- शृंखला

कौन है वो? कौन है वो?
कहाँ से वो आया?
चारों दिशाओं में तेज सा वो छाया
उसकी भुजाएँ बदले कथाएँ
भागीरथी तेरी तरफ़ शिवजी चले
देख ज़रा, ये विचित्र माया

कभी सोचने का अवसर आया नहीं, या सोचने की वो क्षमता नहीं थी या कुछ ओर। 

पर अब चौथे दशक में सोचता हूँ की कोई भगीरथ था जिसने नदी की धारा को बदला, केवल हिमालय तक सीमित, आदि-अन्त से इतर जिसने सोच, मानवता को नई दिशा दी। 

कुछ पल के लिए सब अवतार, मोक्षदायिनी को याद न करें तो, सागर के सौ पुत्रों से पुराण प्रसङ्ग है, तो भी।

और सोचिये, कितना बड़ा कार्य था यह, की आगे से अकल्पनीय प्रयास, सार्थक ऊर्जा से जुड़कर किया गया महनीय कार्य का पर्याय हो गया- भागीरथ प्रयास। 

राजस्थान में यह नाम अपने आस-पास बड़ी सहजता से उपलब्ध है, उसमें कितने नाम को सार्थक करते हैं या नहीं वो एक अलग विषय हैं। 

सीकर के कटराथल में स्वनामधन्य एक व्यक्तित्व हुए थे, जिन्होंने न केवल शेखावाटी अपितु, अपने प्रभाव से जयपुर संभाग में आयुर्वेद की नयी दिशा दी, वे वैद्य प्रवर भगीरथ थे, पिपराली में उनका बड़ा केन्द्र था, अब पिपराली राजनैतिक हो गयी वो भी एक अलग दुविधा-सुविधा हैं।


खैर, पानी की इस जलधारा में आगे कई लोगों ने प्रेरणा ली, जलधारा को जीवनधारा में बदला-बढ़ाया। जीवन की गति, जल की गति साथ हैं, आकाश से सागर। कुछ उसी तरह शरीर, जैसे आत्मा का देह से जुड़ाव। जब तक हैं सजीव, न तो मुरझाते पेड़-वनस्पति सा जीवन।

कितने अनाम लोग हैं, जिन्हें मैग्सेसे नहीं मिला, पद्म तमगा भी फिर भी उनकी अनवरत जल को समर्पित यात्रा को निराशा नहीं मिला वे हताश नहीं हुए, केवल ध्येय में निष्ठावान हे, न कोई दल-व्यक्ति-विचार उन्होंने ओढ़ा, आवरण की बजाय वे केवल आकाश-जमीन से तारतम्य बैठाते रहें, जल-वायु और अग्नि तो प्रेरक-जीवक थे ही।



अचरोल की तलहटी में छोटा सा गाँव-अणि। अब तक शायद आपको बोर्ड नज़र नहीं आया होगा, पर अब जरूर आपकी आँखे उसको खोजेगी। ऊपर अचरोल के किले से तो मन जिस जगह का प्रसङ्ग ले रहा हूँ वो केवल सफ़ेद सुर्ख, पूर्ण शरद का चाँद सा नज़र आएगा, पर वहां ऊंचाई से जो देख, अनोखे लाडले खेलन को मांगे चाँद बचपन से सुनता हो, वो मचलेगा भी और चाँद को पाकर ही चैन पायेगा।


जीहां, अब साहित्य की बजाय हम, तालाब की पाल पर थे। इसका आगौर कितना होगा? हूँ? केवल एक तरफ का अनुमान तो लगा सकूंगा, बाकी उत्तर-दक्षिण-पश्चिम में तो कोई ओर-छोर नहीं, जी? हाँ-बिल्कुल। सही,सही इसको केवल व्यवस्थित ही कर दिया जाए तो पूरा बांध सा पानी, जयपुर को पानी देने को स्रोत हो सकता हैं।


पर तभी लगता हैं क्यों लिख रहा हूँ, कहीं इन बड़े मैकाले की परिकल्पना को इसका पता लग गया तो??? वो इसको भी नज़र लगा देंगे? रहने दो इतना ही? मेरी बात के माने दो जो अच्छा लगे अपना लों, बुरा लगें उसको जाने दो। यह भी ब्राह्मणों की ढाणी थी, केवल वे ही पर अब केवल या कोई नहीं शायद? रोजगार उनको शहर में भी मिला होगा, नहीं? पर अपने गाँव को छोड़ वे फ्लैट्स में कुछ हैं इसको विडम्बना ही कहेंगे की जो जमीन को सबकुछ मानते थे, पर धारा बदल रहीं हैं। तभी तो नदियाँ या तो बाढ़ या पाताल से समां गई।


उसी पाल पर कुछ बणजारे थे, बुजुर्ग की जुबान मानों प्रश्न की प्रतीक्षा में था ही नहीं, इतिहास-वर्तमान और दम तोड़ते तालाब का दुःख सब जापान की बुलेट ट्रैन सा बफारा निकल पड़ा, और फिर मौन, रुआँसा सा। उसी परिवार की नवयौवना, रोते बच्चें सो छोड़ पानी को गई तो मासूम बचपन मिट्टी में खेलता नज़र आया, धरती माता कितना स्नेह देती हैं, जेब में रखी कुछ टॉफिया दे अपने को दिलासा भर दे पाया। बेतरतीब मन्दिर ऊपर नज़र यहाँ भी आया। यादव जी बता रहें थे की दक्षिण की पहाड़ी के उस पार लबाना की घाटी में भी बरसात में अपार जल राशि है, पर कुछ सड़क और कुछ इस बरसती नदी का रास्ता न होने से यह सब जलराशि, आगे गन्दे नालें को भेंट चढ़ जाता हैं, किसको कहें? एक अनपढ सब जनता हैं पढ़े-लिखें शहरी को यह सब समझ नहीं आता, दिल-दिमाग से अंग्रेज ने देश का बंटाधार किया नहीं अभी तो और शेष हैं।


सड़क से अन्दर इस जल-धरोहर तक आने को पूरा गाँव देख रहा था, वे आशंकित-सशंकित थे या खुद के कब्जायें भूखण्डों में फिक्रमंद भर। पानी का तालाब उनके लिए कोई महत्त्व रखता हो लगा नहीं हाँ तो भी वे उसमें जानवरों के पीने लायक पानी को भी छोड़ने में मूड में थे नहीं सिंचाई बड़ी या पशुधन, पर उनका धन अब न जल है, न गौ-धन।


चलते हैं, कोई और कुछ सोचें उससे पहले, रास्ते में कई लोग थे, उनको खबर मिली की बड़ी गाडी आयी हैं तो वे शायद हम रवाना नहीं होते तो प्रश्नों की झड़ी लगा ही देते, वैसे रिमझिम तो आकाश की ही सही, शुरू हो ही गई थी, कोई संकेत सी।


ढंढ और लबाना के बीच फिर कोई मङ्गल पर पानी की खोज सा हो गया, दो बार लम्बे रास्ते, डिवाइडर न होने से चक्कर हो रहे थे, मैंने कहा- फिर कभी, पर गोमभाई नहीं मानें, उनको भी इन दिनों अछूत जयपुर का नशा सा चढ़ गया है, शुक्रवार की रात से ही उनके पैरों में घुंघरू से बंध जाते हैं, और फिर हर शनिवार को ठीक अभिजीत में यह यात्रा पड़ावों की ओर निकल पड़ती हैं। इस बार पराँठे, घेवर और बर्फ की टोकरी में छाछ सब था, सो थकान नहीं थी, एनर्जी का लेबल लगातार तरोताज़ा किये था।


अब क्लू हाथ आया, नाम गुणावता, थोड़ी कच्ची से सड़क। पचास मीटर जाते ही टी पाईन्ट, एक रास्ता दक्षिण, एक उत्तर। मानो पंकज उदास की गजल, मैं कहाँ जाऊं कैसे हो यह फैसला?? दो युवाओं ने कहा- की इस टी पाईन्ट की मन्दिर के अन्दर सीधे लोके का गेट खोलिये, हाँ लौटने में वापिस बंद कर देना। शायद कोई अंदेशा, या ताक़ीद।


इतने पास खड़े पर यह विशाल ढाँचा नज़र ही नहीं आया, क्यों? "बड़ी मुश्किल हैं की हालात की गुत्थी सुलझें, अहले दानिस ने बड़े सोच के साथ उलझाया हैं " शेर अपने आप याद आया। केवल बाबड़ी का हिस्सा ही जंगल सा, मन्दिर के ठीक पीछे, कोई देख न लें, यहीं? उसके चारों और तारबंदी, शानदार फसल, पानी से तरबतर खेत-खलिहान। मन अन्दर जाने को था, पर रास्ता-कोई पगडण्डी कुछ तो भी नज़र नहीं आ रहा। दोनों तरफ तार, फिर पीछे कैसे जाएँ, सामने लम्बा घास, दुविधा?? कुछ देर पहले पानी बरसा सो दूर से ही देख, दरवाजा बन्द कर मन्दिर के बाहर।


दूर से साईकल सवार आशा बना, उससे पूछा पर दो जून की रोटी में थका सा वो युवा केवल इतना भर बोल पाया की कभी वो भी इसके पानी में नहाया है, साब-अब सब कब्ज़ा हो गया, बोले कौन? कई सौ साल पुरानी हैं, दिल्ली के बादशाह आये थे तब इसकी मरम्मत हुई थी। वो एक युवा की ओर इशारा कर अपने रास्ते हो लिए, उस महाविद्यालयी छात्र को केवल वो स्मारक सा नज़र आया, हाँ पर वो अपने घर का आमन्त्रण दे, हमारे साथ हो लिया। थे तो कुछ कदम ही पर गाड़ी से ही। बच्चा घर से कुछ मिनिट में लौटा तो संरक्षक साथ, बड़े ही गर्मजोशी से स्वागत, घर में आने का आग्रह, पर कोरोना के कारण वहीँ खड़े-खड़े इतिहास-वर्तमान और भविष्य का समाधान उन्होंने दिया, वे बड़े संजीदा थे, बाबड़ी किसी भी रूप में बचें इसके खातिर योगदान देने को उद्यत थे, बड़े ही उत्साही, सम्भावित विवाद की सम्भावना में भी।

बाबड़ी का नाम- पौंड्रिक (पुण्डरीक) जी की बाबड़ी, मतलब वो इसके निर्माता या अपने काल में इसके जीर्णोद्धार करने वाले। 

जी, वही जिनके नाम से उद्यान गोविन्ददेव जी के मंदिर के पीछे है, कहते हैं तालकटोरा के निर्माण, देखरेख में उनका योगदान रहा हैं शायद तभी कहा गया हो- महाजनो येन गतः स पंथा।

 संयोग से इस इतिहास को बताने वाले ते सज्जन भी वैश्य-महाजन ही है, महाजन के कई अर्थ है, जो समय-साक्षेप है, ग्रहण करें।


बाबड़ी के भूतल में सौलह बड़े-बड़े कमरें है, जो सर्दी-गर्मी दोनों में ही वातानुकूलित रहें, पानी मानसून तक भी जान-जीव-जानवर के पीने लायक बना रहता था, पर अब तो कुछ बचा रहने ही वाला नहीं, पेड़ को कौन काटे? घास भी? क्योंकि वो ही बाबड़ी को ख़त्म करेंगे सो उसको बने रहने देना वो तारबंदी के उस पार के सज्जन चाहते हैं, नहीं? हवामहल के निचे कोई सज्जन है, जो इस इतिहास को जबानी कहते-सुनाते हैं, कभी मौका मिला तो वो भी सुनेंगे, फ़िलहाल पौंड्रिक जी को स्मरण कर, चलायमान।


कूकस आ गया, तो जैन मन्दिर का प्रसङ्ग छिड़ा, हालांकि शाम होने को थी, पर फिर कब अवसर मिलें? इसके मद्देनज़र उसी ओर हो लिए। गाड़ी में भैया थे, वे जानते थे की चाबी कहाँ हैं, वो अक्सर इधर आते रहते हैं, पर हम दोनों के लिए कूकस-यह मन्दिर अब तक अछूता ही तो था। बड़े ही रमणीय स्थान पर, पहाड़ी और जंगल की ढ़लान पर यह मन्दिर, पुरातन स्वरुप जर्जर होने पर, नया दिव्य-भव्य तो हैं पर बाहर से अनुभूति वैसी न हो पाई। 

अन्दर विग्रह से साक्षात् हुआ तो, अपनी भूल का अहसास हुआ, पाषाण प्रतिमा की कलाकारी, नक्कासी और चिरन्तन साधना-आराधना मुँह बोल रहीं थी, अनेक जैन मन्दिर गया-घुमा-दर्शन किया पर, कुछ क्षण रुकने का आकर्षण पहली बार महसूस किया। परिक्रमा के बाद सब कुछ समझा, यहाँ दो नई जानकारी मिली जिसमें एक देवी और दूसरे मन्दिर के द्वारपाल-दिक्पाल कसे साक्षात् हुआ, होता सब जगह ही ऐसा, पर आज तक अनविज्ञ ही रहा। ऐसा लिखित इतिहास उपलब्ध हैं की आदिनाथ भगवान की साधना में आयें राक्षक का दमन कर देवी पद्मावती ने उनके जीवन को सतत किया।

मंदिर के शिलालेख, पूजन पद्धति के ग्रन्थ, सब संस्कृत भाषा से निबद्ध है, बाहर आहाते में आकर बैठ गए तो शांत-सुरम्य-वनाच्छादित इस स्थान का आनंद और बढ़ा, मंदिर के सामने का रास्ता सीधा सीकर रोड को जाता हैं मतलब इस आमेर की घाटी में कई दर्रे हैं दर्रे कह सकते हैं? हिमालय में बड़े, अपनी अरावली में छोटे ही सहीं।


चंदा आकाश में नज़र आ रहा हैं, एक अचरोल के किलें से नीचे दिख रहा था, अब मन्दिर से ऊपर। सच-शाश्वत हैं, और दिखने वाला कोई भ्रम। एक वो जो अपनी सीमा में है, वो जल था सो उसको पा लिया। एक वो जो शीतलता में अनुभव कर पाया सा हो जाता हैं। गौधूलि बीत चुकी हैं अँधेरे का आगोश बढ़ रहा हैं, तालाब का चाँद तो पूरा था, पर यह तो आधा भी नहीं, संकेत है चलो कोई ठौर की ओर। वृतांत भी कौनसे पुरे सच है, हमने जो जाना वो कौनसा पूरा है, पर खोज चलती रहेगी, जब-तक मैं, मैं उसके बाद इस अनन्त में कोई ओर, शायद अबका आशय यही हैं की कल फिर...



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