अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- १४) सप्ताहान्त- शृंखला

वो कहते हैं मैं अब तक उन्मुक्त था सो उन्होंने दया बख्स मुझे मुक्त कर दिया।


इसको यहीं छोड़ते हैं, फिलहाल आज से नयी यात्रा। इसमें कुछ तय था, प्रयोजन था। पर वो केवल पहला भाग हैं, आफ्टर इंटरवल केवल ट्विस्ट और ट्विस्ट बस। पहला भाग केवल कागज़ी, औपचारिक और कुछ हद तक सरकारी, अब ढर्रे को बदलाव तक लाने में अजातशत्रु थोड़ी बनेंगे? और जिनको मदनमोहनजी का प्रसाद, हरदम जो तेल-घी के पीपे साथ रखें और-और यह सब रुचता हो, उनको केवल कृष्ण-पक्ष ही नज़र आयेंगा।


सुनते हैं की आदमी जीवन के उत्तरपक्ष में सब गीले-शिकवे छोड़ने की कोशिस करता हैं, पर वे तो भादवे के पहले दिन को भी नहीं भूले। 

पर यह पक्का जानलें की यह तलवे-चाटने वाली ज़िंदगी के लिए उनको फ़ौज मिलेगी, मैं किसी से दोस्ती नहीं चाहूंगा, उर्दू की भाषा में सारि क़ायनात दुश्मन हो, हो जाएँ। 

मुझे ऐसे सम्मान-समर्थन और दिलासे पसंद नहीं, और जो तुमको पसंद वहीँ बात करेंगे तो बिल्कुल नहीं, जिसको जो करना हैं करें, मैं वैसा ही जाऊँगा? 

यह तुम्हारा मतिभ्रम हैं, वो तुमको मुबारक़। 

चाकसू के पास कोटखावदा-शक्करखावदा के हिस्से कितने ही तालाब है, सच कहूँ तो केवल एक बार ही गाड़ी से उतरा, हर कुछ कोस की दुरी पर कोई तालाब, अच्छा लगा, कई दिनों से जैसे प्यासे की हलक पर पानी, तरबतर सा।

आज का दिन कई विभ्रम दूर करने वाला रहा, कोटा की रोड पर दिखने वाली डूंगरी-मन्दिर वो नहीं था, जो आप-मैं-सब जानते हैं। मतलब उस रास्ते से गुजरा राहगीर उसे शीतलामाता का स्थान मानता हैं, जबकि वो तालाब की पाल से सटे परमशिव का मन्दिर हैं, और तालाब से आगे वो मन्दिर हैं जिसकी कल्पना में सर झुकते रहें हैं, कोई नहीं मूलतः सनातन एकं सद् विप्रा बहुदा वदन्ति हि तो हैं, जिसमें सब देवताओं का उत्स, सार-तत्व एक ही हैं, और वैसे भी शक्ति-शिव तो सृष्टि हैं।


कोरोना का असर इन रास्तों में बेअसर हैं सो केवल तालाब के पाल पर ही रुकें, बाकी जोधा-अकबर के गाने सा सब-

फूल से खुशबू ख़फ़ा-खफा है गुलशन में
छुपा है कोई रंज फिज़ा की चिलमन में
सारे सहमे नज़ारे हैं
सोये-सोये वक्त के धारे हैं
और दिल में खोई-खोई सी बातें हैं
पास हैं फिर भी पास नहीं
हमको ये गम रास नहीं
शीशे की इक दीवार है जैसे दरमियाँ
सारे सहमे नज़ारे हैं... (जोधा-अकबर)


तालाब की फिक्र कौन करें, जब फसल की जिद्द हो। सब जगह ही तालाब अजातशत्रु थे क्योंकि वे सबको पेयजल, अनाज और भूमि की उर्वरता को सुनिश्चित करते थे, पर इंतहा हो तो तालाब का हर एक हिस्सा नापसन्द हो जाता हैं, उसकी चादर-लहर से कोई परेशां हो तो, क्या? क्या? क्या? तालाब अपना मूल-स्वभाव बदल दें?


नहीं, कोई कितना भी ख़फ़ा हो पानी का स्वभाव निर्मल है, उसकी तासीर ठण्डी है, उसका भाव तृप्ति हैं, पर वहीं बांध को तोड़ने वाला, समुद्रलंघन कर सुनामी का रूप भी धारण करता हैं, गत वर्ष, चाकसू का यह बंधा पूरी तरह से भर (सहन करने की सीमातीत होना) चूका था, फिर कितने ही प्रयास हो, पानी को बहना था, बह गया और फ़िर केवल बद्द्दुआ ही तो मिलेगी।


तालाब ने हमको और सकारात्मक बनाया, उत्साह को जगाया और फिर उमंग-उत्सव और गोठ आयोजन की अप्रत्याशित इच्छा। पहले तय न था, पर बाड़ा-पदमपुरा में मौसम के अनुरूप मिज़ाज़। नाम मौसाजी, अब अविकार के हो या किसी और के सम्बन्ध जब स्नेह दे तो आमन्त्रण सहजभाव से स्वीकार्य ही होगा।

यह तो उदर पूर्ति के पहले का हिस्सा हैं, जब तक सामग्री जुटायें, पेट पूजा के बाद का मन्दिर दर्शन पहले ही बता दूँ। 

मन्दिर में क़रीब डेढ़ दशक बाद गया, बहुत कुछ बदल गया पर हाँ कंक्रीट के विस्तार में भी प्राकृतिक छटा को संजोने का प्रयास सराहनीय हैं, विजय स्तम्भ-पीछे विशाल संगमरमर प्रतिमा, आयोजन हेतु डोम, सुविधासम्पन्न नया अतिथि-गृह। विकल्प न होने पर गाड़ी से ही पूरी परिक्रमा की, इस मन्दिर के साथ मेरा यह रिवाज़ कुछ यूँ ही सही बना ही रहा।

वापिस, अब कण्डे करीने से सज चुके हैं, आज मिलकर सब कोई खाना बनाने का अवसर खोना नहीं चाहेंगे, रजामन्दी नहीं, सहमति नहीं सब की मर्जियाँ थी, बस। गोमय-थेपड़ियाँ (गाय के गोबर को कुछ घास के साथ सुखाकर बनें, कण्डे) को थोड़े से अखबार और दियासिलाई का इशारा काफी था, बाकी काम तेज़ हवा ने किया। कुछ ही समय में सब आसान, इधर मौसीजी के हाथ की गति में कई तरीकों की बाटियाँ आकार ले चुकी थी।

मौसाजी की नागालैंड-आसाम सहित उत्तर-पूर्व के कथा-प्रसङ्ग, हल्की आंच में सौंधी सी महक में गेहूं का पकवान, दोहरा आनन्द सा। 

बात चलते-चलते मोतीलाल जी जैन पर आ गई (दीमापुर में रहने वालें लक्ष्मणगढ़ प्रवासी ) उनके प्रभाव, व्यवहार की प्रसंशा के अन्त में चरमपंथी-नागाओं द्वारा उनकी हत्या, सन्नाटा सा था। उसी दौर में एक रात अपना सर्वस्व छोड़ वे जयपुर लौट आएं थे, उम्र के उस पड़ाव में सब ज़ीरो से शुरू करना आसान तो नहीं होता, पर वे, उनकी उम्र के पिचहत्तर पार में अब और खुशमिज़ाज़ नज़र आते हैं, इकलौते मोह की आन्तरिक टीश वे उजागर न करें तो भी ख़ुशी छिप सकती हैं, पर दुःख प्रकटित हो ही जाता हैं।


सादी-नमकीन बाटी की पहली सिकाई हो चुकी हैं पर चूरमें की मुठड़ी कुछ वक़्त लेगी ही, अन्दर दाल उफान पर, भैया के हाथ टमाटर-मिर्च पर, दूसरे की हाथ टुकड़ियों का आकार लेते काजू-बादाम, मौसाजी अब अविकार के साथ नई बोरी ढूढ़ लाएं, तब तक शेष बचा पहला दौर पूरा।


चिमटें-झरिये से बची आग की पैमाईश की तो वो तेज़ थी, कुछ पल उसको बिखेर, पकने की अन्तिम प्रक्रिया में सारी बाटी-मुठड़िया एक साथ, और बची आग-राख में। अब चर्चा मणिपुर की चल पड़ी, वहीं की संस्कृति-वैष्णव मत सब इतना जाना, अब लगा की पिछले दिसम्बर में एनआरसी के कारण भारतीय युवा संसद का इम्फाल सत्र टाला-टला तो ठीक ही रहा। कितने ही परिचित लोग वहां हैं यह अब सब कुछ और आसान सा कर रहा हैं, इक्कीस के साल में सब इक्कीस ही होगा, अबका विश्वास सतही नहीं, रिश्तों से मजबूत था।

वो नयी बोरी बैठने के लिए नहीं, उस अर्ध्य की राख को साफ करने को थी, अब चला पता। बाटियाँ अब घी के हवाले और मुठड़ियाँ मामदस्ता-मूसली (मिक्सी की बजाय कूटने का बेहतर पारम्परिक तौर-तरीका) के। बिजली थी तो, पर जब स्वाभाविक-प्रकृति की गोद में तो क्यों मिक्सी? चूरमे को कूटने की आजमाईश सबने ही की पर, स्वर्ण पदक मौसाजी के ही हवाले रहा, हाँ बाटी को घी से मिलना, भी उनको ही करना था, तेज़ पर सहजता लिए आवाज़ उसका इशारा- मौसीजी ने जो कहा- गौम क बस की बात नी छ, उ कुणसा दिन बाटी म घी दियो छ, थे निका सम्भालों।

दाल तैयार, सामान्यतः दाल-बाटी-चूरमा में लहसुन-प्याज होता ही नहीं, फिर जैन परिवार, पर हाँ वे भी अब कहाँ बचे हैं? खान-पान की इस शुचिता में कोई ब्राह्मण न कोई जैन, असली में तो ये जातियां या तो तमगा सा हैं या आरक्षण से त्रस्त हो बेरोजगार होने का दंश भर।

कहीं श्रावण, मंगलवार कुछ उत्सव-दिवस-व्रत के दिन कुछ बच रहा हैं, वह सांस्कृतिक भ्रष्टाचार में शकून सा हैं। भादवे में यह सब स्वाभाविकतया प्रतिबन्धित हो जाता था। आश्वस्त होना ही नहीं था, खुद का बनाया खाया उस कारण नहीं वाकई नैवेद्यं उच्च-कोटि के स्वाद से भरपूर था, एक तो दिन भर की भूख, कुछ बाहर का रिमझिम भादवा, आग्रह-मनवार और अन्ततः जबरदस्ती रिश्तों की दुहाई खूब खाया।

दम्पति के चेहरे पर अपार प्रसन्नता थी, आटा न था तो चूरमे में सूजी का सम्मिलन था, गाय का देशी घी आराम के समय यह सब मेहनत, आनन्ददायक था। अब कहने में संकोच नहीं, इस यात्रा का मकसद केवल खाना ही नहीं था, उनके साथ समय गुजरना भी था। हम सफल थे, साग्रह उनके टालने पर ही हमारी उपस्थिति में ही उनको भी भोजन करवाया, क्या पता फिर मोह-विरह उनको व्याकुल कर दें।

शेष रहा सब पैक किया जा चूका, खुद के लिए जो थोड़ा सा बचाया वो भी पड़ौस में रिश्ते की बेटी को तुरन्त मौसाजी देने जा चुके थे। जीवन में कितना क्षणिक सुख हैं, कितना अल्प दुःख बाटा जा सकता हैं, यह सब अछूत-सा, अछूत जयपुर का कोई निर्धारित स्वरुप, कार्य योजना न होना, इसको सार्थक-सजीव-सरस-सहज करने वाला रहा हैं मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूँ, इसकी सार्थकता-इसके परिणाम की समीक्षा पाठक करेंगे।

सूर्यास्त से पहले महज एक-डेढ़ घण्टें में यह सब होना, सीखने के अवसर, अक्सर ऐसा कम ही होता हैं और-और साथ में उत्तर-पूर्व के भारत को, वहां की संस्कृति का साक्षात्कार सब अनूढा, इस बार पानी ने ही नहीं तृप्त किया, उसके वरदान से उपजे अनाज ने भी, फलीभूत गौमय भी, आज सार्थक रूप में प्रकृति से सामीप्य था, सारे पञ्च-महाभूतों से सीधा दीखता सा सानुग्रह।

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