अछूत जयपुर (धारावाहिक प्रकरण- १३) सप्ताहान्त- शृंखला

 हाल ही में अनिल जोशी जी को पद्मभूषण मिला, उस शख़्स को जो प्रधानमन्त्री के नए शहरों के निर्माण से इतर गाँव बचाओं आन्दोलन की मुहीम छेड़े हैं। उनका मुझसे - जयपुर से जुड़ाव भारतीय युवा संसद के सत्र से अब तक अनवरत जारी हैं, वे देहरादून में पर्यावरण संस्थान के माध्यम से निरन्तर सचेष्ट हैं की पारिस्थितिकी बची रहें।


जयपुर के अन्दर की चौसर के बाहर के चक्र को देखें, इसको रिंग रोड़ सा अच्छा सा नाम दिया गया हैं। सीकर-आमेर-कोटा-दिल्ली और दौसा प्रमुख मार्ग हैं जो इस शहर को जोड़ते भी हैं और बाहर का रास्ता भी दिखातें हैं। कुछ छोटे रास्तों में जोबनेर, फागी, जमवारामगढ़, कनकपुरा और यह गोनेर का हिस्सा वैसा-सा हैं।


पैमानें से पड़ताल करें तो इसमें केवल गोनेर-बस्सी का ही हिस्सा बचा हैं, जहाँ गाँव-खेती-पशुधन और मूल धरातल वैसा सा ही हैं जो अबसे पूर्व था। बाकि सब तो फैक्ट्रियों से आबाद, शहर-गाँव के बीच त्रिशंकु से कस्बें में तब्दील हो गयें। और जो मूल तासीर से बदले हैं, कन्वर्टेड हैं वे मुख्य धारा में आ ही नहीं सकते। डॉ. अनिल जोशी जी का गाँव बचाओं आन्दोलन बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के केवल, अपने मूल स्वरूप को न छोड़ने के कारण इस इलाके में बच सा गया हैं।

अब रुख मुकाम पोस्ट बस्सी की ओर। गोनेर से निकलने के बाद एक तरफ पदमपुरा उधर नहीं गये, दूसरी तरफ जातें ही रुक गए। पूछने के बाद वहां मौजूद सज्जन बोलें- अण्ड ही छ, पाणी को नाम नैरो न छ, पण बचेड़ी हैं। कोई गिरधारी जी हैं जिनके खाते में चढ़ी जमीन पर, यह एक और जल-स्मारक। यह एक अलग अनुभव था, बिल्कुल छोटे से स्थान पर, बड़े ही करीने से कोई मॉडल सा बनाया गया हो, यह बाबड़ी ऐसी ही थी। बाबड़ी से सटकर ही बड़े शौरूम का काम जोरों पर हैं, जिस दिन वो पूरा, समझों इस बाबड़ी के भी पूरे दिन।


वो सुधर जायें, बची रह जायें, इसकी फ़िक्र वहां मौजूद हर कोई कर रहा था। पर वो सब, वो नहीं हम करें, यह उनकी आशा थी या अपनी धरोहर के प्रति उपेक्षा?


इस बाबड़ी में नक्कासे पत्थर इसकी महत्ता को बढ़ा रहें थे, पीछे गोनेर से यह इसका इतर स्वरुप था। 

अन्दर पूरा छोटा ताड़क-वन सा था, सरीसृप समुदाय का पूरा कुनबा अन्दर होगा ही ग्रामीण बता-जता ही चुके थे। कुछ अन्दर जाने की सम्भावना पहले ही नहीं थी, रही-सहीं हिम्मत लब्ज़ों ने तोड़ दी।


गोनेर अब पीछे छूट रहा हैं तो अब प्रोटोकॉल भी अलग होगा। दूर, विराटनगर से यहाँ तक और इससे आगे भी इस चौड़ी पट्टी में अनेक नदी-नालें बरसात के पहले और बाद भी होते थे, पर अब वो उतना आम नहीं हैं। 

हाँ, मनमर्जी के तालाब हर कहीं हैं, पर इसको बुरा तो नहीं कहेंगे। 

सड़के इतनी हैं की रास्ता चुकने की पूरी गुंजाइश, पर अन्तत सब सागर में नदियों की तरह। आपको अपना गन्तव्य मिलेगा ही, उसकी अधिक चिन्ता न करें, हाँ मानसून में जरूर नालें बाधा होंगे, पर रेत पर बहते पानी को देखने का शकून-लुत्फ़ लेना हैं तो यह क्षणिक स्वेद-कण भी, पर बाद वो भी ठण्डक ही देगा।


वैसे राजपुरा में मालपुएं, दाल-मिर्च की टपोरे कई बार खाएं हैं पर हमेशा ही रास्ता भटकें हैं, सो इस बार कैसे बचते? एक तो पहले से ही भानगढ़-अजबगढ़ का सुबह का कार्यक्रम रद्द कर मीतेश बैठा था, और अब शाम होने पर गोनेर से चलें तो बस्सी पहुँचने का लम्बा इंतज़ार। सच पराकाष्ठा थी, पर जानबूझकर नहीं। लहलहाते खेतो से गुजरने का अनुभव, पंजाब सी रौनक थी, बीच-बीच में पानी से कटी सड़क मिली तो लगा, यहाँ गाँव में देखों, पानी की ताकत। शहर में तो सब कंक्रीट का ऐसी जकड़न, की उस पानी को केवल चैंबर हॉल में ठौर। पर यहाँ यह पानी सीधा धरतीमाता से मिलने का कोई मौका नहीं छोड़ रहा।


रास्ता भटकने का भी हम आनन्द लें ही रहें थे, यह नहीं होता तो बूरथल के तालाब को कैसे देख पाते?

अछूत जयपुर जब शुरू किया था तो कुछ वैसी कल्पना थी नहीं, पर यह कब अकूत हो गया और देखियें न अपने आप पानी से जुड़ता चला जा रहा हैं। उस पार के पाल पर केवल एक छतरी बची हैं जब कोई आएगा ही नहीं तो कौन उसकी देख-रेख करेगा? वैसे भी जयपुर राजघराने की स्मृतियाँ कौनसी संरक्षित हैं? खानिया-लूणियावास में तो रोज जानबूझकर तोड़ी जा रहीं हैं।

तालाब के पाल पर रुकने की इच्छा थी, सोच रहें हैं की कोई स्थानीय साथ होता तो कुछ और हासिल होता, पर चलना होगा वहां का इंतज़ार जो था।

बस्सी के रास्ते मिलें सज्जन कभी जयपुर में बाइन्डर थे, एक्सीडेंट के कारण से फिलहाल अपंग से। रास्ता उनसे भी पूछा था, उनका गन्तव्य रस्ते में था, सो छोड़ने में हर्ज़ नहीं लगा। 

होली के बाद से ही बस्सी की इस बगीची में अखण्ड रामायण पाठ जारी हैं, वे कोरोना के कारण श्रद्धालुओं की कमी के कारण से उस अनुष्ठान में अपनी सहभागिता देते हैं यह जान अच्छा लगा। हमें भी यह लगा की चलों इस बहाने ही सही, हम भी पुण्य के लाभांश के हिस्सेदार तो हो ही गए।


अब आगे वो ही जो भारत-भरत और मीतेश। सबसे पहले बस्सी के बीच, वहां के आराध्य श्रीबीदा जी के मन्दिर के कुछ पास की केवल नाम में बाबड़ी। तीसरे अवतार से जुड़ी जातियों का वास, पीछे वे जो समृद्ध थे, हैं। सुनते हैं की कभी ऐसा होता था, जब राजा-सेठ-साहूकार अपनी प्रसन्नता के विस्तार में कुँवा, बाबड़ी और जोहड़े बनाते थे, गौशालाओं को अनुदान-भूमि देते थे, पर अब? इस बाबड़ी को शायद बस्सी के सबसे समृद्ध परिवार ने तिलाञ्जलि दी हैं। पास का पुराना हनुमानजी का मन्दिर कब-किसने हटाया-उठाया कौन बोलें? जाने सब, तब भी?
मैं भी सोच रहा था, की यहाँ अपने-नगर विधायक सर्राफ के शिलालेख क्यों? पर यह भी एक अधूरा झूठ-सच, छोड़ो अभी।


दूसरी बाबड़ी बस्सी के उस अंतिम छोर पर, आगौर तो छोड़ों, इसका तो मुहाना भी दीवार में चुन दिया गया हैं। 

पर पानी के खातिर पाइप, दिवार से सटी मोटर यह तो बता रहीं हैं की यह बाबड़ी अभी ज़िंदा हैं?

ये सूनी अँधेरी बेक़रारी
जाना पहचाना
ढूंढती हैं क्यों मिटा हुआ नामोनिशान
पूछती है क्या मैं ज़िंदा हूँ
मचलते आंखोंसे, छलक जाते हैं आँसू
चीखती हैं बेचैनी, क्या मैं ज़िंदा हूँ (ज़िंदा Movie)


बस्सी कभी नगरपालिका, कभी पंचायत और अब फिर नगरपालिका, दूसरा विधायक की रूचि, तीसरा कोई सामने आयें इन सबके लिए। 


बस इसमें ही उलझी सी हैं। बड़ी मुश्किल, क़वायद के बाद कुछ चित्र ले पाया, बीच शहर की बाबड़ी की हालात के बाद यह कितने दिन और ज़िंदा हूँ, ज़िंदा हूँ, बोल पायेगी?

हाँ, इसका नाम न सही तो भी संकेत काले हनुमानजी के समीपस्थ। 

अब सोचों भक्तों ने लालमुहं, "लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लंगूर" को भी बदल ही डाला, भगवान भी क्या करें? भक्तों के खातिर वे भी सहन ही करते हैं। लाल कहो, काला बेरोजगार-माकड़ियाँ कुछ भी, जो चाहों?


आगे हैं, बस्सी का तालाब। 

जल संरक्षण की स्वाभाविक संरचना, शायद क्षेत्र में पानी के जलस्तर को निरन्तरता से जोड़ने का सबसे कारगर रूपक, पर इन्सान तो सजीव हैं फिर वो इस निर्जीव से बन चुके तालाब को क्यों बने रहने दें? 

प्रभुसत्ता हमेशा कमजोर पर होती हैं और जल-जंगल-जानवर-जीव को हमने निरीह बता उसको संरक्षण देने की जगह नेस्ताबूद कर मानव को अव्वल साबित करने में कोई कसर छोड़ी नहीं। इस तालाब के साथ ही वही कुछ, पाल बड़ा हो रहा हैं, आगौर बचा ही नहीं और फिर कहने-सुनने को क्या कुछ?


तो क्या शुरू में मैंने जो कुछ गाँव बचने की बात कहीं, उससे अब मुकर जाऊं। अब आँख पर पट्टी नहीं तो सब सामने, मौन रहूं-मुखर बनूँ या उनसे मिल जाऊं जो धरा-धरिणी-धरित्री को धोखा दे रहें हैं? बहुत कुछ सोचना-करना हैं, जल्दीबाज़ी भी समाधान नहीं। 

तालाब की स्वाभाविक अवस्थिति को देखकर आश्वस्त हूँ, कुछ किया जा सकता हैं, एक रचना-कार्ययोजना बनेगी तो सब आसान हो जाएगा, लोग समझेंगे भी।

गोनेर यात्रा में सूत्रधार बागड़ा, रुद्राभिषेक के आचार्य सनाढ्य, बस्सी में रात्रि भोजन च्यवन-बारागाँव ब्राह्मण मीतेश, वहां की पगडंडियों का मार्गदर्शक भारत गौड़ और खेत की बाबड़ी के कोठोत्या हरियाणा ब्राह्मण बंसीधर जी। 

मैंने नहीं बनाई, कुछ तय भी नहीं था, पर अपने आप बन गई- यह ब्राह्मण महासभा। इनमें से सनाढ्य मिश्रजी को छोड़ दूँ तो कोई भी मनसा-वाचा-कर्मणा द्विज हैं ही नहीं, व्यापारी-किसान या सरकारी कारिन्दा।


यात्रा की अन्तिम कड़ी की ओर। एक और छोर बस्सी का, सड़क से अन्दर खेतों के बीच रास्ता, पगडण्डिया। शायद अर्टिगा का आज न होना सही रहा-अविकार सही कह रहें थे-गुरूजी की शेवरले बीट ने पार लगा दिया। अब हम किसी फार्महाउस नहीं, एक पूरी ढाणी के दरवाजे के अंदर थे, सच का गाँव अब देखा। गाय-भैंस के लिए ही अपने शहर के कई फार्महाउस जैसा स्थान। फसल अलग, भण्डार अलग और सब्जी की अलग क्यारियां, फलों के भी बगीचे से।


इन सबके बीच पीपल का पेड़ उस जगह की पुरातन को अभिव्यक्त कर रहा हैं, हाँ वही पता हैं बाबड़ी का। अबसे आठ-दस साल पहले यह बाबड़ी भरी थी, तब सब ओर का पानी इधर था। यहाँ भी बाकि जगह सा हाल हैं, पेड़-पौधे-झाड़ियां-घास-फूस सब हैं, वे बता रहें थे की साल में दो बार पूरी सफाई करते हैं। अंदर की मिट्टी अब नहीं निकालते क्योंकि इसमें अनेक जानवरों का आश्रय-स्थल हैं, वे उनको इस लिए भी नहीं छेड़ते क्योंकि फिर उनके अपने घर में परेशानियाँ पैदा होगी।



बाहर से कोई आयें, बाबड़ी का जीर्णोद्धार करें तो उनको कोई आपत्ति नहीं, वैसे वे अपने से कुछ-कुछ सार-सम्भाल, कुछ मरम्मत उनके हिस्से हैं ही।


हरिनारायण जी, नब्बे कम पाँच साल अपनी उम्र बताने वाले कोठोत्या हरियाणा ब्राह्मण के बुजुर्ग, दूर से देखा तो लेटे थे, थोड़ा पास तो बैठी मुद्रा और जब उनकी नज़र में आ गए तो खड़े। हम अतिथि सो, जब तक नहीं बैठें, आग्रह के बाद वे खड़े रहें। परिवार के लोगों ने स्वयं उन्होंने भी अपना परिचय किसान का दिया, फिर वे सामाजिक नज़र आने लगे, सम्वाद आगे बढ़ने पर वे दार्शनिक, वैदिक और अन्ततः साहित्यकार भी। वे इतने बहुमुखी थे, यह सब उनके चार दशक पार कर चुके पोतें भी नहीं जानते थे।


फिर उनकी साखियाँ, पहेलियाँ और दोहों का दौर आया, वो गाने लगें, और अन्ततः ब्राह्मण परम्परा की टीश सामने आई, एक अविकार के अलावा सब विप्रों को उन्होंने खूब कोशा।

 जनेऊ न पहनने पर वो बोले तो बोलते ही रहें, वे कोई शास्त्रीय-श्लोक तो नहीं गा रहे थे, पर स्थानीय भाषा में जो उन्होंने वाकई कहा वो उनकी सम्वेदना की कोई विद्वान की भाषा से कमतर न था।


समाज को नियन्त्रित करने वाली खाप पर सरकारी नियन्त्रण के वे खुले खिलाफ हैं। 

गलती के बाद-समाज की प्रतिष्ठा को हानि देने पर जात-गाँव बाहर करने की उनकी अवधारणा सुनेंगे तो जान पाएंगे की खाप केवल नकारात्मक ही नहीं।


एक प्यासे व्यक्ति के मतीरे को तोड़कर खाने के बाद अज्ञात मालिक के खातिर वहीँ पैसा छोड़ने के कथानक के जरिए वे सच की ताकत का अन्दाज़ा दिला रहे थे।

उनकी अपनी भाषा में सब का सार "नेता-नांगला, सरपंच, प्रधान ये एमएलए ये क छ न, जनता का पिसा न खाव और साँच-झूठ-पाखंड मेल छ। यो कलजुग छ, सच्चाई म कोड छा। गरीबा का कालजा खाय छः, यो कलजुग छ, पब्लिक फेरूं भी बांका ही पग पकड़ छ। "


बात खूब है, कितना लिखना हो लिखों, पर एक पहेली के साथ उनकी प्रतिभा को समझने का एक और मौका था -

पंचमुखी हनुमान जी के स्वरुप का प्रसंग इसमें समाहित हैं तो अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का अपहरण, उसमें बाद हनुमानजी की खोज, मकरध्वज से भेंट, देवी का स्वरुप और अन्ततः प्रभु की वापसी।

मौज की मौज शेल की शेल
तीन डस्या मायला, रह्या एक का खोज
दी छी लात, टूट गया पट्टियां
नौती की गौरी, जीम चालयों रसियों।


कुछ व्याकरण, उसके बाद ताजिकनीलकण्ठी और श्रौतसूत्र में सूत्रबद्ध संस्कृत साहित्य का अनुभव अध्ययन काल में किया था, आज उसी रूप को लौकिक-साहित्य में देख-सुन रहा हूँ। सोचता हूँ की इन अक्षर के अनपढ़ के पास भी श्रुति परम्परा का कितना अनमोल ज्ञान है, पर क्या हम इसको संजोय पाएं? कितनी विचक्षण सूत्र शैली भी तो?


हर कहीं, हर एक दिन दम तोड़ती कहानियां, हज़ारों पंचतन्त्र-हितोपदेश के रचनाकार विष्णु शर्मा-नारायण पंडितों के साथ ख़त्म-विलुप्त होता सहजता से संस्कारित करता नैतिक कथानक। केवल साहित्य ही नहीं, शिल्प-स्थापत्य-बुनना-गढ़ना-रचना-कृषि-जल संरक्षण के कारगर नायाब नुस्खे सब ही तो अतीत, ओझल हो रहें हैं, मैं भी केवल लिख ही रहा हूँ, अपनी क्षमताओं को कितना उपयोग में ले पा रहा हूँ?


केवल दिन ही तो नहीं ढल रहा, केवल अंधियारी रात-उसके बाद सवेरा ही तो नहीं आ रहा, नियति नियमित रूप से प्रयत्न-प्रयाण की ओर जा रहीं हैं, वे जो वर्तमान हैं, भूत बन रहें हैं, जीवन के इस भविष्य में वस्तुतः तो केवल कोई गत-बीता भर ही हैं। 

जाने की वेला में कोई आमन्त्रण हैं, फिर आने के कई वादें भी पर जब कल गर लौटेंगे तो वो जो आज जिया फिर मिल सकेगा? जो आज स्मृतियों में अमृत सा हैं, याददाश्त कहलो चाहे तो, वो फिर रहेगा? 

मैं खुद से ही महसूस करता हूँ की लिखने के दौरान जो विचार अभी हैं वो कुछ क्षण में बदल जातें हैं वे शब्द अतीत हो जाते हैं, जीवन तो और भी क्षणभंगुर हैं, क्या साध्य क्या साधन? 

सब केवल किताबी-भर तो? 

असली तो सानिध्य है, जो किसी को मिला तो वो बड़भागी, कुछ हम से खाली हाथ लौटते।


मितेश के साथ बस्सी की स्मृतियाँ, वहीं से लौटने को कहती हैं। 

दाल-रोटी तो इस बार भी थी, मालपुएं गोनेर से साथ ही थे, वो थोड़ा सा आग्रह दिखावटी टालने में असहज महसूस करवाता सो, खाकर ही लौटें। 

हाँ राजपुरा वापसी में यादों के झरोखें में कोई तारा सा टिमटिमा रहा हैं। और कोठोत्या के उन बुजुर्ग का बाटी-चूरमा का आमन्त्रण फिर आने का बहाना।

लौट कौन रहा हैं, मैं-अविकार या समय? उस पीढ़ी के साथ बैठने की टीश तो मैं भी जानता हूँ, लौट जाऊं की चलता-रहूँ ? यह भी बड़ा सवाल हैं। चुप्प सा हूँ मैं! कैसे सब ? हाँ ! कौनसा घर? किसकी ओर लौटने को गन्तव्य कहूं? अनन्त यात्रा का यह मार्ग भी तो राजमार्ग हो की, पगडंडियां सा रास्ते तो दिखाता ही हैं, जाना किधर? इसका निर्णय तो स्वयं को करना होता हैं, पर क्या बुरा? जब-तलक अनिर्णय में रहूं, यात्रा बेहतर विकल्प नहीं होगा?






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